आओ चंद्रताल चलें

एक अनोखी और खतरनाक सड़क यात्रा
एक लंबी, साहसिक और खूबसूरत यात्रा
मनमीत
हिमालय के बीचों बीच कुछ ऐसी झील (Moraine lake) भी है, जहां पहुंचने में चार से पांच दिन तक लग जाते हैं। आक्सीजन की मात्रा भी कम रहती है। दुगर्म पथरीले बेहद संकरे रास्तों से गुजरते हुए, कार के चारों टायर सड़क की चौड़ाई के अनुपात में रखने के लिए अनुभव और मजबूत दिल भी चाहिए। सड़क पर कभी न पिघलने वाली बर्फ के ऊपर पाला टायरों की जकड़न को कमजोर करता है और नीचे नब्बे डिग्री कोण की गहरी खाई दिल की धड़कन प्रति मिनट 150 तक पहुंचा देती है।
इस बार हमने तय किया हम हिमाचल के दूरस्थ जनपद लाहोल स्पीति जायँगे। लाहोल स्पीति जिले के भी दूरस्थ उत्तरी पश्चिम छोर पर चंद्रताल झील (4270 मी) हिमच्छादित पर्वतों से घिरी एक मीठे पानी की मोरेन झील है। देहरादून से चंद्रताल पहुंचने में हमे तीन दिन लगे। पिछली यात्रा में हमारे पास काफी अच्छा ग्राउंड क्लीयरेंस वाली बोलेरो जीप थी। लेकिन इस बार हमने स्वीफ्ट को चुना है। जो की एक गलत फैसला था और इसके लिए हमे यात्रा के दौरान काफी पछतावा भी हुआ। पिछले लेह-लद्दाक और करगिल का रूट कुछ जगह को छोड़कर ठीक ठाक है। इस बार की यात्रा में किन्नौर और लाहोल स्पीति में सड़क बेहद से बेहद खराब है। सड़कों पर बहता ग्लेशियर का पानी और बर्फ के टुकड़े यात्रा को जानलेवा की हद तक पहुंचा देते हैं। डामरीकरण सड़कों का कहीं भी नहीं हुआ है। यहां के लिए एसयूवी टाइप गाड़ी ही एक बेहतर विकल्प है।
चंद्रताल पहुंचने के लिए हमने लंबा और खूबसूरत रास्ता चुना। शिमला- नारकंडा-करचम-पोहरी- रिकांग पिओ-नाको-टाबू-काजा-लोसार और कुंजुम पास (4551 मी) होते हुए चंद्रताल। चंद्रताल से वापस लौटते हुए बत्तल-ग्रम्फू-रोहतांग ला और मानाली होते हुए चंडीगढ़। एक लंबी, साहसिक और खूबसूरत यात्रा। हमने चंडीगढ़ होते हुए शिमला काजा वाला रूट चुना। रात तीन बजे हम दून से चले और सुबह छह बजे चंडीगढ़ पहुंच गये। यहां हमने कार के चारों टायर नये खरीदकर बदल दिये। सात बजे हम शिमला के लिए चल पड़े। दोपहर को शिमला पहुंचने के बाद हमने शिमला से पांच किलोमीटर आगे कुफ्री मंे यात्रा की पहली रात बिताने का साझा फैसला लिया। एक होटल का खूबसूरत कमरा लेने के बाद हम बाहर निकले। बाहर कोहरा घना था और सर्द हवाओं ने हमें कमरों के अंदर धकेल दिया। रम के कुछ पेक मारने को हम मजबूर हुए। खाना खाने के बाद नींद ने चल रही किस्सागोई को कब टेकओवर कर लिया। इसका पता ही नहीं चला। सुबह सबसे पहले मैं उठा। कार का बोनट खोलकर एक बार देख लेना चाहता था कि सब ठीक तो है। टायर दुबारा चेक किये। टैंक फुल कराया और एक बीस लीटर के कंटेनर को भी फुल कराया। उसके बाद होटल के कमरे में गया। वहां सबको धक्का देकर उठाया और बाथरूम में धकेल दिया। यात्रा के दौरान मैं इतना उत्सुक हो जाता हूं कि नींद कुछ सिकुड़ सी जाती है।
