यह दलित प्रेम नहीं, सिर्फ सियासी ड्रामा !

- यह वाकई दलित प्रेम है, या फिर वोटों के लिए सियासी ड्रामा ?
- देहरादून में मुन्ने सिंह की दिनचर्या में तो कोई बदलाव नहीं!
योगेश भट्ट
ये हमारे राजनेताओं का आखिर हुआ क्या है ?आजकल एक नए सियासी ‘रोग’ से ग्रसित हैं। दलित के यहां भोजन करते हुए फोटो खिंचाने का रोग । यूं तो यह रोग कांग्रेस और भाजपा दोनो में बराबर का फैला है, लेकिन भाजपा में यह रोग छुटभैय्ये नेताओं तक भी जा पहुंचा है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से लेकर मुख्यमंत्री, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक तक सब एक ही राह पर हैं।
सवाल यह है कि क्या यह वाकई दलित प्रेम है, या फिर वोटों के लिए सियासी ड्रामा ? अगर यह वाकई प्रेम है तो फिर दिखावा क्यों, दलित के यहां भोजन कर और उसका प्रचार कर आखिर राजनेता क्या संदेश देना चाह रहे हैं और क्या दिखाना चाह रहे है ? यह कैसा प्रेम है जो सामाजिक भेद को और गहरे से प्रदर्शित ही नहीं बल्कि रेखांकित भी कर रहा है।
कौन नहीं जानता कि इस तरह की गतिविधियां सोची समझी रणनीति के तहत राजनेताओं का सियासी ड्रामा होती हैं, जो अक्सर सिर्फ वोटों के लिये रची जाती हैं। जहां तक राजनैतिक दलों और नेताओं का सवाल है तो यह किसी से छिपा नहीं है कि वह वोटों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी जाकर कुछ भी ‘खाl’ कुछ भी ‘पी’ सकते हैं ।
सच तो यह है कि कोई भी राजनेता और राजनीतिक दल सामाजिक भेद को समाप्त करना नहीं चाहता। यदि यह भेद समाप्त हो जाएगा तो सियासत की तमाम परिपाटियां और परिभाषाएं भी समाप्त हो जाएंगी। दलित के यहां भोजन करने का जहां तक प्रश्न है तो बड़ा सवाल यह भी है कि इससे दलित समाज को या दलित परिवार विशेष को समाज को क्या फायदा होने जा रहा है? देश की राजनीति में आज मोदी के बाद सबसे ताकतवर शख्सियत अमित शाह हैं,
अमित शाह आज राजनीति को वो ‘पारस’ हैं, जो रातों रात किसी की भी तकदीर बदल सकता है। किसी को भी मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक बनाना आज शाह के लिए मामूली बात है, इस लिहाज से तो वो जिस किसी दलित परिवार में भोजन के लिए पहुंचे उस परिवार का तो कायाकल्प हो ही जाना चाहिए। यदि शाह का दलित प्रेम सिर्फ सियासी नौटंकी नहीं है तो कम से कम जिन दलित परिवारों में शाह ने अभी तक भोजन किया है उनकी तकदीर बदल जानी चाहिए।
यदि दलित होना वाकई अभिशाप है तो फिर उस परिवार की इस अभिशाप से मुक्ति हो जानी चाहिए, उसका सामाजिक आर्थिक स्तर उठ जाना चाहिए । शाह आज तक जिस भी दलित परिवार में अपने लाव लश्कर के साथ पहुंचे उसमें से शायद ही किसी परिवार के दिन बहुरे हों। औरों का तो पता नहीं परंतु देहरादून में मुन्ने सिंह की दिनचर्या में तो कोई बदलाव नहीं है, उसके जीवन में कोई सामाजिक आर्थिक बदलाव नहीं आया। ऐसे में क्या माना जाए, यह दलित प्रेम तो कतई नहीं, यह तो राजनेताओं का अपना उल्लू सीधा करने जैसा है।
वह तो यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वही उनके सच्चे रहनुमा हैं, उनके लिये कोई सामाजिक भेद नहीं, कोई अछूत नहीं। सच यह है ऐसा करके बदलते सामाजिक परिवेश में भी वह यह संदेश दे रहे हैं कि दलित अछूत है। वरना दलित के हाथ से बना भोजन दलित के यहां करने में ऐसी कौन सी बात है ? राजनेता दिन रात घरों से बाहर हैं, वे बाहर किसके हाथ का पकाया भोजन कर रहे हैं, उसकी क्या गारंटी है? यह तो सिर्फ ड्रामा है ।
अगर ऐसा नहीं है तो जो राजनेता दलित के घर जाकर भोजन कर रहें हैं, वो उसी दलित परिवार को अपने घर में अपने परिवार के साथ बैठाकर भोजन करें। अपने गांव के दलितों के साथ छूआ-छूत का भेद समाप्त करें, अपने गांव के शिल्पकारों को सम्मान के साथ अपने बगल में बैठाएं, भोजन कराएं। जो राजनेता आज फलां-फलां दलित के यहां भोजन कर अपने फोटो मीडिया में फैलाए हुए हैं वह ऐसा कर पाएंगे इसमें संदेह है। ऐसा वह तभी करने की हिम्मत जुटाएंगे जब वोटों का गणित बढ़ता हो लेकिन, सच यह है कि इससे नेताओं के वोटों का गणित गड़बड़ा जाएगा। यदि ये राजनेता ऐसा नहीं सकते तो फिर इस सियासी ड्रामे के क्या मायने ?
(यह लेखक केअपने विचार हैं देवभूमि मीडिया का इससे सहमत होना कोई जरुरी नहीं )