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राजनीति की चौसर पर “ताकत” बनता गैरसैंण

गैरसैंण पर इन दिनों मुट्ठियां तनने लगी हैं 

योगेश भट्ट 

गैरसैंण पर इन दिनों मुट्ठियां तनने लगी हैं। लग रहा है कि चिंगारी शोला बनने जा रही है। आज इन्हीं तनती मुट्ठियों के बहाने एक बार फिर गैरसैंण की बात..। दरअसल गैरसैंण राज्य की अवधारणा का प्रतीक जरूर रहा है, लेकिन अफसोस यह कि जनभावनाएं पक्ष में होने के बावजूद राजनीति की बिसात पर गैरसैंण कभी सियासी ताकत नहीं बन पाया। ताकत बनता भी कहां से, जिस अवधारणा और जिस जनता के बूते गैरसैंण को ताकत मिलनी थी वो दोनों ही हाशिए पर धकेल दिए गए।

खैर चलिए, डेढ़ दशक बाद ही सही गैरसैंण की आवाज बुलंद हो रही है। अभी तक राजनीतिक दल गैरसैंण के लिए संकट बने हुए थे लेकिन अब लगता है कि गैरसैंण इन दलों के लिये बड़ा संकट बनने जा रहा है। भविष्य के लिहाज से इसे एक शुभ संकेत माना जा सकता है कि गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग नए सिरे से नए जोश के साथ दिनों दिन जोर पकड़ती जा रही है। खास यह है कि इस बार युवाओं और छात्रों की तनती मुठ्ठियां गैरसैंण को वो ताकत दे रही है जिसकी अभी तक कमी खलती रही है। सरकार और राजनीतिक दल अभी चेते नहीं तो तय मानिए गैरसैंण उत्तराखंड में एक दिन सियासी बदलाव की बड़ी इबारत लिखेगा। एक मुद्दे के तौर पर देखा जाए तो अब गैरसैण सिर्फ स्थाई राजधानी का मुद्दा भर नहीं है। गैरसैंण पहाड़ को जिलाने के साथ-साथ धीरे-धीरे अब देहरादून, हरिद्वार और रुद्रपुर को बचाने का भी मुद्दा बनने जा रहा है ।

इस सच्चाई से आज मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि तकरीबन ढाई दशक पहले जैसे पहाड़ के हर दर्द का इलाज, हर सवाल का हल सिर्फ उत्तराखंड अलग राज्य माना जा रहा था, ठीक उसी तरह आज सत्रह साल बाद उत्तराखंड के हर मर्ज के इलाज की उम्मीद एकमात्र अब गैरसैंण स्थाई राजधानी में महसूस की जा रही है। यहां यह बताना जरुरी है कि जो लोग गैरसैंण के मुद्दे पर पहाड़-मैदान की बात करते हैं, वे गलतफहमी में हैं। किसे नहीं मालूम कि उत्तराखंड का निर्माण एक पर्वतीय अवधारणा पर हिमालयी राज्य के रूप में हुआ है, और कौन सा ऐसा हिमालयी राज्य है जिसकी राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में नहीं है? उत्तराखंड अगर स्थाई राजधानी से वंचित है तो यह उन राजनीतिक दलों का नकारापन है जिन्होंने राज्य में बारी-बारी राज किया है। वरना पहाड़ की स्थाई राजधानी पहाड़ में उसी दिन तय हो जानी चाहिए थी, जब राज्य का जन्म हुआ।

बहरहाल अब मुद्दा सिर्फ स्थाई राजधानी का ही नहीं है बल्कि अब तो उत्तराखंड तमाम ‘व्याधियों’ का शिकार हो चला है। सरकार और बारी बारी सरकार चलाने वाले राजनीतिक दल भले ही यह महसूस न करें, लेकिन यह सच है कि राज्य आज अपनी मूल अवधारणा से भटक चुका है। आज मुद्दा प्रशासनिक व राजनीतिक अराजकता का है, भ्रष्ट और संवदेनहीन हो चले नेता अफसरों और ठेकेदारों का है, माफियावाद का है, जल जमीन जंगल से लेकर रोजगार तक संसाधनों की लूट का है, अनयोजित विकास का है, कुल मिलाकर सवाल राज्य के भविष्य का है ।