बहरहाल, सुबह आठ बजे हम सब कार में ठसाठस हो गए। नारकंडा में हमने नाश्ता किया। फिर चल पड़े। मेेरे साथ चार साथी थे। राजस्व निरीक्षक अंकित बडोनी, हिन्दुस्तान हल्द्वानी में उप संपादक महावीर चौहान और गुड़गांव में एमएनसी में कार्यरत ऋषभ रावत। सब एक से बड़कर एक किस्सा बाज। एक से बढ़कर दुस्साहस। सब अपने अपने स्तर के अवारा। बस दिक्कत ये थी कि ड्राइवर मैं अकेला था और हर दिन लगभग 250 से 300 किलोमीटर का सफर तय करना होता था। शाम लगभग चार बजे हम रिकांग पिओ पहुंचे। ये वो ही रिकांग पिओ जहां रणवीर हुड्डा को आलिया भट्ट के सामने हिमाचल पुलिस ने गोली मारी थी। अरे, बॉलीवुड मूवी हाईवे में। पिहू सच में एक खूबसूरत शहर है। पहली नजर में नहीं लगता कि ये कोई उत्तरी भारत का हिस्सा होगा। ऐसा लगता है जैसे कोई मयमांर या तिब्बती कस्बा हो। हरी हिमाचली टॉपी पहने लोग कितने ‘क्यूट’ लग रहे थे यहां।
हमने पिओ में रात न गुजारकर इस कस्बे से और ज्यादा ऊंचाई पर स्थित काल्पा गांव का रुख किया। कल्पा बेहद ठंडा और रोमांटिक गांव है। मुझे तो लगा। विवाह के बाद जोड़ों को हनीमून के लिए काल्पा बेहद पसंद आयेगा। खूबसूरत लोकेशन और कोहरों के बीच घिरे मठों के बाहर कुछ देर जमीन पर बैठकर योगा या ध्यान लगायें। यकीन मानीये। आप को मालूम चल जायेगा कि मैं अपने हर लेख में क्यों हिमालय का गुणगान करता हूं।
बहरहाल, रात गर्म साफ सुधरी रजाइयों में गुजारने के बाद सुबह नौ बजे नहा धोकर हम तैयार हो गये। हमे शाम तक काजा पहुंचना था। जो यहां से साढ़े सौ किलोमीटर दूरी पर है। हम से कुछ ने तय किया कि हम इस 350ाो किलोमीटर के सफर को दो दिनों में करें। जबकि मैं और मेरा एक साथी चाहता था कि हम इसे एक ही दिन में कर लें। बात पथरीले रास्ते पर तीन सौ किलोमीटर चलने की नहीं थी। बात बीच में बेहद ऊंचाई पर स्थित कुंजुम पास (4551 मी) की थी। काल्पा में लोगों ने हमें बताया कि कुंजुम पास में या तो बारिश हो रही होती है या बर्फ गिरती रहती है। कोहरा तो मानो दोस्त हो इस दर्रे का। इस दर्रें को पार करने में काफी वक्त लगता है। पहले साठ डिग्री चढ़ाई चढ़ो और फिर फिसलते रास्तों से कार को साठ डिग्री ही उतारो। कभी जायंगे तो चढ़ते वक्त जो मर्जी गियर मार लें। लेकिन उतरते वक्त कार को लगभग बीस किलोमीटर सेकेंड गियर पर ही रखे। यहीं से शीत मरूस्थल भी शुरू हो जाते है। इसके आगे अब वनस्पीति मुश्किल से मिलती है।
काल्पा से काजा की ड्राइव ने सच में मेरी शारीरिक हदों की घोर परीक्षा ली। मैं थक गया। मेरे पास कार चलाने का कोई ओर विकल्प नहीं था। मैं हर दिन ढाई सौ किलोमीटर कार नॉन स्टॉप चला रहा था। रात को देर से सो रहा था और सुबह जल्द उठ कर फिर से कार के स्टीयरिंग में बैठ रहा था। तीन दिन बाद थकान मेरे शरीर पर हावी होने लगी। काजा से डेढ़ सौ किलोमीटर पहले स्पीती नदी के किनारे किनारे बेहद संकरे रास्ते पर चल रहे