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सुनो , यह ‘काउंट डाउन’ की आहट…

योगेश भट्ट 
उत्तराखंड की सियासत में इस वक्त भाजपा शीर्ष पर है, इससे ज्यादा उत्तराखंड भाजपा को शायद ही कभी कुछ और दे पाए। लोकसभा में पांचों सीटें विधानसभा में सत्तर में से सत्तावान सीटों के साथ प्रचंड बहुमत की सरकार और तकरीबन हर बडे निकाय में भाजपा का बोर्ड । लेकिन हालात यह है कि यह कामयाबी खुद भाजपा को रास नहीं आ रही है।

बदली हुई भाजपा में तो सरकार और संगठन में ‘नख’ से लेकर ‘शिख’ तक असंतोष साफ नजर आने लगा है। पार्टी से बाहर और पार्टी के अंदर दोनो ओर असंतोष चरम की ओर है। संगठन में बिखराव है तो सरकार ‘हवा’ में है, दोनो ही उम्मीदों और भरोसे के मोर्चे पर कमजोर नजर आने लगे हैं। सरकार पर जनता का नहीं सिर्फ अपने हाईकमान का दबाव है। सरकार की प्राथमिकताएं प्रदेश और जनता की जरूरतें नही बल्कि हाईकमान का एजेंडा है, ऐसा सरकार ने शाह के दौरे के दौरान साबित किया है ।

अभी से यह सवाल भी उठने लगा है इस हाल में कि प्रदेश की सियासत के इस शीर्ष पर भाजपा लंबे समय तक टिकी भी पाएगी या नहीं । सीधे कहा जाए तो उत्तराखंड में इस वक्त भाजपा को मिला मजबूत जनमत को कमजोर नेतृत्व के भरोसे है, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपने प्रवास के दौरान इसे बखूबी भांपा है। कुल मिलाकर भाजपा के लिये काउंट डाउन की स्थिति होने जा रही है,मौजूदा हालात भाजपा के लिये भविष्य की बड़ी चुनौती बनने जा रहे हैं। देखना यह है कि भाजपा हाईकमान आसन्न चुनौती का सामना किस तरह करता है।

बताते चलें कि सितंबर के तीसरे सप्ताह में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दो दिन के प्रवास पर देहरादून में रहे। राजधानी में सरकार और संगठन ने अमित शाह का जिस गर्मजोशी के साथ स्वागत किया निसंदेह वह अभूतपूर्व था। शाह की आगवानी में त्रिवेंद्र सरकार ने किसी तरह की कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । आधिकारिक आंकड़ा अभी सामने नहीं है लेकिन करोड़ों रुपया तो शाहखर्ची में उस सरकार ने उड़ाया है जिसके पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं हैं।

यकीन नहीं होता तो जरा सचिवालय के निकट यूकेलिप्टस रोड पर जाकर देखिए, जहां रातों रात सरकार ने शाह की आगवानी में पाम के बडे बडे पेड़ ट्रांसप्लांट कराए। लाखों रुपया सरकार ने शाह को यह दिखाने के लिये खर्च किया कि सरकार तेजी से प्रदेश को चमका रही है। यह तो एक उदाहरण मात्र है, सच यह है कि सरकार ने वह सब कुछ किया जो वह कर सकती थी। यह अलग विषय हो सकता है कि सरकार ने यह सही किया या गलत और शाह इससे खुश हुए या नहीं ।

फिलहाल अहम यह है कि शाह के दौरे से उत्तराखंड की जनता को, सरकार को या फिर भाजपा को क्या हासिल हुआ ? यह दौरा भविष्य में क्या सियासी इबारत लिखेगा ? हो सकता है कि शाह के दौरे के बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र का मनोबल बढ़ा हो लेकिन राजनीतिक तौर पर उन्हें या संगठन को कोई खास लाभ हुआ हो इसमें संशय है। शाह के दौरे के बाद न तो सरकार में ही कोई खास उत्साह है और संगठन में।

