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मैं हर संकट को सिगरेट के धुयें में उड़ाता चला गया…

  • भारत में पूंजीवाद अब तक के सबसे गंभीर संकट में !
  • गुरबत से लड़ रहे युवा जरूरी सवालों को छोड़ सरकार के साथ खड़े !
मनमीत- 
पिछले दिनों दो बड़े बयान आये। पहला बयान आया आरबीआई के पूर्व चेयरमैन रघुनाथ राजन का और दूसरा बयान आया फिल्म अभिनेता रणवीर कपूर का। दोनों ही बयानों के गहरे मायनेे आपस में जुड़े हुये हैं। पहले बयान में देश की भविष्य की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूपरेखा का प्रारूप खींचा गया है। जिसमें डर और आशंका के बदनुमा रंगों से देश के भविष्य का चित्र तैयार किया गया था। दूसरा बयान उस डर और आशंका को सिगरेट के धुंवें में उड़ाकर उस व्यवस्था का साथ देता है, जो मौजूदा व्यवस्था को कायम करने में सहायक बनी है। 
रघुनाथ राजन ने अपने बयान में कहा कि भारत में पूंजीवाद अब तक के सबसे गंभीर संकट में है। लिहाजा, आने वाले संकट में भारत में वैसे ही क्रांति हो सकती है, जैसे पूर्व में कई देशों में होती रही है।  भारत के लिये ये बयान बहुत महत्वपूर्ण है। रघुनाथ राजन पूर्व में आरबीआई गवर्नर और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख अर्थशास्त्री तो रहे ही हैं साथ ही वो बैंक ऑफ इंग्लैंड के गर्वनर मार्क कार्ने के बाद गवर्नर पद संभाल सकते हैं। फिर भी इतने महत्वपूर्ण बयान को न तो भारतीय मीडिया गंभीरता से लिया और न ही किसी राजनीतिक दल ने। 
उन्होंने कहा देश को अब पूंजीवाद का लाभ मिलना बंद हो रहा है। उन्होंने आगे कहा कि जब भी ऐसी स्थिति आती है, लोग क्रांति करते हैं। राघुनाथ राजन के इस बयान को कम समय में समझने के लिये हमें नब्बे के  दशक के शुरूआत में पहुंचना चाहिये। जब, 1991 में पीपी नरसिंहा राव सरकार के दौरान देश में नवउदारवादी नीतियां आई। जिससे देश में कारपोरेट परम्परा शुरू हुई। गुड़गांव, नोएडा, पूना, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, चंडीगढ़ सरीखे महानगरों में बहुराष्ट्रीय कंपनी स्थापित हुई। ऐसी कंपनी को कुशल मजदूरों की जरूरत के साथ ही प्रबंधन में कुशल युवा भी चाहिये थे। लिहाजा, देश में इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ ही प्रबंधन कॉलेजों की बाढ़ आ गई। देश में बड़ा कारपोरेट का विकास हुआ, लिहाजा बड़े होटलों का निर्माण हुआ। यहां के लिये भी कुशल कर्मचारी चाहिये थे। इसलिये हर राज्य में होटल मैनेजमेंट संस्थान भी खुले। लाखों के तादाद में युवाओं को नौकरी मिली, जिनकी तनख्वाह बैंक खातों में आती थी। लिहाजा, बहुराष्ट्रीय बैंकों के साथ ही देशी बैंकों ने भी अपनी हजारों  नई शाखायें खोली। जिससे लाखों प्रोबेशनरी ऑफिसर (बैंक पीओ) और क्लर्क स्तरीय कर्मचारियेां की भर्ती हुई। पूंजीवादी अर्थव्यव्यस्था में नई आक्सीजन आई।  लोगों की जेब में पैसा आया तो बड़े बड़े शॉपिंग मॉल, बाजार और वाहनों के शोरूम खुले। देश की जनता ही इतना खरीदारी करने लगी कि जीडीपी चार पर कान्सटेंट हो गई। जीडीपी चार प्रतिशत से ऊपर देश का विकास मान लिया गया। मसलन, जीडीपी जब सात प्रतिशत तक गई तो देश की अर्थव्यवस्था को बहुत प्रोत्साहित किया गया। 
