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उभरते लोक कलाकारों को आखिर कब तक दिहाड़ी मजदूर समझता रहेगा हमारा समाज !

श्रद्धांजलि——–

  • संस्कृति कला की नीति में कहीं न कहीं है झोल !

वेद विलास उनियाल 

उत्तराखंड के लोक संस्कृति में बरसते मौसम की आगवानी के दिन बुरे रहे। एक साथ तीन युवा कलाकारों को समाज ने खो दिया। उत्तराखंड अपने परिचय के तौर पर अपनी लोकसंस्कृति परंपरा का जिक्र करता है। लोककला केवल बडे़ नामी कलाकारों से ही सुरक्षित संचालित नहीं होती। बल्कि छोटे और उभरते कलाकारों का अथाह योगदान होता है लेकिन उनकी प्रतिभा छिपी रहती हैं। मगर संस्कृति विभाग, सूचना विभाग और लोक संस्कृति के मठाधीश नए उभरते कलाकारों के साथ किस तरह बर्ताव करते हैं इसे कभी जान लिजिए। जिस तरह दिहाडी मजदूर तमाम शोषण सहते हुए चुपचाप खामोश रहता है वैसे ही लोक कला के मंचों को जीवंत करने वाले छोटे लोककलाकार भी चुपचाप रहते हैं। उन्हें पता है कुछ कहेंगे तो किसी हाल के नहीं रहेंगे।

सांस्कृतिक मंच जितने सुंदर कलात्मक होते हैं उसमें इन कलाकारों की भूमिका अपना महत्व रखती है । चाहे वे नृत्य करने वाले हों गायक हों सहगायक हों या साजिंदे हों। पप्पू कार्की को उनके भावपूर्ण गीतों से लोग जानने लगे थे। लेकिन जो दो कलाकार साथी अमित और राकेश नेगी दो दिन पहले सडक दुघर्टना में मारे गए , उनकी कला और इस क्षेत्र में संलग्नता का तो पता भी नहीं चलता अगर सोशल मीडिया जिक्र न करता। क्या ये कलाकार केवल गुमनामी के लिए हैं। आखिर अठारह साल चल चुके इस राज्य के अपने छोटे कलाकारों के प्रति क्या सरोकार हैं।

सरकार या संस्थाओं से हम यह नहीं कहते कि बडे और ख्यातिप्राप्त कलाकारों की पूछ न कीजिए। आप उन्हें खूब इज्जत दीजिए। पैसा भी दिलाइए। मगर आपकी सहानुभूति, आपका सौहार्द इन छोटे कलाकारों के लिए कलाकारों के लिए भी क्यों नहीं उमडता। क्या संस्थाओं ने, लोगों ने आयोजकों ने कभी सरकारों से पूछा कि इन छोटे नए उभरते कलाकारों के लिए आपने क्या नीतियां बनाई है। उनकी जिंदगी के लिए क्या कुछ सुलभ कराया है । ऐसी दुघर्टनाओं में जब ऐसे कलाकार जिंदगी खो देते हैं तो उनके परिजनों के समक्ष सरकार किस रूप में खडी होती है । क्या केवल सडक दुघर्टना में मारे गए तीन लोगों को कुछ क्षतिपूर्ति के तौर पर या राज्य के तीन कलाकारों की मौत पर सरकार के दायित्व को ऩिभाने के रूप में। कह नहीं सकते कि सरकार संस्कृति विभाग या संस्थाओं में कितने लोग इन तीन युवाओं के परिजनों के पास गए होंगे।

देखा गया कि राज्य बनने के बाद संस्कृति कला के नाम पर पैसा खूब आया। लेकिन यहां भी अपने ढंग से कुछ कलाकारों में ही समृद्धि आई। बाकी उसी तरह रहे। रामलीला में भरत लक्ष्मण बनने वाला आज भी तीन महीने तक तालीम देने, फिर दस दिन अभिनय करने पर भी बमुश्किल सात सौ रुपए दान पाता है। थियेटर में युवा अपना पैसा लगाकर मंचन करते हैं। साजिदों ने कई साल सीख सीख कर अपने को साज में निपुण किया। आज भी उन्हें मामूली पैसा मिलता है। नृत्य करने वाले , समूह कोरस गाने वाले, मंच तैयार करने वाले सब बस इतनी ललक रखते हैं कि थोडा मंच में खडे तो हो जाए। इनकी दशा किसी ने नहीं सुधारी। कला संस्कृति में जो लोग बडे कहे जाते हैं वो भी लगभग मौन साधे रहे। कला संस्कृति ने कुछ लोगों को समुद्र पार बार बार घुमाया लेकिन छोटे कलाकारों के लिए पैडुल, रीठाखाल द्वाराहाट ही पेरिस बने रहे।

