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आज लगता है बहुत भोला, पर अलमस्त सा मेरा गांव कहीं खो गया : हरीश रावत

  • म्यर गौं (मेरा गांव)
  • मेरे ललदा की तरह गाॅव के सत्व (अनाज) को याद रखना पड़ेगा

हरीश रावत 

राज्य के मुख्यमंत्री ने अभी-अभी  कहा है कि, स्वैच्छिक चकबंदी उनके पैतृक गांव से प्रारम्भ होगी। काश मैं भी ऐसा कर पाऊं। आज गांव में अपनी मकान की छत पर बैठा, बार-बार यह सवाल अपने-आपसे कर रहा हॅूं, क्या मैं स्वैच्छिक चकबंदी को अपने गाॅव व अड़ोस-पड़ोस में सम्भव बना पाऊंगा। जबकि स्वैच्छिक चकबंदी का कानून कांग्रेस सरकार ने ही पास करवाया है।

घर की छत पर बैठे-बैठे  मेरी नजर अपने गांव के ऊपर लेटे हुये बड़े पत्थर पर पड़ी। जिस पर न जाने कितनी बार मैंने बचपन में घुस-घुसस्टी (फिसल पट्टी)  खेली थी। मुझे अपने बड़े चाचा भी याद आ रहे हैं। हमारा आंगन बड़ा था। हम सब बच्चे वहीं खेलते थे। चाचा जी को घरेलु काम नहीं करने देते थे। वे अपनी जेब से एक मिश्री या गुड़ की डली निकालते थे और कहते थे जो ऊपर वाले पत्थर को तीन बार सबसे पहले छुयेगा, उसे यह मिश्री मिलेगी। हर बार मैं पहला आता था और मिश्री पाता था। बचपन की उस दौड़ ने ही मुझे प्रतियोगात्मक बनाया। राजनैतिक जीवन में जीत से हार ज्यादा भोगी, पर कभी मन को नहीं हारने दिया। गांवों में पसरते सन्नाटे को तोड़ने के लिये मैंने मुख्यमंत्री रहते सैकड़ों पहलें प्रारम्भ की, प्रायः सभी धरती पर उतरी भी, पर इच्छित गति नहीं पकड़ पाई। शायद मुझे मुख्यमंत्री के रूप में काम करने का जो समय मिला वह कम पड़ गया। सोचता हॅू क्या इस हार के बाद अब गांव में पसरे सन्नाटे को तोड़ने के लिये मैं कुछ कर पाऊंगा। हार नहीं मानी है, पर उम्र अब मेरे पक्ष में नहीं है।  

