!!भारत चिर पुरातन एवं हिन्दू राष्ट्र!! (कमल किशोर डुकलान ‘सरल’)

हिंदू राष्ट्र संस्कृति सत्य है यहां तर्क-प्रतितर्क और वाद-विवाद हिंदू संस्कृति की विशेषता है। हिन्दू शब्द का उद्गम प्राचीन काल से ही इस देश के लोग ‘हिन्दू’के नाम से जाने जाते हैं जबकि यह भू-प्रदेश ‘भारत’ और ‘हिन्दुस्थान’के नाम से विख्यात है । ‘हिन्दू’ नामकरण ‘सिन्धु’ नदी के नाम से हुआ है। अरबी,ईरानी और फारसी लोग ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ से करते हैं। वे आरंभ से ही ‘सिन्धु’ शब्द का उच्चारण ‘हिन्दू’ कर रहे हैं । यूनानी (ग्रीक) सिन्धु’ शब्द का उच्चारण ‘इण्डस’ करते हैं । इस कारण उन्होंने हिन्दुओं को ‘इंडियन’ भी कहा। चीनी भाषा में ‘सिन्धु’को ‘शिन्तू’ कहते हैं । इसीलिए चीनी यात्री ‘ह्यु-एन-त्स्यांग’ ने भारतीयों का उल्लेख ‘जिन्तू’ अथवा ‘हिन्दू’ किया था। इसका तात्पर्य यह कि ‘हिन्दू’ शब्द का प्रसार ईसाई और इस्लाम पंथ से बहुत पहले हो चुका था ।
आठवीं शताब्दी में अरब राष्ट्रों से आए इस्लामी आक्रमणकारियों का कठोर प्रतिकार हिन्दुओं ने ही किया था। इसलिए उन्होंने हिन्दुओं को ‘काफिर’ (धर्मशत्रु) माना। अरब, तुर्क एवं मुगल आक्रमणकारियों के विरुद्ध दीर्घकाल तक हुए संघर्ष में ‘हिन्दू’ नाम राष्ट्रवासियों के सुख दुःख,जय-पराजय, त्याग एवं बलिदान की स्मृतियों से आज भी चिर स्मरणीय है। सम्राट भरत ने कश्मीर से कन्याकुमारी और सिन्धु नदी से ब्रह्मपुत्र नदी तक के प्रदेश में एकछत्र राज्य किया। उनके इस पराक्रम की स्मृति में यह प्रदेश ‘भारत’ अथवा ‘भारतवर्ष’के नाम से पहचाना जाने लगा।
उत्तरं यत् समुद्रस्य,
हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम,
भारती यत्र सन्ततिः ।।
अर्थात जिस भूभाग पर समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष (भूमि) है,उसका नाम भारत है। यहां की प्रजा को भारतीय प्रजा कहते हैं ।
‘सिन्धु’को ‘इण्डस’ कहनेवाले ग्रीकों के माध्यम से यूरोप महाद्वीप भारत से परिचित हुआ । इस कारण उन्होंने भी भारत को ‘इंडिया’ नाम से संबोधित किया। महर्षि अरविंद ने कहा था। हम भारतीयों के लिए हिन्दू धर्म ही राष्ट्रीयता है । इस हिन्दू राष्ट्र का जन्म हिन्दू धर्म के साथ ही हुआ है तथा उसके साथ ही इस राष्ट्र को गति प्राप्त होती है । हिन्दू धर्म के विकास से ही इस राष्ट्र का विकास होता है ।’’
राष्ट्र एक ऐसा समूह है,जिसका परिचय भाषा,धर्म अथवा पंथ,परंपरा,भू प्रदेश और इतिहास से है; तथापि,राष्ट्रीयता निर्माण होने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस समाज के एक ‘राष्ट्र’ होने की दृढ इच्छा शक्ति। अतः इस संबंध में पश्चिमी विचारक रेनन के कथनानुसार ‘राष्ट्र की अवधारणा का मूल आधार हृदयों में जागृत होने वाली एकता की तीव्र इच्छा और उसकी प्रेरणा’ से हैं। यह आंतरिक चेतना और प्रेरणा ही राष्ट्र की आत्मा होती है । राष्ट्र और राष्ट्रीयता के मूलतत्त्वों एवं लक्षणों की कसौटी पर हिन्दू समाज की ओर देखने से ही, ‘हिन्दू राष्ट्र’की अवधारणा स्पष्ट होती है । भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा वैदिक है । यहां की सर्व भाषाएं संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई हैं । इसीलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्व धार्मिक विधियां वैदिक पद्धति से और संस्कृत भाषा में की जाती हैं ।
इसीलिए भारत भूमि केवल हिन्दु बहुल भूमि नहीं; अपितु यह भूमि अर्थात एक स्वयंभू ‘हिन्दू राष्ट्र’ है । हिन्दू धर्म को राज्याश्रय मिलने पर ही इस भूमि पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ अवतरित होता है । सिन्धु के राजा दाहीर, लाहौर के महाराजा जयपाल, देहली के (दिल्ली के) सम्राट पृथ्वीराज चौहान, राणा हम्मीर, राणा सांगा,महाराणा प्रताप,विजयनगर के कृष्ण देवराय,छत्रपति शिवाजी महाराज,महारानी लक्ष्मीबाई,राजा कुंवर सिंह इत्यादि सर्व हिन्दू राजाओं का उद्देश्य इस्लामी आक्रमकण कारियों से देश को मुक्त कराकर यहां ‘हिन्दुपद पातशाही’ अथवा ‘हिन्दू राज्य’ स्थापित करना था।
भारतभूमि को ‘मातृभूमि’ मानना हिन्दुओं की राष्ट्रीयता ही है !
