व्योमेश जुगराण
सत्रहवां साल, आठवां मुख्यमंत्री और चौथा विधानसभा चुनाव। उत्तराखंड राज्य के बरक्स यह एक लड़ी है जिसे हर कोई अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर सकता है। लेकिन परिभाषाएं हमेशा सत्य ही बांचें और अकाट्य हों, ऐसा नहीं है। परिस्थितियों का भी समय/काल से कुछ लेना-देना होता है। यहां बारी-बारी से सत्ता संभाल रही कांग्रेस और भाजपा के बेईमान और अकर्मण्य नेताओं की पलटन ने सिवा समस्याओं का पहाड़ खड़ा करने के सिवा कुछ नहीं किया। न स्थायी राजधानी का सवाल हल हुआ, न ठोस भूमि कानून अमल में आया, न खेती सुधार के कार्यक्रम बनें, न पुनर्वास की दशाएं तय हो सकीं और न बेरोजगारी व पलायन के संत्रास मिट पाए। यह राज्य नेताओं और नौकरशाहों के पापों का बेताल ढोते-ढोते बहुत दूर निकल आया है। यहां से परिवर्तन की यात्रा बहुत कठिन है। सबसे बड़ा संकट नेतृत्व का है जिसकी आहट बीत गए इन 16 सालों में जरा भी नहीं सुनाई दी। आगे भी दूर-दूर तक इस दिशा में अंधियारा ही है।
एक काबिल नेतृत्व के सवाल की उम्र आज सत्रहवें साल में प्रवेश कर चुकी है। इस बीच मुख्यमंत्री के रूप में सात-सात चेहरे सामने आए मगर इनमें से एक ने भी राज्य की बुनियादी समस्याओं पर कोई परिवर्तनकारी कदम उठाने का साहस नहीं दिखाया। विडम्बना यह रही कि एक विराट और स्वत:स्फूर्त आंदोलन की कोख से जन्म लेने के बावजूद नेतृत्व के सवाल ने तब और अब भी लोगों को उतना नहीं मथा जितना कि जरूरत थी। तब जनता सिर्फ आंदोलनरत रही। यह तैयारी नहीं थी कि हम कैसा राज्य बनाएंगे। सरकार ने भी आधी-अधूरी तैयारी के साथ हम पर राज्य थोप दिया। सरकार यदि विकास की भूख और सांस्कृतिक व भौगोलिक पहचान की हमारी ख्वाहिशों को देखते हुए हमें राज्य से नवाज रही थी तो उसकी तैयारियां दूसरे तरह की हो सकती थीं। वरना वह सोलह माह की अंतरिम सरकार के रूप में हमें सत्ता के नशे में चूर नाकाबिल लोगों के हवाले नहीं करती।
इन सोलह सालों में हमारा सामना समस्याओं के अंबार और भ्रष्टाचार से ही होता आया है। यदि इतनी लंबी अवधि के बावजूद हम काबिल नेतृत्व पैदा नहीं कर सके तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हम अलग राज्य के पात्र नहीं थे या राज्य हमें समय से काफी पहले दे दिया गया।
इसमें कोई शक नहीं कि आपदा से छिन्न-भिन्न चारधाम यात्रा के पुराने वैभव को लौटाने का श्रेय हरीश रावत को जाता है लेकिन पुनर्वास के मोर्चे पर उनकी सरकार के काम कागजी साबित हुए हैं। आपदा के बाद कई महकमों के सम्मलित सर्वे के परिणामस्वरूप पुनवार्स पर तैयार रिपोर्ट आज भी धूल फांक रही है।
हां, मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने दूर-दाराज के ऐसे-ऐसे गांवों का दौरा किया है जहां आज तक कोई नहीं गया। उन्होंने गांवों में खेती-किसानी और बागवानी को प्रोत्साहित करने के लिए एकमुश्त पैकेज का आर्थिक मॉडल पेश किया है। साथ ही शहरी विकास कार्यक्रमों के मद्देनजर भी कई घोषणाएं की हैं। वह जनता तक पहुंच बनाने वाले एक सक्रिय मुख्यमंत्री के रूप में तो नजर आए हैं मगर दिल में उतर पाएं हैं कि नहीं, इसका फैसला चुनावों में ही होगा।
