पार्टी प्रत्याशी के साथ नहीं कार्यकर्ता, फिर भी दो-दो हाथ करने को तैयार !
चहेतों को टिकट से भाजपा और कांग्रेस दोनों दल कई सीटों पर झेल रहे फजीहत
बड़ा सवालः आखिर किस-किस को निकालें पार्टी से
गुल भी खिला सकता है कार्यकर्ताओं का यह रुख
अतुल बरतरिया
देहरादून। वजह चाहें सियासी रहीं हो या कुछ और, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही कई विधानसभा सीटों पर टिकटों के वितरण में स्थानीय समीकरणों को ध्यान में नहीं रखा। शायद यही वजह है कि दोनों को कई सीटों पर अपनों से ही मुकाबला करने को मजबूर होना पड़ रहा है। हालात ये हैं कि पार्टी प्रत्याशी अपने दल के कार्यकर्ताओं को तलाश रहे हैं तो कार्यकर्ता हैं कि कथित बागी प्रत्याशी के खेमे में दिखाई दे रहे हैं। दोनों ही दलों ने बागियों को तो पार्टी से निष्कासित कर दिया है, लेकिन कार्यकर्ताओं की फौज का क्या करें। अगर सभी को बाहर का रास्ता दिखा दिखा दिया जाएगा तो पार्टी का झंडा आखिर उठाएगा कौन।
नाम वापसी का समय समाप्त होने से बाद साफ दिख रहा है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही कम से कम एक-एक दर्जन विस सीटों पर बगावत का दंश झेलना पड़ रहा है। कुछ सीटों पर तो सियासी दलों को किसी समझौते के तहत अपनों का टिकट काटना पड़ा तो कुछ सीटों पर सियासी धुरंधरों ने अपने विरोधियों को भविष्य के लिहाज से सियासी मैदान से बाहर करने की रणनीति के तहत टिकट से वंचित कर दिया। दोनों ही दलों ने पार्टी प्रत्याशी होने के बाद भी चुनावी समर में डटे रहे प्रत्याशियों को निष्कासित कर दिया है। लेकिन दोनों ही सियासी आम कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस तरह का एक्शन लेने से परहेज कर रहे हैं। शायद इसकी वजह यह है कि अगर सभी को बाहर कर दिया गया तो पार्टी का झंडा और बैनर उठाने के लिए भी किराए के लोग तलाशने होंगे।
आज हालात ये हैं कि सूबे की कई विधानसभा सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी के साथ पार्टी कार्यकर्ता दिखाई ही नहीं दे रहे हैं। पार्टी कार्यकर्ता इस बात से आहत है कि मजबूत दावा होने के बाद भी सियासी वजहों या फिर पुरानी खुंदक की वजह से बड़े नेताओं ने उनके क्षेत्र के विकास के लिए काम करने वालों का टिकट कटवा दिया है। टिकट कटने की वजह से एक तो कार्यकर्ताओं को कट्टर समर्थकों में भारी आक्रोश है तो सीधे जनता संवाद रखने वालों के पक्ष में विस क्षेत्रों में सहानुभूति भी पैदा हो रही है। पार्टी प्रत्याशियों को लोगों को किसी भी तरह से बुलाना पड़ रहा तो कथित बागियों के लिए लोग खुद ही काम कर रहे हैं।
इस तरह की सीटों की बात की जाए तो भाजपा के लिए ऊधमसिंह नगर की सीट पर यूपी के समय में दो बार भाजपा के टिकट पर विधायक रह चुके राजीव अग्रवाल परेशानी का सबब बने हुए हैं। यहां पार्टी प्रत्याशी हरभजन सिंह चीमा के साथ पार्टी के सक्रिय कार्य़कर्ता महज दिखावे के लिए ही खड़े। अधिकांश कार्यकर्ता तो खुलेआम राजीव के लिए काम करते देखे जा सकते हैं। कहा तो यहां तक जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तमाम लोग भी अंदरखाने राजीव के लिए जी-जान लगाए हुए हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि राजीव का टैंपू क्या गुल खिलाता है।
बाजपुर सीट की बात की जाए तो यहां से भाजपा प्रत्याशी यशपाल आर्य पुराने कांग्रेसी हैं। कुछ भाजपा कार्यकर्ता भले ही इस टिकट का विरोध कर रहे हों, लेकिन अधिकांश कांग्रेसियों की रुझान आर्य की ओर ही देखा जा रहा है। इसकी वजह कांग्रेस प्रत्याशी के पति का कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी के बारे में की गई एक टिप्पणी का वीडियो वायरल होना भी माना जा रहा है। हालांकि सीएम की ओर से यह दावा किया गया है कि कांग्रेस हाईकमान ने उस टिप्पणी के लिए प्रत्याशी के पति को माफ कर दिया है। अब यह आने वाले वक्त में ही साफ होगा कि यशपाल का पाला बदलना कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कितना रास आया है।