आज लगता है बहुत भोला, पर अलमस्त सा मेरा गांव कहीं खो गया है। मैं इतनी ऊंचाई तक पहुंचा, पर क्या मैं अपने गांव को, उसका खोया हुआ अपनापन फिर वापस कर पाऊंगा। कितना अच्छा था मेरे गांव का बचपन, अपना-पराया, छोटा-बड़ा कुछ नहीं था। सब साथ खेलते थे। जिसका खेत बड़ा होता था, वहीं हमारी गीरी (गावों की होकी) शुरू हो जाती थी। मेरी माँ जंगल से लकड़ी के साथ मजबूत लकड़ी (बहुधा घिंघारू) की हाॅकी बनाकर लाती थी और कपड़े की बाल (गेंद) फटे-पुराने कपड़ों की सी कर हर रोज देती थी। कभी-कभी  चाचियां भी गेंद देती थी। हम गेंद से गेंद-बल्ला भी खेलते थे। लगान के क्रिकेट की तर्ज पर रन बनाते थे। जब खेत खाली नहीं होते थे, हमारे थड़े (आंगन) में गुल्ली-डंडा खेलते थे और खूब डांट भी खाते थे। अड्डू व अंठी एवं गुच्छी, बाघ-बकरी भी खेलते थे। गुच्छी को पिताजी जुआ बताकर मेरी पिटाई करते थे। जब तक मैं और मेरी टीम चोरी करती रही, गांव व आस-पास के गांवों में खूब ककड़ी, माल्टा, संतरा, नीबू, सेब, खुमानी, चुआरू, दाड़िम, नासपाती होते रहे। हम जिसके खेत या पेड़ से चोरी करते थे उसके बेटे या बेटी को एक टुकड़ा जरूर खिलाते थे। जब उसकी माँ अपने चैथरे में खड़े होकर गाली देती थी, तो हम ताली बजाकर उसके लड़के से कहते थे, अब तू भी हमारे साथ मर जायेगा। तेरी माँ ने गाली दी है। खूब मजा लेते थे। नई-नई  शरारतें करते थे, कहां गया वह अल्हड़ गांव। यदि आज ऐसी शरारत कोई करे, तो कोर्ट कचहरी तक का मामला पहुँच जायेगा। उस समय इन सब बाल शरारतों में एक अपनापन था, जो अब खो गया है। गांव में जो लोग हमें गाली देकर पिताजी से पिटवाते थे, हम जंगल में उसकी गाय-बकरियों को और दूर तक हांक देते थे और मजा लेते थे। जब मैंने सन 1980 में लोकसभा चुनाव लड़ा तो, हमारे अड़ोस-पड़ोस गांव जहां से मैंने जूनियर हाईस्कूल व हाईस्कूल किया। मेरी पहचान बताते वक्त कहते थे, यह वही हरीश है जिसने हमारे सेब, माल्टे चोरे थे।

अब जब मैं अपने गांव व उसके आस-पास देखता हॅू तो सेब, माल्टे, ककड़ी, गाय-बकरी सब गायब हैं। अब खेलने वाले बच्चे भी गायब हैं, अब गांवों में चोरी करने वाला अल्हड़ बचपन नहीं है। इसलिये फल आदि भी गायब हो गये हैं। प्रकृति भी बदल गई है या रूठ गई है।

पिछले पच्चीस वर्षों में धीरे-2 गांव से गांव वालों का रिश्ता टूटता-छूटता चला गया। पहले हम गांव के काफल व ठण्डा पानी भूले, फिर धीरे-2 जागर लगाना भी बन्द हो गई। गांव की धरती का सत् छूठ गया। हमारा बहुत बड़ा परिवार था, हमारे खेत व जानवर, सारे परिवार के लिये सबकुछ देते थे। मेरे नाना बहुत अच्छे किसान थे, उनके पैदा की गई गडेरी व पिनालू के गुटके और ढिनाली के नाम पर घी के हड़पिया को मैं कभी नहीं भूल सकता। नैनीहाल के लाल माल्टे भी नहीं भूल सकता, मेरी नानी मेरे लिये कुछ सबसे छिपाकर रखती थी। मैं गांव में शरारत कर नैनीहाल जो लगा हुआ गांव है, वहाँ भाग जाता था और नानी से बहुत सारी शिकायतें करता था और नानी मुझे गुड़ घी देती थी। मेरे नाना खेत में काम करते-2 मरे। मुझे खुशी है, मेरे नैनीहाल में आज भी खेती हो रही है, वहां गांव जागृत लगता है। वहाॅ के लोगों के चेहरे पर ताजगी नजर आती है। वहाँ आज भी आम की डाली में घुघुती घुर्र-घुर्र कर अपने परदेशियों को बुलाती है। आज भी उस गांव में चेतोला मनाने बेटी आती है, क्योंकि चेतोला देने वाला मायेके में कोई है।

