HISTORY & CULTURE
उत्तराखंड की प्राचीन जागर परम्परा का रोचक है इतिहास
उत्तराखंड की प्राचीन जागर परम्परा इतिहास को पद्म श्री प्रीतम भरतवाण,चंद्र सिंह राही, दिलबर सिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, पप्पू कार्की इत्यादि ऐसे जागरी सम्राट है जिन्होंने जागरों को उत्तराखंड ही नहीं अपितु पूरे विश्व भर में ख्याति प्रदान की……
कमल किशोर डुकलान
जागर शब्द का शाब्दिक अर्थ है जागृत करना जिसका अभिप्राय अपने इष्ट देव,पित्र देवों का आह्वान करना है,और वाद्ययंत्रो की ध्वनि के साथ ध्वनि मंत्रों का उच्चारण करना। मान्यतानुसार उत्तराखंड के देवी देवता सुमिरन करने पर किसी पर प्रकट होते हैं।वह अपनी इच्छा,वेदना,उपाय अपने ग्रामवासियों को सुनाते हैं तथा शुभ आशीष देते हैं।
उत्तराखंड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का निर्माण ही बाहरी जनजातियों से हुआ है। अतः इस जागर परंपरा का कोई लिखित प्रमाण तो नही है किंतु जागर का जो गायन है, वो उत्तराखंड के विभिन क्षेत्रों में अलग शास्त्रीय प्रकिया से होता है। जागर का जो गायन है वह शास्त्री गायन से मिलता जुलता है एवं देवभूमि में अधिकांश ब्राह्मण मद्रास व मध्य भारत से आये हैं तो यह आशंका लगाई जाती है कि यह शैली इन्ही से विकसित हुई है। राजस्थानी वंशज से नाता रखने वाले राजपूतों के महलों में पुराने गानो को गीत के माध्यम से सुनाया जाता है तो क्षत्रिय समाज के जागरों में संगीत का अत्यंत महत्व रहता है।
उत्तराखंड मुख्यता शिव की भूमि से जानी जाती हैं। यहां वैष्णव मत से पहले शैव मत के लोग मौजूद थे। जिस कारण भैरव,देवी का नाम से प्रचलित है। शिव के बाद जिसका सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है वो है टिहरी जनपद के सेममुखेम में स्थिति नागराजा की कथानुसार है। वहां पर गंगू गंगोला नाम का राजा था।वहीं पर श्री कृष्ण ने लोहाघाट में बाणासुर का वध किया जागर परम्परा का कुछ हिस्सा अघोरी विद्या में आता है। उत्तराखंड में इस विद्या की प्रस्तावना पौड़ी जनपद के भैरव गड़ी लैंसडाउन में हुई। जागर विद्या को इस विद्या का जानकार अग्नि जलाकर,ढोल-दमाऊ(जो पहाड़ के प्रमुख वादन यंत्र हैं) पहाड़ी सामुदाय में जागर परम्परा के जानकार जागर लगाते थे।
उत्तराखंड में जागर को समझने वाली बात यह है कि देवता अवतरण अलग से अलग आत्मा अवतरण से है। उत्तराखंड में आत्मा अवतरण की प्रक्रिया को ‘हन्त्या’ कहा जाता है। इसका पूजन प्रतिवर्ष भाद्रपद मास में पितृपक्ष में होता है। देवता भी दो प्रकार के होते हैं। एक होगये करुण व दूसरे निष्ठुर। करुण देवता पूजा के अभाव में नही रहते किन्तु निष्ठुर स्वभावी देवता अगर पूजित नही किये जायें तो वह क्रोधित हो जाते हैं और उनका आक्रोश समस्त पुश्त पर हावी होजाता है। अतः जागर विद्या है उनका गायन, उनकी प्रेम की वस्तुओं, व घटनाओं को उजागर करना ताकि वह सम्मुख उपस्थित हो व समस्या का निवारण करें। किन्तु वर्तमान समय में भक्ति की नही डर की पूजा हो रही। लोग भक्ति नही अपितु स्वयं पर कोई आंच न आये इस हित से पूजा कर रहे हैं जो कि निंदात्मक है। इस जागरी विद्या का प्रमुख संबंद्ध मद्रास में भी देखने को मिलता है। मद्रास में आज भी देवी अवतरण होता है।
