हरीश रावत की दमदार वापसी !

- रावत की उपेक्षा का खतरा मोल नहीं ले सकती कांग्रेस
- ‘उपेक्षित रावत’ प्रसन्न रावत से साबित हो सकते हैं अधिक नुकसानदेह
व्योमेश जुगरान
देश की राजनीति में ‘बहुगुणा-तिवारी’ युग के लगभग अंतिम प्रतिनिधि हैं- हरीश रावत। यही वरिष्ठता उनकी ताकत है जो उन्हें हाशिये पर रहना नहीं सिखाती। उत्तराखंड में विवादास्पद सियासी पारी के बावजूद आज केन्द्रीय राजनीति में पुनर्वापसी की उनकी लालसा यदि रंग लाई है तो इसकी खुर्दबीन में किन्तु-परन्तु की बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती। पर हां, रोचक होने के नाते इस घटनाक्रम पर चर्चा जरूरी है।
गौरतलब है कि पार्टी ने कई दिग्गजों को दरकिनार कर रावत को न सिर्फ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त किया, बल्कि असम में पार्टी मामलातों की जिम्मेदारी सौंप कर उनका कद भी बढ़ा दिया। अंदरखाने क्या चला, नहीं मालूम। पर राजनीतिक समझ यही कहती है कि पार्टी 2019 के महासमर से पहले, खासकर उत्तराखंड की पांच लोस के मद्देनज़र रावत की उपेक्षा का खतरा मोल नहीं ले सकती क्योंकि ‘उपेक्षित रावत’ प्रसन्न रावत से अधिक नुकसानदेह साबित हो सकते हैं।
अंबिका सोनी, अहमद पटेल और गुलामनबी आजाद जैसे वफादार कांग्रेसियों से रावत के मधुर रिश्ते रहे हैं। बावजूद इसके इधर वह खुद को पार्टी में उपेक्षित महसूस कर रहे थे। पहाड़ में अपना जनाधार बचाने की चुनौती और केंद्रीय राजनीति में वापसी की जद्दोजहद के बीच काफल पार्टी, आम पार्टी, अरसा मंडल जैसी छोटी-छोटी लहरों के सहारे वह अपनी नाव खे रहे थे। पर, अचानक लहरों के राजहंस पर सवार हो वह सीधे अंत:पुर में जा विराजे।
ऐसे अनेक अवसर आए जब रावत के विरोधी उनकी राजनीतिक पारी का पिंडदान कर आए हों। पर, वह हर बार किसी रक्तबीज की तरह नए सिरे से उठ खड़े हुए। वर्ष 2016 में उनके मुख्यमंत्री रहते प्रदेश कांग्रेस में सबसे बड़ी बगावत हुई और विजय बहुगुणा के नेतृत्व में विधायकों के एक धड़े ने सरकार को अल्पमत में ला पटका। इस बीच विधायकों की बिक्री से जुड़े ‘टॉपअप टेप कांड’ के कारण रावत की खूब जगहंसाई भी हुई। मामले की सीबीआई जांच व राज्य में राष्ट्रपति शासन के साथ ही उनकी सियासी पारी समाप्त मान ली गई। लेकिन वह न्यायपालिका की चौखट से अपना राज बहाल कर लाए।
पर, उस पूरे घटनाचक्र में जनता की अदालत ने उन्हें बेकसूर नहीं माना और फरवरी 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में सजा सुना दी। रावत के नेतृत्व में लड़े गए इस चुनाव में कांग्रेस को सबसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। रावत खुद भी दोनों सीटों पर खेत रहे। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में हरिद्वार से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में अपनी श्रीमतीजी की हार का दंश भी वह पार्टी को दे चुके थे। इस सबके बावजूद यदि पार्टी में उनका जलवा बरकरार है तो यह उनके राजनीतिक कौशल और चातुर्य का ही प्रमाण है।
2002 और 2012 में मुख्यमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदारी के ढ़ेर होने की घटनाओं को रावत ने खूब भंजाया और जमकर राजनीतिक कमाई की। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री कोई भी रहा हो, वहां पार्टी की अंदरूनी राजनीति की धुरी हमेशा रावत ही रहे। देर से ही सही, वह मुख्यमंत्री भी बने और उन्होंने जैसा चाहा वैसा हुआ। चाहे प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी हो या राज्यसभा की मेंबरी या फिर चुनावों में टिकट वितरण का मामला, सब मामलों में उन्हीं की चली।
रावत बेशक चुनावी मुख्यमंत्री के रूप में घोर असफल रहे हों और उनका कार्यकाल आरोपों से घिरा रहा हो, पर यह सच है कि उत्तराखंड में कांग्रेस के पास आज सबसे बड़ा चेहरा वही हैं। प्रदेश पार्टी में अपने धुर विरोधियों/ प्रतिद्वंद्वियों को वह पहले ही ठिकाने लगा चुके हैं। फरवरी 2014 को जब देहरादून में उन्हें विधायक दल का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने तो सबसे पहले उन्होंने प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में ‘सतपाल युग’ का संहार करके अपने पाए मजबूत किए। बाद में विजय बहुगुणा और हरक सिंह जैसों को पटक कर वह प्रदेश कांग्रेस का सबसे अजेय चेहरा बन गए।
कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तराखंड की पांचों सीटों को भाजपा की कमजोर कड़ी मान रही है और अपना दावा पुख़्ता कर लेना चाहती है। हरीश रावत के अलावा किसी अन्य को आगे करने का जोखिम पार्टी अभी उठा नहीं सकती। वैसे भी अपनी काफल-आम पार्टियों के जरिये रावत लगातार संकेत दे रहे थे कि उन्हें हाशिये पर रहना गंवारा नहीं और वक्त पड़ा तो उनमें अपनी स्वतंत्र राजनीतिक राह चुनने का माद्दा है। आसन्न लोकसभा चुनावों की इस कठिन घड़ी में कांग्रेस के लिए हरीश रावत एक बार फिर मजबूरी का विकल्प बनकर उभरे हैं।