थे। मैंने एक तरफ कार को रोका और अपने लिए रम के दो पटियाला पेक बनाकर दुबारा स्टीयरिंग पकड़ लिया। उसके बाद आंखों को सड़क पर गहरे धंसा कर हम आगे चल निकले। रात नौ बजे हम काजा पहुंचे। काजा पहुंचकर मेने कार को पता नहीं कहां पर खड़ा किया और सीट पीछे कर सो गया। मैं थकान से पूरी तरह टूट कर बस इतना ही बोल सका कि जब होटल हो जायेगा तो मुझे उठा लेना। मेरे साथी भी बेहद थकान से सोये हुए थे। वो उठे और होटल तलाशने निकल पड़े। कुछ देर बाद वो आये और मुझे होटल तक चलने को बोला। मैंने कार स्टार्ट की और उनके बताये रास्ते पर चलने लगा। बिखरती निगाहों से मेने शहर को समझने का प्रयास किया। लेकिन नींद अब एनकाउंटर करने पर आमदा थी। लिहाजा, हम होटल के रूम में पहुंचे और खाना खाकर सो गये। रात एक बजे मेरी नींद तेज शोर से खुला। नींद टूटी तो शोर की तरफ कान लगाये। बाहर लोगों का हल्ला गुल्ला हो रहा था। मैं देखना चाहता था कि बाहर हो क्या रहा है। लेकिन ठंड इतनी थी कि मखमली रजाई से बाहर निकलने का मन नहीं हुआ। फिर भी मैं बाहर निकला और खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर लड़के थे, लड़कियां थी, हाथों में बियर मग लिये विदेशी युवा थिरक रहे थे। सब मस्ती में डूबे।
मेरी आंखे फटी रह गई और मैं खिड़की से बाहर पीछे मुड़े बिना ही अपने साथियों पर चिल्लाया। अबे, ये हो क्या रहा है बाहर। और हम क्या कर रहे हैं अंदर। हां, सच में मुझे याद हैं। यही कहा था मैंने। पीछे से मेरे साथियों ने कोई जवाब नहीं दिया। मुझे गुस्सा आया और मैंने पलट कर देखा तो कमरे में मैं अकेला था। ‘ये कहां गए ?’ मैं बुदबुदाया। मैंने अंकित को फोन किया तो उसने बताया कि बार में बियर पी रहे हैं और डांस फुल मस्ती चल रही इन इजराइली दोस्तों के साथ। तू तो सो गया था तो तुझे उठाया नहीं। कल तूने कार भी तो चलानी है। अब मेरे कान फटे के फटे रह गये। मतलब इन कमीनों ने दोस्त भी बना लिये। जलन से भर उठा मैं। अपने पोरूष पर तरस आया और जल्दी से जैकेट डाला और बूट पहनकर उनके बताये बार में घुस गया। अंदर घुसते ही चरस और सिगरेट का धुंये के बादलों से ही मैं हिल गया। मेरे लिये पहले ही एक बियर मग मंगा लिया गया था। ‘वो दिन सच में कभी नहीं भूलूंगा’। थकान में भी हिप हॉप डांस कैसे किया जाता है। इसका ज्ञान उस दिन मिला। रात तीन बजे हम रूम पहुुंचे और बिना जूते उतारे ही अपने बिस्तर पर गिर कर ढेर हो गये।
भाग-दो
मनमीत
अच्छा तो मैं कहां था। हां, काजा में एक होटल के रूम में। समय सुबह साढ़े नौ। खिड़की में लगा शीशा बाहर छाये घने कोहरे के कारण दुधिया हो चुका हैं। होटल के रूम के बीचों बीच एक अंगेठी रख दी गई है। स्टील के ग्लास में जड़ी बूटी डालकर बनी मटमेले रंग की चाय आ गई और हम सभी अलसायी देह के साथ उस अंगेठी के चारों और बैठ कर एक दूसरे को देखने लगे। तकरीबन पांच मिनट बाद खामोशी टूटी और हम में से एक बोला। ‘चलना भी तो है’। एक के बाद एक हम सब उठे और तैयार होने लगे। नहाया कोई भी नहीं। मेरी तो हिम्मत नहीं थी। और साथियों की भी नहीं हुई होगी। मुंह हाथ धोने के बाद गर्म कपड़े पहने और कार में बैठकर ब्लोअर खोल दिया। ताकि कार गर्म हो सके। काजा से अब हमें चंद्रताल बेसकैंप पहुंचना था। बेसकैंप से चंद्रताल की दूरी चार किलोमीटर पैदल ट्रेक है।