जागर में मुख्यतः पूरी कहानी चलती है। इस कहानी में मुख्यतः तीन-चार धुने व ताले होती हैं। पुन अवगत करा दूं कि जागर परम्परा में दो शैली भीतर गायन,मंडान की शैली होती है और भीतर गायन शैली कमरे के अंदर होती है।जबकि मंडाण खुले मैदान में होता है।आज उत्तराखंड से जागरी विद्या के पतन का प्रमुख कारण है- उत्तराखंड से लगातार हो रहे पलायन ही है। राज्य में विगत कहीं वर्षों से पलायन की मार ऐसी पड़ी है कि वर्तमान पीढ़ी जो बाहर बस चुकी है,वह इस विद्या तो छोड़िए,अपनी पहाड़ी भाषा को दूर दूर तक नई जानते। आज के समय में ये देखना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जागर एक भावना है। आप एक स्वर्गीय शक्ति या कहिये एक आत्मा है जागर के द्वारा उसे पुनः जाग्रत करना है आज उसकी भावना को पकड़ना अत्यंत आवश्यक है कि देवी अथवा देवता को क्या प्रिय था,इस बात को जारी को किस समय पर पकड़ना है वह देवता या पितृ आत्मा की आदतों को समझकर करता है।
अब जागर में आती है एक और विद्या जिसे बुगशाड़ी विद्या(एक सिद्ध तांत्रिक विद्या)। जौनसार एक ऐसा गड है जहां आज भी आलौकिक तंत्र विद्याएँ प्रचलित है। जागरों में भी एक मत नही है। होता यह है कि भाषा और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर जागर भी बदलते हैं। जैसे- राउंसल्यू कु बोडू , बुरासयुं कु फूल। जिस जगह जो वस्तु उपस्थित थी,उसी के अनुसार यहां पर वर्णन होता है।
पौड़ी जिले के राठ क्षेत्र में एक कथा आती है, जिसमें कहा जाता है कि सात भाई राठी जाते है और कोटद्वार में ढाकड़ (पूर्व में की जाने वाली प्रचलन जिसमे कुछ लोग दूसरे नगर से समस्त ग्राम के लिए इकट्ठा राशन लाते थे दुकानों के अभाव के कारण)लेने जाते हैं। उस जागर में आप सुने तो देखेंगे कि साथ भाई राठी जेकब जा रहे होते हैं तो नमक का थैला एक जगह पर रखते हैं और अकस्मात वह भारी होजाता है और कोई उसे उठा ही नही पाता। वह उस थैले को खोलते हैं तो पाते हैं कि उसमें शिवलिंग था और लेजाते लेजाते उस लिंग के चार फाड़े होगये। एक मत यह कहता है कि वह चार फाड़े अलग स्थानों में बंटे हैं- कुछ डोबरियाल जाती के स्थान में तो कुछ ममगाईं जाती व अन्य दो जाती के स्थानों में। इस प्रकार राठी समाज मे भैरव उत्पन्न हुए।