गौर करने लायक यह भी है कि उत्तराखंड में सत्रह साल से चल रही लूट और अराजकता का शिकार सिर्फ ‘पहाड़’ ही नहीं बल्कि उत्तराखंड का ‘मैदान’ भी हुआ है। हकीकत यह है कि देहरादून, हरिद्वार और रुद्रपुर जैसे मैदानी जिलों पर तो इसकी दोहरी मार पड़ी है। बीते सत्रह सालों में हर तरह के ‘माफियावाद’ का शिकार सबसे ज्यादा यह तीन जिले ही हुए हैं। इसीलिए गैरसैंण को आज सिर्फ ‘पहाड़ का सवाल’ नहीं कहा जा सकता । गैरसैंण अगर पहाड़ को बचाने का सवाल है तो वह देहरादून हरिद्वार और रुद्रपुर को बचाने का भी सवाल है। इसमें कोई शक नहीं कि अब उत्तराखंड का मैदान भी तभी सुरक्षित है जब तक पहाड़ का वजूद है । यह बात नीति नियंताओं की समझ में भले ही न आती होती हो लेकिन काफी हद तक यह बात आम जनता के समझ में तो आने लगी है।

सच्चाई यह है कि यह प्रदेश राजनेताओं, ठेकेदारों और नौकरशाहों की सहूलियत का प्रदेश बनकर रह गया है , वह चाहे पहाड़ के हों या फिर मैदान के। गैरसैंण से तकलीफ भी सिर्फ इसी ‘तिकड़ी’ को है। अपनी सहूलियत भर के लिए इसी ‘तिकड़ी’ ने पहाड़ और मैदान के ‘विष बीज’ इस प्रदेश में बोये हैं। नतीजतन राज्य को उसकी स्थाई राजधानी नहीं मिल पाई। कौशिक समिति से लेकर राजधानी चयन आयोग (दीक्षित आयोग) की रिपोर्ट भी जब यह कहती है कि स्थाई राजधानी पर जनभावनाएं गैरसैंण के पक्ष में हैं तो फिर कहां कोई संदेह रह जाता है, लेकिन संसाधनों का रोना रोकर सरकारें पहले इसे टालती रहीं और अब ग्रीष्मकालीन राजधानी का झुनझुना थमाकर हमेशा के लिए इसे खत्म करने पर आमादा है ।

सच यह है कि सरकारें आईं और गईं लेकिन गैरसैंण कभी उनकी प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं। रहता भी कैसे, उत्तराखंड अलग राज्य बना तो जरूर लेकिन सरकारें उनके कब्जे या प्रभाव में रही जो राज्य की अवधारणा के कभी समर्थक रहे ही नहीं। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है कि उत्तराखंड की विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष में हमेशा उन चेहरों की संख्या अधिक रही जो राज्य के मुखर विरोधी रहे। उत्तराखंड में ऐसे राजनेताओं की लंबी फेहरिस्त है जो पृथक राज्य के समर्थन में कभी नहीं रहे, जिन्होंने तमाम मौकों पर खुलकर उत्तराखंड राज्य की अवधारणा का विरोध किया।

लेकिन जब राज्य बना तो सत्ता की ‘मलाई’ चाटने कोई लखनऊ से कोई इलाहबाद से तो कोई दिल्ली से पलायन कर देहरादून आ धमके। सत्रह सालों के सियासी इतिहास पर नजर घुमाई जाए तो नजर आता है कि उत्तराखंड के धुर विरोधी इस राज्य में मंत्री विधायक ही नहीं मुख्यमंत्री तक रहे। यही नहीं राज्य विरोधी मानसिकता के अधिकारी बड़े प्रशासनिक पदों पर बैठकर मजे लेते रहे। राज्य की मूल जरूरतों से तो उनका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा, तो फिर उनसे भले की उम्मीद भी क्या की जा सकती थी।

दोष सिर्फ नौकरशाही या राजनेताओं का ही नहीं, दोष तो अंतत: जनता का भी है। जनता ने आवाज कभी बुलंद की ही नहीं। जनता तो छोटे-छोटे हितों में उलझकर छोटे-छोटे खेमों में बंटी रही। कोई भी राजनेता या कोई भी दल चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो एक हद से आगे जनभावना की अनदेखी नहीं कर सकता, लेकिन उत्तराखंड में गैरसैंण की अनदेखी हुई। गैरसैंण पर सिर्फ राजनीति होती रही लेकिन यह राजनीतिक मुददा कभी नहीं बन पाया। पहली बार स्थितियां करवट बदलने को हैं, गैरसैंण को ‘ताकत’ मिल रही है। गाहे बगाहे अब यह एक राजनैतिक मुद्दा बनने जा रहा है। इसलिए यह वक्त राजनेताओं के सचेत होने का और गैरसैंण के मुद्दे पर हर ‘भ्रम’ से बाहर निकलने का है।

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