लेकिन पूंजीवाद की अपनी एक सीमा होती है। विकाससील देशों के लिये ये सीमा और छोटी होती है। अर्थव्यवस्था को स्थिर रखनाा मुश्किल होता है। लिहाजा अब भारत में इसका असर दिखने लगा है। ये असर कैसे दिखने लगा है, इसकी एक झलक अब नोएडा, गुड़गांव, पूना, बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद में देखी जा सकती है। जहां पहले इनफोसिस, टीसीएस और किसी भी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में लाखों रुपयों के पैकेज कैंपस या ऑफ प्लेसमेंट के जरिये मिलते थे, वहीं अब ये पैकेज सीमिट कर 12 हजार से 15 हजार रुपये प्रति माह तक ही हैं। इतने रुपये में इन मेट्रो सिटी में रहना मुमकिन नहीं हैं। कंपनियों में मांग न होने का आंकड़ और देश के लाखों इंजीनियर कॉलेजों में उत्पादित हो रहे कुशल कर्मचारियों की संख्या में अब जमीन आसमान का अंतर है। लिहाजा, लाखों रुपये लोन लेकर इंजीनियर करने वाला छात्र अब नोएडा जैसे शहर में आठ हजार रुपये की नौकरी करने को तैयार है। उसका जीवन शैली कैसी होगी। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कमोबेश, ये ही हाल होटल मैनेजमेंट, बीएड, मर्चेट नेवी, एविएशन और एमबीए में है। कुल मिलाकर अब युवाओं के लिये नौकरी नहीं है। आने वाले समय में संकट बहुत गंभीर होने वाला है। नवउदारवादी नीतियों से पहले देश का युवा किसानी और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में काम कर लेता था। लेकिन अब गुरबत से जंग कर रहे परिवार किसी तरह उसे महानगर किसी निजी शिक्षण संस्थान में इस आस में भेजते हैं कि वो उनकी गरीबी एक दिन दूर करेगा। लेकिन इन शिक्षण संस्थानों से निकल कर जब उसे वास्तविक दुनिया में पांच हजार रुपये की नौकरी ऑफर की जाती है तो, उसे अपने कमरे की छत पर पंखा और बगल में फंदे के लिये रस्सी दिखने लगती है। आखिर वो वापस घर किस मुंह से जाये। 
बहरहाल, अब दूसरे बयान पर आते हैं। पिछले दिनों देश के युवाओं के महान आइडिल प्रतिनिधि रणवीर कपूर से जब देश की गरीबी और कुपोषण के बारे में एक पत्रकार ने पूछा तो उन्होंने दो टूक कहा कि, ‘मेरे घर में पानी भी आता है और बिजली भी’। लिहाजा, मैं क्यों राजनीति की बात करूं। ये बयान महज रणवीर कपूर का नहीं था, ये बयान देश के लाखों युवाओं का था। असल में, पूंजीवाद भले ही असफल हो रहा हो, लेकिन आगे भी जिंदा रहने के लिये काफी जुगाड़ किये हैं। ये जुगाड़ है स्कूली शिक्षा, धर्म और सामाजिक परम्परा के रूप में। हमारे देश में स्कूली शिक्षा पूंजीवादी मॉडल पर आधारित है। जहां से पढ़कर बच्चा अपना ‘विजन’ के साथ ही ‘ओपिनियन’ तक नहीं बना पाता। 12 साल स्कूल और उसके बाद पांच साल कॉलेज में जाने के बाद भी वो इस बात की समीक्षा करने लायक नहीं हो पाता है कि, वो जो भी खाता है, पीता है, रहता है, बेरोजगारी और उसकी जलालत। सभी के पीछे राजनीति ही है। कुल मिलाकर देश का युवा रघुनाथ राजन की इस बात को तो खारिज करता ही है कि ‘पूंजीवाद का जब हृास होता है तो क्रांति होती है’। अलबत्ता, जेएनयू और हैदराबाद सरीखे विश्व विद्यालय के छात्र जब संकट की इस घड़ी में बदलाव की मंशा जाहिर करते हैं तो सरकार वहां पर टैंक या 250 फीट का झंडा लगाकर राष्ट्रवाद की मुगली घुट्टी पिला देती है। और शेष गुरबत से लड़ रहे युवा जरूरी सवालों को छोड़ सरकार के साथ खड़े हो जाते हैं।
( मनमीत की फेसबुक वाल से साभार )

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