अब बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के चुनावी समर में कूदने से बेहद हाट हो चुकी सहसपुर सीट की। किशोर टिहरी सीट से दावेदार थे और वे खुद इस बात का खुलासा कर चुके हैं कि वे चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे। सीएम हरीश रावत और हाईकमान ने ही उन्हें चुनाव लड़ने का आदेश दिया है। किशोर के इस बयान से इस क्षेत्र में पिछले नौ सालों से सक्रिय कांग्रेसी नेता आर्येंद्र शर्मा के निजी समर्थकों के साथ ही कांग्रेसी कार्य़कर्ताओं में भी आक्रोश है। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अगर किशोर चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते थे तो आखिरकार आर्य़ेंद्र का टिकट काटा ही क्यों गया। नतीजा यह है कि कार्यकर्ताओं को पार्टी की नहीं आर्येंद्र की परवाह है।
अब बात धनौल्टी विस सीट की। यहां के हालात ये बयां करने को काफी है कि सियासी दल किस तरह से सूबाई नेताओं को पत्ते की तरह फेंटते हैं। इस सीट से कांग्रेस की ओर से मनमोहन मल्ल दावेदार थे। सीएम हरीश के चहेते और पीडीएफ मेंबर प्रीतम पंवार इस सीट से दावेदारी कर रहे थे। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर ने साफ कर दिया था कि अगर पंवार चाहें तो कांग्रेस उन्हें प्रत्याशी बना सकती है। लेकिन हरदा की शह पर प्रीतम ने इससे इंकार कर दिया और भविष्य के लिहाज से बतौर निर्दलीय मैदान में आ गए। किशोर की जिद पर मल्ल को कांग्रेस का सिंबल दे भी दिया गया। अब नामांकन के बाद कांग्रेस हाईकमान ने मल्ल को नाम वापसी का फरमान सुना दिया। इससे क्षेत्र के कांग्रेसियों में खासा रोष है। पहले तो टिकट दिया क्यों और अब किसी बाहरी को समर्थन देने की बात क्यों की जा रही है। शायद यही वजह रही कि मल्ल ने अपने समर्थकों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के आग्रह पर हाईकमान की बात को मानने से इंकार कर दिया। अब कांग्रेसी कार्यकर्ता किसके साथ हैं, इसे मल्ल के साथ दौड़ रहे लोगों को देखकर आसानी से समझा जा सकता है।
कई अन्य सीटों पर भी इसी तरह के हालात
इसी तरह कुमाऊं और गढ़वाल की कई अन्य सीटों पर भी यही हालात बने हुए हैं। कहीं किसी की टिकट जिद में काटा गया है तो कहीं किसी को सियासी पटखनी देने के लिए टिकट काटा गया है। कुछ सीटों पर टिकट तो केवल इस वजह से कटवाया गया है कि आने वाले समय में प्रत्याशी व्यक्ति विशेष के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। शायद यही वजह है कि पूरे राज्य में कांग्रेस और भाजपा का कई सीटों पर पार्टी का प्रत्याशी कोई और हैं और पार्टी के कार्यकर्ता किसी और प्रत्याशी को जिताने के लिए जी-जान लगाए हुए हैं।
सियासत में दांव-पेंच तो चलते रहते हैं, लेकिन अपनी निजी महत्वाकांक्षा के चलते कही दों लोगों का सियासी भविष्य दांव पर लगाना और कहीं पार्टी हित के विपरीत केवल अपनी जिद को पूरा करने के लिए पार्टी का टिकट कटवाने का यह खेल कितना सही साबित हुया है, इसका फैसला तो उन विस क्षेत्रों की जनता 15 फरवरी को साफ कर ही देगी और 11 मार्च को यह साफ हो जाएगा कि कार्यकर्ता सही थे या फिर दोनों ही दलों के रणनीतिकार। वैसे सियासी गलियारों में चर्चा यही है कि 11 मार्च को चुनावी नतीजे आने के बाद दोनों ही दलों के कथित रणनीतिकारों को टिकट कटवाने की सोची-समझी रणनीति का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।