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आखिर कब तक दूसरों की जान बचाने के लिए खतरों के खिलाड़ी बनते रहेंगे जॉय हुकिल

जॉय को किसी आदमखोर को मार गिराने पर कुछ आर्थिक सहयोग तो दूर की बात आज तक एक प्रशस्ति पत्र तक नहीं दिया 

जॉय हुकिल उत्तराखंड के पौड़ी से पिथौरागढ़ तक न जाने कितने जंगलों में आदमखोर गुलदारों की तलाश में घूमे हैं

राजेन्द्र जोशी 
देहरादून : उत्तराखंड के जंगलों से निकलकर बस्तियों में इंसानों पर हमला करने वाले आदमखोर घोषित गुलदारों का शिकार करना कोई मजाक नहीं है। दूसरों की जान बचाने के लिए पौड़ी निवासी प्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल आदमखोर गुलदारों से लड़ने से पीछे नहीं रहते। उत्तराखंड का कोई ऐसा इलाका नहीं है, जहां जॉय इंसानों की रक्षा के लिए आदमखोरों से न भिड़े हों। 
दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान खतरे में डालने वाले जॉय को सरकारी स्तर पर कुछ नहीं मिलता। लेकिन उनका जुनून है कि खतरों से खेलते हुए उन्हें दूसरे लोगों की जान वे कैसे बचाएं।  वर्ष 2007 से यानी लगभग 13 साल में अभी तक 38 आदमखोरों के आतंक से पर्वतीय इलाकों में रहने वाले ग्रामीणों को निजात दिलाने वाले जॉय को सम्मानित तक नहीं किया गया। उनको कुछ आर्थिक सहयोग तो दूर की बात वन विभाग से या प्रदेश सरकार से आज तक एक भी प्रशस्ति पत्र तक नहीं मिलता। 
जब करीब 50 वर्षीय प्रसिद्ध शिकारी जॉय को वन विभाग से कोई वेतन, मानदेय या सम्मान पत्र तक नहीं मिलता तो वो अपनी बंदूक अपने कारतूस और अपने ही सीमित संसाधनों के साथ आदमखोर की तलाश में जंगलों की खाक क्यों छानते हैं। दरअसल, आदमखोरों का शिकार करना जॉय का शौक है। 
यही वजह है कि सरकारी स्तर पर उनको इंसानों पर हमले करने वाले खूंखार जानवरों का शिकार करने का काम तो दिया जाता है, पर उनको किसी तरह का भुगतान नहीं किया जाता। हालत यह है कि इस काम के लिए जॉय को अपनी गाड़ी, बंदूक और अन्य खर्चे खुद ही वहन करने पड़ते हैं। इस वजह से जॉय के सामने आर्थिक चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। 
जॉय उत्तराखंड के पौड़ी से पिथौरागढ़ तक न जाने कितने जंगलों में आदमखोर गुलदारों की तलाश में घूमे हैं। उनका कहना है कि इंसानों पर हमला करने वाले खूंखार जानवरों को हटा देना ही ठीक है। जॉय का अनुमान है कि राज्य में इस समय कम से कम सात से आठ हजार गुलदार होंगे, इससे ज्यादा भी हो सकते हैं।
पिछले साल एक इंटरव्यू में जॉय यह पूछने पर कि यह कैसे पता चलेगा कि जिस जानवर का शिकार किया वो हमलावर ही था, बताते हैं कि हम पग मार्ग, व्यवहार, टूटे नाखून, ढलती उम्र जैसे लक्षण और अपने अनुभव से आदमखोर जानवर को चिह्नित करते हैं। गुलदार हमारे जानवर ले जाता है तो हमें उतना दुख नहीं होता, लेकिन जब इंसान को ले जाता है तो हमारे सब्र का बांध टूट जाता है।
अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि बिना किसी आर्थिक सहयोग, वेतन या मानदेय के लिए इंसानों को खूंखार जानवरों से निजात दिलाने वाले जॉय हुकिल आखिर कब तक दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान को खतरे में डालते रहेंगे। वन विभाग और सरकार के स्तर पर इस प्रसिद्ध शिकारी के बारे में कुछ तो विचार करना होगा। 
 

 

devbhoomimedia

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