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‘बहते’ उत्तराखंड से ‘बेपरवाह’ सरकार

  • पहाड़ की मिट्टी खोदकर नदियों में बहायी जा रही है 
  • 17.50 लाख हेक्टेयर क्षेत्र मिट्टी के कटाव से अत्यंत गंभीर रूप से प्रभावित
  • प्रदेश के 32.72 प्रतिशत क्षेत्रफल से प्रति वर्ष 40 से 80 टन प्रति हेक्टेअर मिट्टी का हो रहा है कटान 

योगेश भट्ट 

क्या बिना ‘मिट्टी’ के जमीन के कल्पना की जा सकती है ? यदि नहीं, तो फिर तय मानिये कि उत्तराखंड बड़े संकट में आने जा रहा है । प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में बहुत तेजी के साथ भू-क्षरण हो रहा है । लगभग आधा प्रदेश गंभीर रूप से इसकी जद में आ चुका है। कृषि, वानिकी, बागवानी सब कुछ खतरे में है । दुर्भाग्य देखिये कि इसके बावजदू प्रदेश में विकास के नाम पर बड़ी विनाशकारी योजनाएं चलायी जा रही हैं । पेड़ों का बड़े पैमाने पर कटान हो रहा है, पहाड़ की मिट्टी खोदकर नदियों में बहायी जा रही है । सरकार आसन्न खतरे से बेपरवाह है, ठेकेदार एक सिरे से पहाड़ को ‘छलनी’ करने पर लगे हैं ।

भू-क्षरण अर्थात मिट्टी का कटना या बहना । इसे एक प्राकृतिक प्रक्रिया माना गया है । उत्तराखंड में यही प्राकृतिक प्रक्रिया अभिशाप बनने जा रही है । सामान्य तौर पर भूमि क्षरण की वार्षिक सहनशीलता दर 11.2 टन प्रति हेक्टेअर आंकी गयी है, लेकिन उत्तराखंड में यह दर सालाना 80 टन प्रति हेक्टेअर तक है । प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 53.48 लाख हेक्टेअर है, जिसमें से 26 लाख हेक्टेअर से अधिक क्षेत्रफल पर सामान्य से भी अधिक दर से भू-क्षरण हो रहा है । अंदाजा लगाइये कि कैसे पूरा प्रदेश खतरे के मुहाने पर है ।

यह कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय संस्थान के वैज्ञानिकों का शोध है। अभी कुछ माह पूर्व नागपुर स्थित ‘राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण व भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो’ के वैज्ञानिकों द्वारा यह खुलासा किया गया । करंट साइंस नाम की पत्रिका में यह शोध प्रमुखता से प्रकाशित हो चुका है । ऐसा अनुमान है कि राज्य सरकार और संबंधित महकमों के पास भी किसी न किसी माध्यम से यह जानकारी पहुंच चुकी होगी । आश्चर्य यह है कि राज्य की जमीन, उसकी पारिस्थितकी और भविष्य से जुड़ा यह शोध न तो खबरों की सुर्खियां बना और न ही सरकार और ‘ठेकेदारों’ की चिंता ।

शोध रिपोर्ट के मुताबिक देहरादून, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग, चमोली और बागेश्वर जिलों में 17.50 लाख हेक्टेअर क्षेत्र मिट्टी के कटाव से अत्यंत गंभीर रूप से प्रभावित है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 33 फीसदी है । इन्ही जिलों में 4.73 लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल गंभीर रूप से प्रभावित है, जो पूरे प्रदेश के क्षेत्रफल का लगभग 9 फीसदी बैठता है । यही नहीं पौड़ी, नैनीताल, चंपावत और उधमसिंह नगर जिलों में भी 3.59 लाख हेक्टेअर भूमि से मिट्टी का कटाव हो रहा है । यहां यह दर कम जरूर आंकी गयी है, लेकिन सामान्य भू-क्षरण की दर से यह भी अधिक है ।