[videopress jTKcZY2k]ठीक उसी प्रकार राठ की एक देवी है दिवा। दीवा डाडो की कथा भी अत्यंत प्रचलित है।”मा त्यारो वहालु माता धौण्ड मासु म, अर छै महीना की नौनी मा तेरी खुकली म पकड़ी चाँ” धौण्ड एक जगह है जहां से ढ़औण्डयाल जाती की उत्पत्ति हुई है। तो कथानुसार एक महिला छै महीने की अपनी लड़की को लेकर अपने भाइयों की कागली(आग्रह) पर अपने मैथ(मायके) जा रही है तो एक बांझ पेड़ देखती है, तो इतने में बर्फबारी शुरू होजाती है जिस कारण उसकी छह मासी लड़की की मृत्यु होजाती है। यह देखते हुए वह रट बिलखते अपने मायके जाती है तो सात भाई राठी उसे निहारते हैं, उसके अश्रु पोंछते हुए उसे धीरज देते है व दान दक्षिणा देकर उसे पुनः ससुराल भेजते है।और यही परंपरा आज भी राठ के अंदर है।
ग्वारी गांव(राठ क्षेत्र) में आज भी 7 राठियों (ग्रामनिवासियों) पर यह होता है व देवी (ग्रामनिवासी महिला जिस पर देवी अवतरित होती है) पर सात दूण, साथ कण्डे बनाकर उसे पुनः अपने ससुराल विदा किया जाता है। यह परंपराए अभी भी है किंतु कथाएं हर स्थान पर बदली हुई हैं। क्योंकि इनको लिखित रूप में कोई वर्णन नही दिया गया है जो कि एक वेदना है। इस कारण यह सत्यापित करना अत्यंत कठिन होजाता है कि यह वास्तव में सत्य है या मात्र एक किवदंती। हमने देखा है कि 12 वर्षो में नंदा देवी राजजात की यात्रा होती है। जिसमे देवी को डोली में ले जाया जाता है व खाटू की पूजा होती है। इस पूजा को पूर्ण करने के लिए भी सिद्ध जागरी को बुलाया जाता है।
कुमायूं में भी अत्यंत मान्यता रही है जागरों की तो वहाँ भी अधिकांश किवदंतिया सुनने को मिलेंगी। झालेराव पुत्र गोल्ज्यू देवता व गोरिल देवता के जन्म व पूजन का विस्तृत वर्णन जागर में सुनने को मिलता है। बागेश्वर का इस पर अत्यंत भीष्म वर्णन है। यहाँ के जागरी चाहे विजयपुर ,कौसानी या कांडा के हो,उनके जागरों में शिव के अध्यायों का अत्यंत वर्णन देखने को मिलता है जिसमे प्रमुख है धौलीनग व आठ और नाग के मंदिर। इसे नाग का गढ़ भी कहा जाए तो उचित ही होगा। आज भी कंडारी गांव ने जागरी ठेठ कुमायूं से आते हैं। यह प्रचलन वर्षों से आज भी चला आ रहा है। आज भी यहां उच्याणा रखा जाता है।एक धबडया देवता है जिनके बारे में कहा जाता है कि यह धै(आवाज़) लगाते हैं।
जागर में विविधता हमारी सोचने की क्षमता से भी ऊपर है। उत्तरकाशी में गुरु कैलापीर के जागर का वर्णन है जो कश्मीरी से नाता रखते थे। और कश्मीर में गुरु के होने का उल्लेख गढ़वाल के जागरों में मिलता है।इसी प्रकार जागरों में सुमाड़ी(पौड़ी गढ़वाल) के पंथ्या दादा व मलेथा (टिहरी गढ़वाल)के माधोसिंह भंडारी का भी वर्णन आता है जिसमें एक ने पशुबलि व दूसरे ने अपने ग्राम में पानी लाने के लिए देवताओ को स्वयं की बलि अर्पण कर दी।
कहा जाता है कि राजपूतों की सभा मे जिसका बेटा नहीं होता उसको उद्धारहीन समझा जाता है और जिसकी बेटी नही होती उसे अछूत माना जाता है। कहते हैं एक राजा जिसने 12 वर्ष तपस्या करी और प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे धर्म कन्या कर दी। उस धर्म कन्या ने पूछा वह जा तो रही है परंतु उसकी सुनेगा कौन और इसी बीच शिव जी के तेज से उत्पत्ति हुई दूधिया नरसिंह के रुप में प्रकट हुई। इसके विपरीत एक कथा यह भी मिलती है कि शिवजी ने कलवरी डाली जिसमें से एक गया दूध के कुंड में और दूधिया नरसिंह उत्पन हुए। तो ये कथाएं जो हैं विभिन्न स्थानों में गयी, वहां की भौगौलिक परिस्थितियों के हिसाब से बनाई गई।