गौर करने लायक यह जरूर है कि संगठन में राष्ट्रीय अध्यक्ष के दौरे के बाद संगठनात्मक जिलों की संख्या घटाकर कर 14 दी गयी। संगठन के साथ बैठक में शाह ने प्रमुखता से इस मुद्दे को उठाया कि जब प्रशासनिक जिले 13 हैं तो फिर संगठनात्मक जिले 23 क्यों? शाह ने यह सवाल उठाते हुए यह भी कहा कि संगठनात्मक जिले अधिक बनाने से क्या पहाड मैदान में बदल जाएगा?  यह बात अलग है कि अधिकांश संगठनात्मक जिले मैदान में हैं।

लेकिन बैठक में यह कहने का साहस शायद ही कोई जुटा पाया। बहरहाल आश्चर्यजनक यह है शाह के दौरे के बाद पब्लिक फीडबैक भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। दौरे से पहले सरकार की अति सक्रियता ने आम लोगों में सरकार की छवि पर नकरात्मक प्रभाव छोड़ा है। अब साफ है कि सरकार जिस तरह अमित शाह के आगमन पर एक पैर पर रही, उससे आम जनमानस के बीच भी संदेश सही नहीं पहुंचा।

इस तरह के सवाल उठ रहे हैं कि त्रिवेंद्र सरकार क्या अमित शाह की कठपुतली है ? इसके साथ ही एक संदेश और गया है कि उत्तराखण्ड में सरकार और संगठन दोनो ही अपरिपक्व हैं। जहां तक फीड बैक का सवाल है तो तमाम मैनेजमेंट के बावजूद शाह तक सरकार और संगठन दोनो का फीड बैक कोई खास उत्साहजनक नहीं रहा । यही फीड बैक शाह के लिये चिंता का कारण भी हो सकता है। शाह का खुद यह कहना कि सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिये छह माह का समय पर्याप्त नहीं, संगठन के लिये यह कहना कि अभी इसे मजबूत स्थिति होने में वक्त लगना है काफी कुछ बयां करता है।

हालांकि किसी भी बड़े परिवर्तन की संभावना और अटकलों को उन्होंने सिरे से खारिज किया है लेकिन प्रदेश में मजबूत नेतृत्व की कमी साफ नजर आ रही है। दरअसल शाह की दिलचस्पी सरकार और उसके कामकाज से ज्यादा साल 2019 में है। प्रदेश में लोकसभा की पांचों सीटें इस वक्त भाजपा के पास हैं, और लक्ष्य भी यही है कि यही आंकड़ा 2019 के लोकसभा चुनाव में बना रहे।

सरकार के कामकाज में दिलचस्पी होती तो शाह सरकार को नसीहत पिलाते, हवाई घोषणाओं, जुमलों, वायदों से बचने और जमीनी काम करने की सलाह देते। प्रचंड बहुमत की सरकार को जनअपेक्षाओं पर खरा उतरने का लक्ष्य देते। लेकिन शाह का पूरा फोकस सिर्फ चुनावी गणित और उसकी तैयारी के इर्द गिर्द ही रहा। सरकार को तो शाह के दौरे से कोई मजबूती हासिल नहीं हुई, उल्टा सरकार एनएच घोटाले और मंत्रिमंडल विस्तार पर सवालों में और घिरी है।

यूं तो शाह के सामने ही पार्टी का अंतर्कलह खुलकर सामने आया है लेकिन शाह के जाने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री बीसी ख्ंडूरी के कथित ट्वीटों से संगठन में खासी खलबली है। ख्ंडूरी ने हालांकि किसी तरह के ट्वीट से इंकार किया है, लेकिन इन ट्वीटों को खासा जनसमर्थन मिल रहा है। पार्टी के नेताओं के लिए स्थिति असहज बनी हुई है। ऐसे में 2019 में हालात भाजपा के पक्ष में होंगे यह कहना मुश्किल है।

devbhoomimedia

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