हिन्दू मानस प्राचीन काल से सदैव राष्ट्र भक्ति की ओर आकर्षित हुआ है। इसलिए हिन्दुस्थान पहला देश होगा, जिसे ‘मातृभूमि’के नाम से जाना जाता है। प्रभु श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं:-
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‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।’
हे! लक्षमण यद्यपि लंका सोने की है फिर भी जन्म देने वाली ‘मां एवं जिस भूमि पर हमने जन्म लिया है वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं !’ शिकागो (अमेरिका)से लौटते समय भारतीय तट निकट आने पर स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘इस क्षण मेरी प्रिय मातृभूमि से आने वाली पवन ही नहीं;धूल भी मुझे प्राणों से प्रिय लग रही है।
विभाजन के पश्चात भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित न करना, हिन्दुओं के साथ अन्याय है। वर्ष १९४७ में देश के विभाजन में भारत के मुसलमानों को इस्लामी सिद्धांत पर आधारित ‘पाकिस्तान’ राष्ट्र प्राप्त हुआ । वर्ष १९४७ में मुसलमानों की जनसंख्या २२ प्रतिशत थी; परंतु उन्हें भारतीय भूमि का ३० प्रतिशत क्षेत्र ‘राष्ट्र’के रूप में प्राप्त हुआ । जो भारत को ‘पुण्यभूमि एवं ‘पितृ भूमि’ नहीं मानते थे,वे पाकिस्तान चले गए। जिन्होंने स्वयं के भूतकाल,वर्तमान काल एवं भविष्यकाल को इस हिन्दू भूमि से संबंधित मानकर इस भूमि में रहने का निर्णय लिया, उन्होंने स्वयं की राष्ट्रीयता सिद्ध की। विभाजन से बोध लेकर इस राष्ट्रवादी समाज के लिए भारत देश को वर्ष १९४७ में ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करना आवश्यक था; परंतु दुर्भाग्यवश वैसा नहीं हुआ।
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धर्मनिरपेक्ष (अधर्मी) लोकतंत्र में ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग ही लुप्त !
विगत सहस्त्रों वर्षों के विधर्मी आक्रमणकारियों तथा स्वतंत्रता के उपरांत सत्ता में आए धर्मनिरपेक्ष अर्थात अधर्मी वृत्ति के हमारे ही राजनेताओं के कारण हिन्दू धर्म राजाश्रय से वंचित हो गया; परिणामस्वरूप आज भारतभूमि में ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग ही कठिन हो गया है । भारतीय लोकतंत्र में सत्ता हिन्दू शासनकर्ताओं के हाथ में होते हुए भी हिन्दू धर्म का राजाश्रय खंडित हुआ है ।
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से भारत की अधोगति होने के कारण ‘हिन्दू राष्ट्र’की स्थापना की आवश्यकता !
प्राचीन भारत में सनातन वैदिक हिन्दू धर्म को राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण यह राष्ट्र ऐहिक (व्यावहारिक) तथा पारमार्थिक (आध्यात्मिक) दृष्टि से प्रगति के पथ पर था। इसलिए सुसंस्कृत एवं समृद्ध समाज, उत्तम वर्णव्यवस्था, आचार-विचारों की शुदि्ध, आदर्श कुटुंबव्यवस्था इत्यादि की स्थापना इस हिन्दू धर्माधारित राष्ट्र में हुई थी । परंतु स्वतंत्रता के ७ दशकों के पश्चात भी ‘धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र’की प्रशंसा करनेवाले सर्वदलीय राजनेताओं के लिए सुसंस्कृत समाज एवं समृद्ध राष्ट्र की स्थापना करना संभव नहीं हुआ । इसके विपरीत अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक समस्याएं गाजर-घास के समान फैल रही हैं; इसलिए यह राष्ट्र ही तीव्र गति से विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है । स्वतंत्रता के काल से ही इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है; परंतु वे दिन प्रतिदिन और अधिक जटिल बन रही हैं । इन समस्याओं की तीव्रता जानने के पश्चात हमारे द्वारा अपनाए गए लोकतंत्र की निरर्थकता तो ध्यान में आएगी ही, साथ ही हिन्दू धर्म पर आधारित ‘हिन्दू राष्ट्र’ स्थापित करने की अनिवार्यता भी समझ में आएगी।
वासुदेव लाल मैथिल सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कालेज,रूड़की (हरिद्वार)