भू-क्षरण की दर के लिहाज से बात करें तो प्रदेश के 32.72 प्रतिशत क्षेत्रफल से प्रति वर्ष 40 से 80 टन प्रति हेक्टेअर मिट्टी का कटान हो रहा है। लगभग 9 प्रतिशत क्षेत्रफल से 20 से 40 टन मिट्टी प्रति हेक्टेअर मिट्टी का क्षरण हो रहा है । इसी तरह 6.71 प्रतिशत क्षेत्रफल से 15 से 20 टन प्रति हेक्टेअर मिट्टी हर साल कट रही है । निसंदेह यह आंकड़ा बड़ी चेतावनी है । राज्य के पर्यावरण से लेकर आजीविका तक के लिए संकट खड़ा होने जा रहा है ।

मिट्टी का तेजी से कटान उत्तराखंड के लिए तो खतरा है ही इसका नुकसान सीधे-सीधे हिमालयी पारिस्थितकी को भी होना तय है । वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय की ऊपरी सतह कमजोर पड़ेगी तो आपादाएं अधिक आएंगी । जिसका दुष्प्रभाव इंसानों, जीवो जंतुओं और अन्य संसाधनों पर समान रुप से पड़ना निश्चित है। इंसान पर प्रभाव होगा तो पलायन बढ़ेगा, वनस्पतियां समाप्त होंगी तो उस पर आश्रित प्राणियों के अस्तित्व पर खतरा बढ़ेगा । आपदाएं बढ़ेंगी तो नदियों के किनारे टूटेंगे, वह विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएंगी ।

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसे में तंत्र की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए । सरकार और उसका तंत्र गंभीर और दूरदर्शी होता तो निसंदेह पहली प्राथमिकता राज्य की जमीन बचाना होता । राज्य के विकास का माडल राज्य की भौगोलिक परिस्थतियों के अनुरूप तैयार किया जाता, भू-क्षरण को गंभीरता से लेते हुए एक समझ विकसित की जाती । राज्य में जमीन का बंदोबस्त कराया जाता, हर साल मिट्टी के कटाव से होने वाले नुकसान का मूल्यांकन कराया जाता । राज्य में भू-क्षरण को रोकने की प्रभावी कार्ययोजना बनातेहुए कृषि क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश की जाती, कृषि विविधीकरण पर जोर दिया जाता, वानिकी और बागवानी को बढ़ाया जाता । लेकिन अफसोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि सरकार की प्राथमिकता में यह कभी रहा ही नहीं ।

जिस तरह सरकार फैसले लेती रही है कि उस लिहाज से देखें तो, उत्तराखंड की जमीन सिर्फ प्रकृति का ही नहीं बल्कि सरकार का भी प्रकोप झेल रही है । प्रकृति के प्रकोप से उत्तराखंड ‘रिस’ रहा है तो सरकार के प्रकोप से ‘लुट’ रहा है । जिस जमीन पर फसलें लहलहाती रही हैं, उसे भी नगरीय सीमा में शामिल कर कंक्रीट के जंगल में तब्दील करने का रास्ता खोल दिया गया है । जमीन की खुली लूट के लिए भू-कानून को लचीला कर दिया गया है । यह सब देखकर सरकार का मकसद कहीं से भी जमीनों को बचाने का नहीं लगता ।

दावा किया जाता है कि सरकार कृषि और बागवानी को बढ़ावा दे रही है, जबकि कृषि और बागवानी की योजनाओं में लूट मची है । जिन विश्वविद्यालयों के पास शोध और समाधान का जिम्मा होना चाहिए था वे सियासत और भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं । सरकार और उसके तंत्र का जोर जमीनी काम पर कम और प्रचार पर ज्यादा है । अध्ययन के नाम पर नेता और अफसरों के सिर्फ विदेश दौरे होते हैं । सरकार तो हकीकत मानने तक के लिए तैयार नहीं । जो खतरा उत्तराखंड पर मंडरा रहा है, उसकी सरकार को परवाह होती तो राज्य के विकास का माडल यह नहीं होता । भू स्खलन के संभावित खतरे को देखते हुए आज लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का वह चर्चित गीत याद आता है, जिसमें उन्होंने वर्षोँ पहले मिटटी कटने से होने वाले खतरों के प्रति आगाह किया है (ना काटा, तौ डाल्यों… डालि कटेलि त माटी बगाली , कूड़ी ना फुन्ग्डी ना डोखरी बचली घास लखड़ा ना खेती हि राली, भोल तेरी आश औलाद क्या खाली.. गीत सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं 

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