कार में पेट्रोल इतना नहीं था कि हम चंद्रताल जाकर मनाली तक पहुंच सके। लिहाजा, काजा छोड़ने से पहले पेट्रोल भराना और कंटेनर को फिर से रिफिल करना जरूरी हो गया। क्योंकि मनाली तक हमें चार सौ किलोमीटर का सफर तय करना होता और एक बार टैंक फुल करने पर कार चार सौ किलोमीटर तक ही चल रही थी। रिकांग पिओ के बाद अधिकांश सफर हमने पथरीलों रास्ते पर फर्स्ट या सेकेंड गियर पर ही किया। इसलिए तेल बहुत ज्यादा लगा। अब हमें कार में तेल की खपत का ठीक ठाक अंदाजा हो गया था। काजा का पेट्रोल पंप (3675 मी) दुनिया के सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित फिलिंग स्टेशन में से एक है। ऐसा दावा हिमाचल सरकार करती है। हालांकि मुझे इस पर विश्वास नहीं हुआ। पेट्रोल भराने के बाद हम निकल पड़े। लगभग दस किलोमीटर आगे हमने एक छोटे से गांव में नाश्ता किया। यहां का समाज आपको आश्चर्य में डालेगा। यहां दुकान नहीं होती। हम किसी के घर के बाहर जाते और वहां बताते हैं कि हमें नाश्ते में ये खाना है। वो बनाने लग जाते। इस दौरान उनके छोटे प्यारे बच्चे अपने मोटे और छबरिले बालों वाले कुत्तों के साथ हमारे पास खेलने आ जाते। लाल लाल टमाटर की तरह उन बच्चों के गाल बहुत ही प्यारे लगते। इस पूरी बेल्ट में तिब्बती मूल के लोग बसें हुए है। जो चीन के तिब्बत पर कब्जे के बाद भाग कर यहां आ गये थे और यहीं बस गये। इनके छोटे छोटे खेत देखकर हजारों साल पहले सभ्यताओं के विकास क्रम का अहसास होता है।
बातल से तीन किलोमीटर पहले एक पतला से बेहद संकरा मोटर रोड चंद्रताल के लिए कट जाता है। बातल से आगे रास्ता रोहतांग ला होते हुए मनाली पहुंचता है। बातल से मनाली 127 किलोमीटर है, लेकिन ये सबसे खराब रास्ता है। 127 किलोमीटर पूरे एक दिन लेता है। बातल से चंद्रताल दस किलोमीटर है। इस सड़क पर संभल कर चलना होता है। गलती यहां माफ नहीं करती। नीचे चंद्रताल से निकलने वाली चंद्रा नदी मानों इंतजार में रहती हो। बेसकैंप पहुंचने के दौरान हमें आक्सीजन लेने में थोड़ा परेशानी हुई। लेकिन ऐसा कुछ देर ही रहा। फिर सब सामान्य हो गया। हालांकि जो मैदानी इलाकों से आते हैं, उन्हें ज्यादा दिक्कत हो सकती है।
