प्रदेश की मान्यता प्राप्त प्रादेशिक भाषा स्थित हो पाएगी!
डॉ बिहारीलाल जलन्धरी
भारत देश के पहले डीलिट और देवभूमि के सपूत डॉ पीताम्बर दत्त बड़थवाल ने उत्तराखण्ड का जिक्र करते हुए कहा था कि भाषा सदैब जोड़ने का काम करती है तोड़ने का नहीं।
आज का उत्तराखण्ड कल का कुमाऊँ गढवाल जौनसार भू-भाग का एकात्म रूप है। आज के उत्तराखण्ड में मुख्य इन्ही तीन क्षेत्रों का समवेश है। जिसे किसी भी भाषाई आधार पर अलग नहीं किया जा सकता।
पौराणिक गाथाओं में गढवाल कुमाऊँ के नरेशों की दुश्मनाई राज्य के विस्तारवाद पर केन्द्रित थी। बहुत कम देखा गया कि बाहरी शक्तियों को खदेड़ने के लिए गढ़वाल कुमाऊँ के राजाओं ने कभी एक दूसरे की सहायता की हो। जो समय रहते धीरे-धीरे खत्म हो गई। परंतु पौराणिक यादों के शुप्त पडे़ इतिहास को एक माचिस लगाकर सुलगाना समाज बिरोधी काम होगा। इस नवगठित उत्तराखण्ड प्रदेश में मैं गढवाली तू कुमाउँनी वह जौनसारी की भावना के नाम पर हम आज भी बैमनुष्यता पैदा करने व फैलाने में लगे हैं। हद की तो तब अति हो जाती है जब हमने मैं गढवाली तू कुमाउँनी वह जौनसारी की भावना को अपने बच्चों के दिलो दिमाग में उनको एक दूसरे से अलग करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। और कह रहे हैं कि हम प्रदेश समाज के लिए बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
हमने अपनी एक छोटी सी स्वार्थपूर्ति के लिए समाज हित को तिलांजलि दे दी है। हम अपने निजी स्वार्थ में इतने अंधे हो गये हैं कि गढवाल कुमाऊँ के बीच पौराणिक समय से बनी ईर्ष्या की खाई को पटाने के बजाय उसे और चौड़ा कर रहे हैं।
आप देखिए आजतक दिल्ली जैसे महानगर में एक दूसरे को हम उत्तराखण्डी के नाम से जानते थे परंतु भाषा के लिए होने वाली इन गतिविधियों के बाद उनमें भी मैं गढवाली तू कुमाउँनी वह जौनसारी की भावना से पहचान हो रही है।
हमनें समग्रता के संबंध में कभी सोचा ही नहीं। न हमने एकेडमिक रुप से मिलकर आगे बढने की कोशिश की है।
स्वयं मैं एकेडमिक रुप से उत्तराखण्ड की भाषा की कुमाउँनी गढवाली बोली के साहित्यकारों को यही कहता आ रहा हूँ कि जिस साहित्य का स्रजन आप कर रहे हैं उसमें दूसरी बोली भाषा के शब्दों को स्थान देकर उस बोली भाषा को भी सम्मान दो। इन बिचार को कई बुद्धिजीवियों ने स्वीकार किया तथा कुछ मंचीय कवियों ने इस बिचार की खिलाफत करनी शुरू कर दी।
आप भली तरह से जानते हैं कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के अट्ठारह वर्ष बाद भी उत्तराखण्ड की किसी भी बोली को भाषा व मान्यता प्राप्त प्रादेशिक भाषा का दर्जा अभी तक नहीं मिला। हमतो भाषा के रूप में अभी भी बंटे हैं अपनी अपनी दुकाने चलाते हुए उत्तराखण्डी समाज के साथ छल कर रहे हैं मैं गढवाली तू कुमाउँनी वह जौनसारी की भावना को जीवन्त रखकर।
फूट डालो राज करो, उत्तराखण्ड की बोलियों के यह अंग्रेज, क्या कभी उत्तराखण्डियों को एक होने देंगे? भाषा का एकीकरण हो पाएगा ! उत्तराखण्ड की मान्यता प्राप्त प्रादेशिक भाषा स्थित हो पाएगी ?