आयोग की रिपोर्टः पलायन से ज्यादा रिवर्स पलायन !

करिश्मा : अक्टूबर में आयोग ने काम संभाला और अप्रैल में अंतरिम रिपोर्ट
व्योमेश जुगरान
यह ‘डबल इंजिन’ की सरकार का करिश्मा है कि उसने इस हिमालयी राज्य में “पलायन की समस्या के समाधान, रोकथाम और ग्रामीण अंचलों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु गठित” पलायन आयोग की रिपोर्ट मात्र छह माह के भीतर जारी कर दी। 25 अगस्त 2017 को आयोग के गठन की अधिसूचना जारी हुई। अक्टूबर में आयोग ने काम संभाला और अप्रैल में अंतरिम रिपोर्ट भी सौंप डाली।
तालिकाओं से लबरेज इस रिपोर्ट का ज्यादातर कंटेंट 2011 की जनगणना पर आश्रित है। लेकिन हम रिपोर्ट के उस हिस्से पर बात करना चाहेंगे जिनका आधार 2011 की जनगणना नहीं है।
लब्बोलुआब, जो हम समझ पाए, यह है कि उत्तराखंड में 2011 के बाद 734 गांव निर्जन यानी खाली हो गए। इनमें सबसे अधिक 186 गांव पौड़ी जिले के हैं। इसके बाद 77 बागेश्वर, 75 पिथौरागढ़, 70 उत्तरकाशी, 64 चंपावत, 58 टिहरी, 57 अल्मोड़ा और 41 चमोली के हैं। हालांकि ये कौन-कौन से गांव हैं, इसका उल्लेख रिपोर्ट में नहीं है। इसके अलावा यह भी साफ नहीं है कि चमोली, पिथौरागढ़ और चंपावत जिले में बॉर्डर से पांच किलोमीटर के फासले पर बसे जिन 8 गांवों को मानव-रहित बताया गया है, वे इन 734 में शामिल हैं या नहीं !
लेकिन एक मजेदार आंकड़ा/संख्या ऐसे गांवों के बारे में है, जहां इन 10 सालों में अन्य गांवों, शहरों व कस्बों से आकर लोग बसे हैं। यानी रिवर्स पलायन हुआ है। ऐसे गांवों की संख्या 850 है। पर, यह साफ नहीं है कि गांव पहले से मौजूद था, नवागंतुकों के बाद बसा या फिर नौकरी इत्यादि के सिलसिले में बाहर गए लोग वापस गांव लौटे ! तालिका से अर्थ तो यही निकल रहा है कि ये गांव नए सिरे से आबाद हुए हैं। यानी यहां रिवर्स पलायन हुआ है।
बहरहाल, ऐसे गांवों में नैनीताल जिला पहले नंबर पर है, जहां 139 गांवों में रिवर्स पलायन हुआ है। इसके बाद हरिद्वार-121, देहरादून-114, ऊधमसिंह नगर- 92, टिहरी- 76, पिथौरागढ़- 69, चंपावत- 60, पौड़ी- 46 और अल्मोड़ा- 39 हैं। यहां खटकने वाली बात यह है कि पूरी रिपोर्ट मे एक भी गांव का नामोल्लेख नहीं है। निचोड़ यह कि 740 निर्जन हुए और 850 आबाद हुए। यानी निर्जन के मुकाबले 110 अधिक आबाद हुए।
और यह भी….
हमने तो रिपोर्ट का हिन्दी वर्जन/संस्करण ही देखा। पता नहीं, मूल रिपोर्ट अंग्रेजी में है अथवा हिन्दी में ! पर, कई बातें पल्ले नहीं पड़ रहीं। नमूने के रूप में पृष्ठ 15 की इस “जलेबी” (अक्षरशः) को देखें–
“उत्तराखंड में पलायन आम तौर पर लंबी अवधि का होता है और मुख्य रूप से राज्य से बाहर के साथ-साथ बड़े शहरों और कस्बों के लिए भी होता है। यह लंबी अवधि के प्रवासियों का तीन-चौथाई पलायन रिपोर्ट करता हैं। प्रवासियों का लगभग दसवां हिस्सा 02 से 06 महीने की अवधि के लिए प्रवासित होता है। यह कई अध्ययनों में देखे गए स्वरूप के विपरीत है जो देश के अन्य हिस्सों के ग्रामीण परिवारों के बीच अल्प अवधि के प्रवासन की पूर्वनिर्धारितता- ज्यादातर चक्रीय प्रकृति को रिपोर्ट करता हैं। (श्रीवास्तव, 2011; यूनेस्को 2013)। यह मुख्य रूप से इस तथ्य के कारण भी है कि उत्तराखंड से बाहर प्रवासियों का बहुमत ( लगभग 74 प्रतिशत) सरकारी व निजी क्षेत्र की नौकरियों में वेतनभोगी है जो आमतौर पर लंबी अवधि के होते हैं। बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश क ग्रामीण प्रवासियों के विपरीत कृषि में अल्पकालिक रोजगार के लिए वे कृषि समृद्ध क्षेत्रों में स्थानांतरित नहीं होते हैं। ( ममगाईं 2004)। शायद; उनकी अपेक्षाकृत बेहतर योग्यता उन्हें वेतनभोगी नौकरियां पाने में मदद करती है; हालांकि अधिकांश बहुत अधिक आय वाले नहीं हैं।”