बेसकैंप में हमने चार टेंट अपने लिये ले लिये। उस समय दोपहर तीन बज रहे थे। लेकिन धूप जाने को थी। हमने उसी समय चंद्रताल का ट्रेक करने का निर्णय लिया। कुछ जरूरी सामान रखा और चल पड़े। चढ़ाई चढ़ने के दौरान हमारी सांसे टूटने लगी। लंबी सांस लेनी पड़ रही थी। ऐसा कम आक्सीजन के कारण हो रहा था। हमने आपस में बातचीत बंद कर दी। क्योंकि बातचीत के कारण हमें सांस कुछ गहरी खींचनी पड़ रही थी। एक घंटे की चढ़ाई चढ़ने के बाद हमें चंद्रताल (The lake of moon) दिखा। चंद्रताल की खूबसूरती देखकर हम कुछ देर सम्मोहित रहे। मोउलकिला और चंद्रभागा पर्वत के नीचे चंद्रताल में आक्सीजन की कमी थी। झील का पानी हाड़ कंपाने वाला था । लेकिन मुझे छोड़कर मेरे तीनों साथियों ने फुर्ती से कपड़े उतारे और झील में डुबकी दे मारी। बाहर निकलकर सभी ने एक ही वाक्य बोला, ‘थकान भाग गई’। मैं एक तरफ किनारे बैठकर वहां का जायजा लेने लगा। चंद्रमा जैसे आकार के कारण इसका यह नाम चंद्रताल पड़ा। बसंत के मौसम में ये इसके चारों तरफ खाली हरे घास के मैदान कई प्रकार की वनस्पति व जंगली फूलों से भर जाते है। चरवाहे इसे चरागाहों के रूप में प्रयोग करते हैं। यहां रात को रुकने या कैंप लगाने की मनाही है। अक्सीजन लेवल कम होने के कारण पूर्व में कई मौत हो चुकी हैं यहां। इसलिए बेसकैंप में रात गुजारनी होती है।
आश्चर्य की बात यह भी है कि इस झील में पानी के आने का कोई स्रोत दिखाई नहीं पड़ता जबकि निकलने का रास्ता स्पष्ट है। इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि पानी का स्रोत झील में धरती के नीचे से ही है। चंद्र ताल से चंद्र नदी का उद्गम होता है और सूरज ताल से भागा नदी का। सूरज ताल चंद्रताल से 19 किलोमीटर ट्रेक कर आता है। लाहौल स्पीति के जिला मुख्यालय केलांग से 11 किमी दूर, पत्तन घाटी के टांडी गांव के पास दोनों मिल कर चंद्रभागा नदी का रूप ले लेती हैं जो कि जम्मू-कश्मीर में जाकर चेनाब कहलाने लगती है। एक घंटा वहां पर रहने के बाद हमने चंद्रताल को अलविदा कहा और नीचे बेसकैंप लौट आये। नीचे हमें गरमा गरम काबा दी गई। अक्सीजन लेवल कम होने के चलते आपस में बात करने में भी दिक्कत महसूस हो रही थी।
हालांकि फिर भी हमने बंद टेंट के अंदर जलाई गई अंगीठी में अन्य ट्रेकरों के साथ रम पी और एक दूसरे को यहां पहुंचने के लिए बधाई दी। अगले दिन हम तड़के उठे और निकल पड़े रोहतांग होते हुए मनाली की तरफ। यहां से दस किलोमीटर चलने के बाद हम फिर से बातल पहुंच गये। बातल में कुल दो इमारतें हैं जिनमें से एक है सरकारी विश्राम गृह और दूसरा है साठ साल पुराना चंद्रा ढाबा, जो अपने आप में एक विशिष्ट स्थान है। इस ढाबे को चला रहे दंपत्ति पिछले कई दशकों में सैकड़ों पर्यटकों की जान बचा चुके हैं जिसके लिए उन्हें कई सम्मान भी दिए गए हैं। यहां से रोहतांग चार बजे पहुंचे। रोहतांग दर्रे से कुछ पहले गांव पड़ता है ग्राम्फू। ग्राम्फू से एक रास्ता लद्दाख की ओर चला जाता है तथा दूसरा लाहौल स्पीति की ओर। जहां से हम आये थे। शाम को हम मनाली पहुंच गये। एक साल पहले लद्दाख जाते हुए भी मंे मनाली में रुका था। एक रात गुजारने के बाद अगले दिन हम देहरादून पहुंच गये। सही सलामत।