…ताकि जख्म ‘हरे’ रहें

- उत्तराखंड का नेतृत्व स्वार्थी और कायर निकला
योगेश भट्ट
दो अक्टूबर राष्ट्रपिता की जयंति, देश के लिये एक अहम दिन, लेकिन उत्तराखंड के लिये काला दिवस । उत्तराखंड के इतिहास में 2 अक्टूबर 1994 कभी न भुलाया जाने वाला एक काला अध्याय है। साल दर साल पूरे 23 साल बीत चुके हैं, अब तो हर साल यह दिन सिर्फ उत्तराखंड के लिए निराशा और निष्ठुरता का भाव लेकर आता है। कभी अहिंसक उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर पुलिसिया बर्बरता का प्रतीक बना यह दिन अब एक रस्मअदायगी का दिवस मात्र बनकर रह गया है।
यह दिन सनद है कि उत्तराखंड अपनी अस्मिता की रक्षा नहीं कर पाया, अपना स्वाभिमान नहीं बचा पाया। उत्तराखंड का नेतृत्व स्वार्थी और कायर निकला, उसने आत्मसमर्पण किया। पूरे 23 साल बाद भी मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं मिली तो इसे क्या माना जाए? किस मुंह से आज यह नारे लगते हैं कि उत्तराखंड के शहीद अमर रहें। हर साल उत्तराखंड सरकार इस दिन मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर पहुंचती है, आखिर क्यों? सिर्फ चंद फूल मालाएं चढाकर रस्मअदायगी के लिए , सिर्फ इसलिये क्योंकि हर सरकार हर मुख्यमंत्री का इस दिन यहां पहुंचकर श्रद्धांजलि देना एक परंपरा बन चुका है।
क्या सरकारों को यहां पहुंचकर शर्म नहीं आती, क्या सरकार चलाने वालों की आत्मा यहां पहुंचकर उन्हें कचोटती नहीं है। सरकारें अगर सही पैरवी कर रही होतीं तो मुजफ्फरनगर कांड के दोषी, लोकतंत्र की हत्या के दोषी खुले नहीं घूम रहे होते ?मुजफ्फरनगर कांड के दोषी सिर्फ उत्तराखंड के ही गुनहगार नहीं, बल्कि वह तो पूरे देश के और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के दोषी हैं।उनका गुनाह इसिलये और बड़ा हो जाता है क्योंकि गांधी जयंती के मौके पर अहिंसक आंदोलनकारियों पर गोली चलायी गयी, पन्द्रह निर्दोष निहत्ते आंदोलनकारियों की हत्या कर दी गयी।
महिला आंदोलनकारियों के साथ दुराचार किया गया। घटना की भयावहता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि विश्व भर में इस घटना की निंदा हुई, उच्च न्यायालय इलाहबाद के निर्देश पर घटना की संवेदशीलता को देखते हुए मृतकों के परिजनों और पीडित महिलाओं को ऐतिहासिक मुआवजा घोषित किया गया। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि घटना के गुनहगारों को 23 साल बाद भी सजा नहीं मिल पायी। इस बीच अलग राज्य भी बन गया अंतरिम सरकार के बाद राज्य में चार सरकारें और आयी लेकिन मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा कोई नहीं दिला पाया।
कोई दोराय नहीं कि अब 2 अक्टूबर की घटना अब सिर्फ मुजफ्फरनगर कांड के प्रत्यक्षदर्शियों के लिये ही एक भयावह अतीत मात्र है। अस्मिता,आस्था, लोकतंत्र और न्याय से इसका कोई वास्ता नहीं, न ही अब कोई उम्मीद ही शेष है। इस घटना से जुडे तमाम मुकदमे अब बंदी की ओर हैं, कमजोर पैरवी के चलते कई मामलों में आरोपी बरी चुके हैं तो कई बरी होने के इंतजार में हैं। कई आरोपी तो दिवंगत भी हो चुके हैं।
जिस मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में यह दमन हुआ वह उत्तराखंड के दोहरे समधी बन चुके हैं। वही क्यों, मुजफ्फरनगर कांड के प्रमुख आरोपी तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह के खिलाफ मुकदमे की अनुमति न देने वाले मुख्यमंत्री राजनाथ सिह भी उत्तराखंड के समधी हैं । घटना के छह साल बाद तक उत्तर प्रदेश में हर सरकार घटना के दोषियों को संरक्षण देती रही है ।
ऐसे में उत्तराखंड की सरकारों से क्या उम्मीद की जाए, उम्मीद रखना भी बेइमानी है क्योंकि उत्तराखंड की सरकारें भी तो उत्तर प्रदेश की सरकारों की ही फोटो कापी रही हैं। दुखद यह है कि आज भी मुजफ्फरनगर कांड की बरसी पर यह नारा लगता है ‘शहीदो हम शर्मिंदा हैं, तुम्हारे कातिल जिंदा हैं’ । सवाल यह है कि क्या वाकई हम, हमारी सरकारें शर्मिंदा हैं? यदि शर्मिंदा हैं तो दोषियों को सजा दिलाये बिना किस मुंह से हर साल शहीदों के स्मारक पर पहुंचते हैं ? शर्मिंदगी का भाव होता तो क्या राज्य के हालत इस कदर बदतर होते, सरकारों को यूं कोसा जाता ?
अब वक्त आ गया है कि जब न्याय की उम्मीद समाप्त हो चुकी है तो सरकार की ओर से भी रस्म अदायगियां बंद होनी चाहिए। यह शहीदों का आंदोलनकारियों का सम्मान नहीं बल्कि घोर अपमान है, शहीदों को श्रद्धांजलि के नाम पर भावनाओं से खिलवाड़ है संसाधनों का दुरुपयोग है। सच यह है कि अब तो मुजफ्फरनगर के दोषियों को सजा न मिलने और राज्य के हालात पर चर्चा की याद भी सिर्फ इन्ही दिनों आती है।
आंदोलन की स्मृतियों से जुडे ये दिन घटनाएं अब किसी के लिये भी प्रेरक नहीं, न सरकार के लिये सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर बैठे बुद्धिजीवियों और राज्य हितैषियों के लिये । यह दिन तो सिर्फ सरकार और व्यवस्था को कोसने का उसे हमेशा निकम्मा साबित करने का है। बहरहाल कुछ जख्म ऐसे होते हैं जिन्हें वक्त भी नहीं भर सकता, मुजफ्फरनगर कांड उत्तराखंड के लिए एक ऐसा ही जख्म है। यह जरूरी भी है कि यह जख्म हरा रहे, ताकि इसी बहाने सही कम से कम राज्य की चिंता तो हो ।