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ऐसे राज्य के लिए तो नहीं थी ये शहादतें ?

योगेश भट्ट 

यूं तो उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में तमाम काले पन्ने दर्ज हैं, लेकिन 2 सितंबर 1994 का दिन पुलिसिया बर्बरता की पराकाष्ठा का दिन था। मसूरी में निहत्थे आंदोलनकारियों पर पुलिस की दरिंदगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आंदोलनकारी बेलमती चौहान के माथे से बंदूक सटाकर उन्हें गोली मार दी गई।

इतना ही नहीं, पुलिसिया कहर हर उस शख्स पर टूटा,जिसने आंदोलनकारियों का पक्ष लेते हुए बर्बरता का विरोध किया। यहां तक कि आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म न देने वाले अपने ही डीएसपी उमाकांत त्रिपाठी को भी मौत के घाट उतार दिया गया। शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि पुलिस इतनी दमनकारी भी हो सकती है।

आंदोलनकारियों की उग्रता तो सिर्फ नारों और घेरावों तक ही सीमित रही, लेकिन तत्कालीन सरकार और उसके पुलिस तंत्र ने सारी सीमाएं लांघ कर दमन किया, इसका गवाह है मसूरी गोली कांड। आज भी उस घटना की याद सिहरन पैदा करती है। मुझे आज भी वो दिन याद है,जिस दिन मसूरी में वह घटना घटी।

उसी दिन पौड़ी में राज्य आंदोलन की मांग को लेकर छात्रों के आह्वान पर विशाल रैली और कमिश्नरी के घेराव का कार्यक्रम था। हजारों हजार की संख्या में प्रदेश के तमाम हिस्सों से आंदोलनकारी पौड़ी पहुंचे थे। मेरा सौभाग्य है कि मैं भी उस रैली का साक्षी रहा हूं। पौड़ी में इतना विशाल जनसमूह शायद ही इससे पहले कभी सड़क पर उतरा होगा।

उस रैली में जोश से लबरेज युवा जब यह नारा, ‘गोली चली तो बम फैंकेंगे, पीएसी से हम निपटेंगे’ लगा रहे थे, तो शायद उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं था कि मसूरी में पुलिस ने दमन की सारी सीमाएं लांघ कर कितनी जघन्य घटना को अंजाम दे दिया है। उस घटना में पांच आंदोलनकारियों और एक पुलिस अधिकारी की शहादत हुई थी। सही मायने में देखा जाए तो मसूरी में हुई शहादत राज्य आंदोलन में बड़ी शहादत है।

यह घटना इसका प्रमाण है कि उत्तराखंड राज्य बहुत बड़ी कीमत चुका कर मिला है। सामने से गोली खाकर मातृ शक्ति ने इस राज्य के आंदोलन को सींचा। घटना को आज 23 बरस बीत चुके हैं। मसूरी गोलीकांड की याद तो नहीं बिसरती लेकिन आज तमाम सवाल बेचैनी जरूर बढ़ाते हैं।

क्या इसी राज्य के लिए बेलमती चौहान और हंसा धनाई ने बलिदान दिया था? जब ये दोनों दिलेर आंदोलनकारी पुलिसिया दमन के आगे नहीं झुकी होंगी तो क्या ऐसे ही राज्य की कल्पना उनके मन में रही होगी? क्या कभी यह कल्पना की गई होगी कि राज्य की मांग करने वाले खुद इस राज्य के लिए अभिशाप हो जाएंगे? जब राज्य बनेगा तो सिर्फ संसाधनों की लूट होगी? संघर्ष सिर्फ सत्ता का होगा? शायद ही शहीद हुए आंदोलनकारियों ने ये कल्पना की होगी कि अलग राज्य बन जाने के बाद यह प्रदेश अपनी पहचान के संकट से जूझेगा।

पूरी सत्ता, पूरा तंत्र अपना होने के बावजूद ‘कठपुतली’ बन जाएगा। नेता नौकरशाह और ठेकेदार मिल कर प्रदेश को चारागाह में तब्दील कर देंगे। और तो और आंदोलनकारी ताकतें तक छोटे-छोटे हितों में उलझ कर रह जाएंगी, और राज्य हित के बजाय लूट में अपना हिस्सा तलाश रही होंगी। साल दर साल 2 सितंबर को याद किया जाता रहा है। सदियों तक किया भी जाता रहेगा। लेकिन क्या सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर ? शहादत का असली सम्मान तो तब माना जाएगा, जिस दिन राज्य के प्रति एक आम व्यक्ति से लेकर मुख्यमंत्री तक और एक आम कर्मचारी से लेकर मुख्य सचिव तक की प्रदेश के प्रति सच्ची निष्ठा होगी।

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