दीवाली की चकाचौंध में कहां खो गयी ” बग्वाल”

क्रांति भट्ट
प्रकाश का . उल्लास का पर्व दीवाली आ गयी है । अपने पहाड के गांवों में दीवाली ” बग्वाल ” के नाम से मनायी जाती है । पहाड में ” बग्वाल ” का रिश्ता सिर्फ सम्पन्नता से नहीं है । यथा शक्ति हर घर बग्वाल मनाता है । बग्वाल का महत्ता किस कदर है कि यहाँ घर . गांव में अपने अनुभव और उम्र की वरिष्ठता को बडी ठसक के साथ कहा जाता है ” मैं ने इतनी बग्वाल ज्यादा खायी है ।
” बग्वाल को लेकर गांवों में कुछ अलग ही विशिष्टता है । बदलते युग के साथ भले ही ” बाजार और आधुनिकता के संसाधन और अवयव दीवाली में आ गये हैं । मगर कई गांव और इलाके ऐसे हैं जिन्होंने अतीत की बग्वाल को आज भी सहेज कर रखा है । भले ही नये को भी अपनाया , पर पुराने को नहीं भुलाया ।
*** कुछ ऐसी ही मान्यता जो ” बग्वाल ” से जुडी हैं । आपके ध्यानार्थ हैं
“” गोपेश्वर का गोपीनाथ मन्दिर है । गढवाल का सबसे ऊंचा मंदिर । गोपेश्वर के आस पास के 64 गांवों में कभी ” बग्वाल मनाने की एक अद्भुत परम्परा थी । जो आज भी बरकरार है । हालांकि अब कुछ ही गांव इस परम्परा में जुड़े हैं। यहाँ पर गोपेश्वर के मंदिर के शीर्ष पर बडा दिया जलता था और शंख बजता था । तभी मंदिर से जुड़े गांवो के लोग अपने घरों की देहरी पर दिये जलाते थे । ये परम्परा गोपेश्वर गांव . पपडियाणा . पाडुली . ग्वीलों . चमणाऊं गांवो के लोग आज भी बरकरार रखे हुये हैं। गोपेश्वर आज शहर बन गया है । दीवाली में शाम के धुंधलकते से पहले ही पूरा शहर बिजली की रोशनी से नहा जाता है।
पर जो गांव और लोग अपनी सदियों से जुडी परम्परा से जुड़े हैं वे आज भी गोपेश्वर गोपीनाथ की परम्परा को भूल नहीं हैं। गांवो से दीवाली के तीन दिनो मे अलग अलग गांवो के लोग ढोल दमाऊं लेकर गोपेश्वर आते हैं । साथ में अपने गांव से सरसों के तेल का कलश और ंया धान लाते हैं मंदिर के निकट एक चौक में बडे तेल कलश और साथ के दीयों की पूजा मंत्रों के साथ होती है । श्री यंत्र बनाया जाता है । फिर तेल कलश और जलते दीयों और बडे से तेल कलश को लेकर मन्दिर में पहुंचते हैं । मन्दिर के चारों ओर दीयों को रखा जाता है । फिर एक आदमी बडे से तेल कलश को लेकर रस्सियों के सहारे मंदिर के शीर्ष पर चढता है । मशाल से उस तेल कलश को जलाता है ऊंचे शिवालै पर जैसे ही यह दीया जल उठता है मन्दिर के शीर्ष पर वही ब्यक्ति शंख बजता है । दीपक की रोशनी और शंख ध्वनि सुनते ही लोग अपने घरों में दीपक जला देते हैं। और फिर होती है बग्वाल की ” चखल पखल ”
कभी यहाँ भी ” बग्वाल ” में भेलू खूब खेला जाता था । खेत इस समय खाली रहते हैं । अत: खुले खेतों में तिल के पौधों की सूखी टहनियो या चीड की सूखी लकडियों की टहनियों का गठ्ठर बना कर . उसमे लम्बा सा तार बांध कर उसमें आग लगा कर भेलू खेलने का आनन्द ही खुछ और है । बहुत से गांवों में आज भी बग्वाल में भेलू खेलने की परम्परा जीवित है ।
“” हाँ पहाड़ में ” बग्वाल ” और उडद की दाल की पकौडी बनाने की भी परम्परा है । उडद की नयी फसल की दाल की बग्वाल मे पकौडी के स्वाद का आनन्द ही कुछ और है । अपने अपने घरों में बग्वाल में बनाई ” स्वांली पकौडी “( पूरी पकौडी ) हर पडोस में “” पैणा “के रुप में बांटने की भी परम्परा है ।
बग्वाल में किसान अपने घर के बाहर ” हल के नीचे धान की टोकरी में दीया जलाता है । आखिर इसी खेती किसानी से किसान का जीवन है । घर संसार है ।
” बग्वाल में पहाड़ का आदमी सिर्फ अपनी ही ” बग्वाल ” नहीं मनाता । अपनी गाय . बैल . बछिया को भी बग्वाल की खुशी में शामिल करता है । उन्हें ” झंगोरे के पकवान . भात . स्वांली पकौडी खिलायी जाती है । उनकी पूजा की जाती है । सिर पर रोली पिंठाईं लगाई जाती है । सींगों पर तेल लगाया जाता है । गले में फूलों की माला डाली जाती है । बडे स्नेह . श्रद्धा से उन्हें पुचकारा जाता है । उनके शरीर पर हाथ फेरा जाता है
“” बग्वाल में बहुत कुछ होता है । मेरे पहाड़ के गांवों मे ।
आप सबको ” बग्वाल ” की शुभकामनाएं ।