आपको यह जानकर अत्यंत हैरानी होगी कि अमेरिकी शोधकर्ता स्टीफन फ्योल उर्फ फ्योंलीदास ‘ने पहाड़ी जागरों व लोकगीत पर 10 -12 वर्ष का शोध किया है। जिसपर उन्होंने साफ साफ कहा है कि पहाड़ी लोकगीत,जागरों का जो प्राचीनतम रूप है उसमें दैव्य शक्तियों का होने का आभास है।
अमेरिका के सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में संगीत विभाग के प्रो. स्टीफन फ्योल ने वर्ष 2003 में उत्तराखंड के लोक वाद्ययंत्र ढोल-दमाऊं पर शोध शुरू किया। उन्होंने देवप्रयाग स्थित नक्षत्र वेधशाला शोध केंद्र में आचार्य भास्कर जोशी से ढोल सागर के इतिहास और उसकी बारीकियों को समझते हुए इस परंपरा के सिद्धहस्त लोकवादकों की जानकारी भी एकत्रित की।
इस सिलसिले में उन्होंने टिहरी जिले के देवप्रयाग ब्लाक के पुजार गांव में ढोलवादक सोहनलाल के साथ रहकर ढोल-दमाऊ की तालों, वार्ता व जागरों को सीखा। साथ ही उन्होंने अपना नाम फ्योंलीदास रखकर गढ़वाली और हिंदी भाषा भी सीखी। अमर उजाला के साथ बातचीत में उन्होंने बताया कि 1930 में उनके दादा अपने चार बेटों को पढ़ाने मसूरी आए थे। बाद में उनके पिता अमेरिका में बस गए, लेकिन स्टीफन के मन उत्तराखंड बस हुआ था। वह 1999 में उत्तराखंड के साधु संतों से मिले। बाद में उन्होंने ढोल, दमाऊ और डौंर आदि वाद्ययंत्रों पर शोध शुरू किया। अब अमेरिका में उनके कई शिष्य ढोल दमाऊं बजाने में निपुण हो गए हैं।
पहाड़ी मान्यताओं में तो यह तक कहा गया है कि जो देवता(अगर हिंसक)है जिसे 6 पीढ़ी तक नही पूजा गया है वह सातवीं पीढ़ी पर आएगा व नाश का कारण भी बन सकता है। आज विज्ञान और धर्म अलग अलग चलते हैं किंतु विज्ञान भी यही कहता है कि नकारात्मक व सकारात्मक ऊर्जा होती हैं जिसे हम धर्म के नाम पर भूत व भगवान का नाम देदेते हैं। प्रस्तुत बातों का उद्देश्य किसी अंधविश्वास को बढ़ावा देना नही है क्योंकि अंधविश्वास तो स्वत वह चीज़ होती है जिसके होने की कोई पुष्टि नही होती और जिसका अनुसरण बिना किसी मतलब के हो रहा है।
अंत में यह हम सभी के लिए अत्यंत गौरान्वित होने की भी बात है कि प्रीतम भरतवाण, चंद्र सिंह राही, दिलबर सिंह राही (सबसे बड़े जागरी) नरेंद्र सिंह नेगी, पप्पू कार्की इत्यादि ऐसे जागरी सम्राट है जिन्होंने जागरों को उत्तराखंड ही नहीं पूरे विश्व भर में ख्याति प्रदान की। कई गांव में एक विशेष मुहिम के रुप में इस परम्परा की शुरुआत हुई। जिसके तहत हर वर्ष ग्राम में पितृ देवताओ की पूजा हो रही है व दूर दूर से लोग इसका अनुसरण करने आ रहे है जो कि एक आशा व सकारात्मकता की ओर भी संकेत करता है।