संस्कृति कला की नीति में कहीं झोल हैं। सुनने में यह भी आता है कि कला के कुछ मठाधीशों में अपनी कला की टीम बनाई हुई हैं, और सरकारी रुतबे में रहते हुए वह अपनी ही टीमों को यहां वहां भेजते हैं। कोई उनकी खबर लेने वाला नहीं। छोटे कलाकार शोषण सहते हैं चुप रहते हैं। जो संस्कृति कला की दुनिया के प्रहरी हैं उनमें कई अपनी मिलती सुविधाओ में मगन है। लोककलाकार तैयार होकर दो दो घंटे की प्रतिक्षा करते हैं तब मुख्यअतिथि जी दर्शन देते हैं। उसके बाद धूप दीप। मुख्यअतिथि की प्रशसा उनके उद्गागार । तमाम औपचारिकताएं कब टूटेंगी। हम कई जगह देखते हैं कि लोककलाकार मंच पर प्रस्तुति दे रहा होता है तो मुख्यअतिथि या अतिथि या बडे दानदाता के आने पर उसका कार्यक्रम रुकवा दिया जाता है। सुर ताल तो फिर जुड़ जाएगा लेकिन छोटे कलाकारों का जो मन का ताल टूटता है उसे कौन जोड़ पाता है।

उत्तराखंड में सौंण यानी सावन की यादें अलग होती हैं। संस्कृति कला के मंच फिर सजेंगे। पर पप्पू कार्की की आवाज अब कहां। दोनों साथी कलाकार अब कहां। उनका जीवन चक्र बीच में ही टूट गया। लोक कला जगत के लिए यह दुख की घडी हैं। हम कहीं न कहीं उन सवालों से जरूर जूझे तो हमें व्यथित करते हैं। फिर कहना चाहते हैं कि लोककला को समृद्ध कीजिए लेकिन लोककला चकाचौंध नहीं। लोककला के बदले स्वरूप का ही असर है कि गीत संगीत नृत्य सब सामने दिखता है लेकिन भावना शुन्य सा माहौल है। बहुत सी रंगबिरंगी चीजों के सामने कुछ बुनियादी बातें रह जाती हैं। हल्की सी फीकी सी मंद लौ की तरह।

उत्तराखंड की संस्कृति केवल भगवान केदारनाथ का प्रागण खूबसूरत बना देने से नहीं बनती, संस्कृति केवल चंद बडे नामों तक सिमटना नहीं। कितना अजीब है कि एक तरफ हम एक ही कलाकार को करोड देने में नहीं हिचकते , कुछ खास कलाकारों के लिए हर स्तर पर सदाशयता रखते हैं , मगर वहीं छोटे छोटे कलाकार दिन रात मेहनत कर चार सौ रुपए भी पा जाएं तो अहो भाग्य समझते हैं। इस संस्कृति का पूरा स्वरूप यहां के पूरे परिवेश में हैं। कला और कला साधकों के लिए चाहे वो किसी भी स्तर के हों एक भावनात्मक सामाजिक सरोकार जब तक नहीं होगा, उन्होंने देहाडी का मजदूर समझने की मानसिकता से जब तक दूर नहीं होंगे, हम अपनी कला संस्कृति की रक्षा नहीं कर पाएंगे। कला और कलाकारों को देखने का यह सोच दृष्टि जब तक नहीं बदलेगी, जब तक भेदभाव की पराकाष्ठा रहेगी, हम राज्य के परिचय को ठीक से प्रस्तुत कर पाएंगे। बेहद मंत्री विधायकों सांसदों के लिए पद छोड़ने के बाद भी कितनी सुविधाएं लेकिन उभरता लोक कलाकार जिंदगी से चला जाता है परिजनों के लिए समाज सरकार क्या करती है।

इन युवा कलाकारों को उत्तराखंड का समाज अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

devbhoomimedia

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