रावत को बखूबी अहसास है कि चुनावी खेवनहार के रूप में वह आलाकमान की मजबूरी हैं। यही स्थिति उन्हें सतर्क भी कर रही है। वह नेतृत्व की सारी आभा और शक्ति खुद में समेट लेना चाहते हैं। दो-दो जगह से चुनाव लड़कर उनका संदेश बहुत स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री की उनकी दावेदारी पार्टी के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है और चुनावोपरांत उन्हें चुनौती देने के दुस्साहस की कोई सोचे भी नहीं। टिकट बंटवारे पर भी पूरा नियंत्रण उन्हीं का रहा।
इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण संदेश हरीश रावत ने दोनों मैदानी सीटों से परचा भर कर दिया है- हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा। साफ है कि वह उत्तराखंड राज्य को पहाड़ी राज्य के एकांगी चश्मे से नहीं देखना चाहते। उनके लिए मैदान/ तराई का भी उतना ही महत्व है। बल्कि धुर-पहाड़ी राज्य की भावनाओं से ज्यादा है। वैसे भी देखें तो वह अपने कार्यकाल में पहाड़ बनाम मैदान की तुला पर कुछ अधिक ही तुलते आए हैं।
गैरसैंण के मामले में भी वह खूब इधर-उधर की फेंकते नजर आए। उन्होंने निर्णायक बयान दिया कि गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित किए जाने का मसला जनता ही तय करेगी। ऐसा कहकर उन्होंने प्रकारांतर से गर्दन ‘ना’ में ही घुमा डाली। उन्हें बेहतर मालूम है कि जटिल सवालों को जनता पर छोड़ देने का कहीं कोई तयशुदा फार्मूला नहीं होता, पर बचाव के अनेक रस्ते राजनीतिक राजनय के ऐसे ही जुमलों से निकलते हैं। नेताओं और नौकरशाहों के लिए यह सबसे बड़ा सुकून है कि वोट के लहजे से ‘गैरसैंण’ एक घिसी हुई मुहर है।
पलायन के मुद्दे पर खुद मुख्यमंत्री आगाह करते रहे हैं कि राज्य के अंदर कमाने वाली जमीन धीरे-धीरे खत्म हो रही है। आधे गांव चीड़ से आच्छादित हो चुके हैं। अब सिर्फ कागज पर नाम रह जाएगा और जंगल के रूप में मिल्कियत सरकार की हो चुकी होगी। वह यह भी पूछ रहे हैं कि पहाड़ में एक सड़क बनाने और बिजली की लाइन पहुंचाने में करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं, मगर किससे लिए? कई गांवों में मात्र दस-बारह लोग बचे हैं।
यह बात सच है कि पलायन रुकना चाहिए। कौन नहीं चाहेगा कि गांव लोगों से और खेत फसलों से भरे हों। लेकिन क्या ‘कोदा-झंगोरा सब्सिडी’ से पलायन रोका जा सकता है या इसके लिए रोजगार, शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य से जुड़े किसी ठोस ब्लूप्रिंट के साथ सामने आने की जरूरत है? अभी भी यहां 25 फीसदी लोग रोजगार की खातिर हर साल गांव छोड़ रहे हैं। इनमें 87 फीसदी औपचारिक शिक्षितों की श्रेणी में आते हैं।
इस कड़ी में हिमाचल की भी बातें होती रही हैं। लेकिन आज भी उत्तरकाशी के हमारे सीमांत किसान को अपना सेव व अन्य फलोत्पाद हिमाचल प्रदेश की पैकिंग से बेचने पड़ते हैं। कद्दावर मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार ने हिमाचल में सबसे पहले मोटेनाज की परंपरागत खेती बंद कराई और आलू-सेव को सरकारी बीमा के तहत लाकर किसानों को अधिक से अधिक सब्जी और फल उगाने को कहा। माल ढुलाई और विपणन की ऐसी पक्की व्यवस्था की गई जो आज तक नहीं हिली।
हिमाचल से हमने कुछ नहीं सीखा। न पर्यटन का पाठ, न बागवानी के गुर और न अपनी नदियों और पर्वतों को बचाने का उपक्रम। हां, बिखरते विधायकों के झुंड को पाले में बनाए रखने के वास्ते उसे डेस्टीनेशन के रूप में उभारने का पराक्रम पूरे देश को जरूर दिखाया।
(लेखक वरिष्ठ व प्रतिष्ठित पत्रकार हैं )