मैं छत में बैठा-2 सोच रहा हॅू, कैसे अपने परिवार व गांव के भाई-बन्धुवों (अब परदेशियों) को गांव से जोडूं, कभी-2 तो आवें । भूमियां पूजने आवें, देवी के नौ रात्रों में आवें, खेत व आंगन तक आ रहे चीड़ से गांव को बचाने के लिये आवें। खेती न सही कुछ सांग-सब्जी पैदा करें। खुद न करें दूसरे को तो खेत सौंप कर कुछ पैदा करवायें। हमारे एक कोटाल (दर्जी) थे लाल दा, उनके बूबू को मेरी बूढ़ी अम्मा के मायके वालों ने शादी के वक्त उनके साथ भेजा था। तीसरी पीढ़ी में ललदा थे। वे जब भी हमारे घर आते थे, बैठते दरवाजे पर थे। परन्तु घर के हर बच्चे को उन्हें प्रणाम कहना पड़ता था। यदि कोई भूल गया तो, पिताजी की डांट खानी पड़ती थी। पिताजी अपने हाथ से उनके बैठने के लिये चटाई बिछाते थे। बड़ा सम्मान करते थे उनका। वे हमारे घर से हर फसल पर कुछ नाली आनाज ले जाते थे और पिताजी व चाचाओं के लिये टोपी लाते थे। जब कुछ समझने लायक बना तो रामनगर इण्टर पढ़ने गया। वहां मैंने देखा, कि ललदा का मकान हमसे बड़ा है, खेत है, बगीचा है और बहुत अनाज होता है। बाजार में दर्जी की दुकान है। जब वे फिर फसल के मौके पर हमारे घर आये, तब तक मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। जब माँ उन्हें कुछ मडुआ देने लायी, तो मैंने माँ से कहा ईजा ये तो बहुत बड़े आदमी हैं, उनके लिये इस अनाज का क्या महत्व। मुझे ललदा के शब्द आज भी याद हैं ‘‘पधानज्यू मैं व मेरा परिवार इसी अन्न के सत्व से यहां तक पहुंचे हैं, जिस दिन मैं व मेरा परिवार इसको छोड़ देंगे तो मिट्टी में मिल जायेंगे’’।

आज ललदा नहीं हैं, मगर गांव में घर-घर बिजली है, पानी है, शौचालय है, जूनियर हाईस्कूल है, सड़क है, पंचायत घर है, मंदिर भी अच्छे बन गये हैं। गांव में मकान भी अच्छे बन गये हैं, सब कुछ है परन्तु ललदा की तरह गांव की मिट्टी के अन्न के सत्व को पहचानने वाले नहीं हैं। इसलिये मेरा मन डर रहा है, कि क्या मैं अपने गांव का पुराना स्वरूप कुछ हद तक लौटा पाऊंगा। दुःख यह है कि यह केवल मेरे गाॅव की कहानी नहीं है। गाॅव-गांव की यही व्यथा है, हमें अपना गाॅव प्यारा है, बोली भाषा प्यारी है, संस्कृति प्यारी है, खान-पान प्यारा है, मगर दूर-दूर  से।

हमें देहरादून, दिल्ली, चण्डीगढ़, हल्द्वानी में बहुत याद आती है, अपने प्यारो गाॅव की। मगर महीने में दो रोज हम अपने कुड़े (मकान) में नहीं बिताते हैं, जहाॅ हम पैदा हुये, जहाॅ से हमारा वंश प्रारम्भ हुआ। वहीं आंगन में झोड़े व झुमेलो नहीं गाते हैं। टूटते हुये अपने बाप दादाओं की निशानी, मकान की हम मरम्मत नहीं कराते हैं। हमें दर्द बहुत है, मगर आराम के साथ। एक बात हम सबको याद रखनी चाहिये यदि हमें आगे बढ़ना है, तो मेरे ललदा की तरह गाॅव के सत्व (अनाज) को याद रखना पड़ेगा, उस धरती से जुड़ाव रखना पड़ेगा, तभी हम आगे बढ़ पायेंगे और अपनी वंश परम्परा की पहचान को बनाये रख पायेंगे। 
                                        

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