क्या हिमालय कभी सच में एक विशाल समूद्र था ?
मुझे सच जानना था, और मैं जान आया……..
मनमीत की फेस बुक वाल से
क्या हिमालय कभी सच में एक विशाल समूद्र था ? क्या टाइटोनिकल प्लेट्स के आपसी टकराव की वजह से हिमालयन बेसिन विकसित हुआ ? क्या उत्तरी भारत पहले आस्ट्रेलिया महादीप के निकट था ? यानी जहां अभी हम रह रहे हैं, वहां पहले बड़ी बड़ी वेल मच्छली या तमाम बड़े समुद्री जीव रहते थे। ये तमाम सवाल है जो अक्सर किसी भी जिज्ञासू इंसान को सोचने पर मजबूर कर सकते है। आठवीं क्लास में विजया मेम ने जियोग्राफी की क्लास में ‘टेथिस सागर’ के बारे में पढ़ाया तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। हम क्लास के बाद इंटरवल में बातें करते और मजाक बनाते कि ये कैसे संभव है कि जहां हमारा टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून है (पहले हमारे लिए धरती इतनी ही थी और आसमां भी) वहां समूद्र था। बहरहाल, बात आई गई हो गई।
लेकिन, जब 11 वीं में पढ़ रहा था तो एक सर्द सुबह धूप में बैठकर एक राष्ट्रीय अखबार पढ़ रहा था। अखबार के एडिटोरियल पेज पर किसी जियोलॉजिकल साइंसटिस्ट का एक लंबा लेख था। उसमें भी इस बात का उल्लेख था कि हिमालय टाइटोनिकल प्लेटों की टकराहट का परिणाम है। जहां पहले समूद्र था, वहीं अब हिमालय है। मैं फिर से हैरान परेशान हो गया। 12 वीं के बाद जब देहरादून पहुंचा तो मेने इंटरनेट में इस बारे में बहुत पड़ा। हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों के लंबे थिसीस को पड़ा। वहां वरिष्ठ वैज्ञानिक और भूकंप विशेषज्ञ डा. सुशील कुमार का भी बहुत दिमाग खाया। वो अक्सर बताते कि इंडियन प्लेट और यूरेशिया प्लेट दोनों एक दूसरे के नीेचे खिसक रही है। लिहाजा, हर दिन कहीं न कहीं छोटे भूकंप आते रहते है। ये प्रक्रिया हजारों साल पुरानी है।
टेथिस समूद्र का कुछ अंश अभी भी हिमालय के बीचों बीच बचा हुआ है। जैसे लद्दाख से 125 किलोमीटर ऊपर चीन-भारत बार्डर के बीचों बीच स्थित पेंगोग झील । 134 किलोमीटर क्षेत्रफल में ये खारे पानी की एकमात्र टेथिस सागर का अंश है जो टेथिस सागर का प्रतिनिधित्व आज भी करता है। जहां हिमालय की सभी झीलें मीठे पानी की है। वहीं पेंगोंग झील का पानी खारा है। इसलिए इसमें कोई जीव भी नहीं पनपते। सात महीने ये झील पूरी तरह से ठोस में तबदील हो जाती है। 4,350 मी (14,270) की ऊंचाई में स्थित झील का सत्तर फीसदी हिस्सा चीन में है जबकि शेष तीस फीसदी भारत में। झील इतनी विशाल है, कि उसके किनारे खड़े होने पर ऐसा ही लगता है मानो समूद्र के किनारे खड़े हो। दोपहर दो बजे के बाद लहरें सिर तक आने लगती है। दिक्कत बस ये ही है कि आक्सीजन की मात्रा यहां काफी कम होती है।
कई सवालों को लेकर 2015 में लंबा सफर तय कर खुद जीप चला कर पेंगोग झील पहुंचा। वहां पहुंचने में ही मुझे चार दिन लगे। सीमांत इलाका होने के कारण कई परमिट भी आर्मी से बनाने होते है जो लद्दाख मे बनाये जाते है। झील अपने आप में अदभुद है। अभी तक प्राकृतिक नैनीताल झील और अप्राकृतिक टिहरी झील ही देखी थी। पहली बार इतनी विशाल झील देखकर मैं अंचभित था। सबसे पहले सवालों के जवाब मिलने जरूरी था। जिसके लिए मैं आया था। मेने जीप से एक कांच का गिलाश निकाला। झील से पानी भर कर पिया तो वो इस कदर खारा था उससे मैं बीमार हो सकता था। पर्वतीय मीठे पानी के झीलों का ऐसा स्वाद नहीं होता। उसके बाद मेने कुछ पानी का सैंपल भरे। जो मुझे दून में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक को देने थे।
उसके कुछ साल बाद में उसी ऊंचाई पर स्थित वो उससे चार सो किलोमीटर दूर स्थित चंद्रताल झील पहुंचा। ये झील हिमाचल के लाहोल स्पीति में है। झील पहुुचने में तीन दिन लगते है। झील का पानी पेंगोंग से बिल्कुल अलग था। इसी तरह ‘तिसो मोरी’ झील का पानी भी पेंगोग झील से अलग था। खुद झील का निरीक्षण कर अब मैं संतुष्ट था। अब मैं संतुष्ट था कि हिमालय पहले एक सागर ही था। उस दिन पेंगोग झील के किनारे अपनी थर्मस से एक कप चाय निकाल कर, चुस्कियां लेते हुए विजया मैम को याद कर रहा था।