हिंदी सिनेमा ने ”लिव-इन” को मज़ाक बना डाला

- भारत में ”लिव इन” गंभीर विषय
- कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में इस विषय पर फिल्मों की भरमार
अमिताभ श्रीवास्तव
1982 की महेश भट्ट निर्मित ‘अर्थ’ ने शुरू में उनकी अपनी और परवीन बाबी की लव स्टोरी होने के कारण दर्शकों को आकर्षित किया पर एक बार थिएटर में घुसने के बाद लोग फिल्म में ऐसा खोये की वो फिल्म के अंतिम सीन में खड़े होकर ताली बजाये बिना नहीं रह सके.
अपने समय से बहुत आगे बनी फिल्म के आखरी सीन में एक पति जब अपनी पत्नी के पास वापस आकर उसके साथ रहने की इज़ाज़त मांगता है तो वो कहती है अगर मैं भी ऐसे ही किसी के साथ रह कर वापस आती तो आप मुझे स्वीकार करते तो वो बड़ी ईमानदारी से जवाब देता है नहीं।इस पर वो कहती है मेरा जवाब आप समझ गये.
मतलब साफ़ था. दर्शकों की पूरी सहानुभूति इन्दर मल्होत्रा (कुलभूषण खरबंदा) की पत्नी पूजा (शबाना आज़मी ) के साथ थी जो कविता सान्याल (स्मिता पाटिल) के दीवाने हैं. फिल्म का शायद सबसे ज़बरदस्त सीन वह है जहाँ स्मिता पाटिल शिकायत करती है कि शबाना उसके सपने में आती है उसके मंगल सूत्र के बिखरे मोती टूट कर उसके पैरों में चुभ रहे हैं.
फिल्म में शबाना और स्मिता दोनों का ज़बरदस्त रोल है लेकिन फिल्म शादी की संस्था को मज़बूत करती है और लिव इन को ग़लत मानती है.ये बात अलग है की वो अपने शर्तों पर जीना चाहती है.
मुझे याद है जब मैं प्लाज़ा में यह फिल्म देख रहा था तो जैसे ही कुलभूषण आकर शबाना से अपनी ‘घर वापस’ की बात शुरू करता है हॉल के एक कोने से आवाज़ आई “धोबी का कुत्ता” और दर्शकों के ठहाकों ने शबाना के जवाब पर अपनी मुहर लगा दी और शबाना आधुनिक और सशक्त महिलाओं की प्रतिनिधि बन गयी.
फ़ास्ट फॉरवर्ड 2019 की फिल्म ‘लुका छुपी’
फिल्म में रिपोर्टर बनी कृति मथुरा में एक विधवा से पूछती है “क्या दो लोगों को शादी से पहले एक दुसरे को जानने के लिए साथ रहना चाहिए और वो बिंदास जवाब देती है “यह तो बहुत अच्छी बात है। अगर मैं अपने पति को पहले से जान लेती तो उस शराबी से कभी शादी नहीं करती. वो तो मर गया और मुझे यहाँ भीख मांगने के लिए छोड़ गया.
लुका छुपी में लड़की (कृति सनोन) खुद लिव इन में रहना चाहती है और पहल ही रात में अपने पार्टनर कार्तिक आर्यन से पूछती है “प्रोटेक्शन है ना”. लेकिन यह लड़की भी बिन शादी के अपने को अधूरा समझती है. लिव इन को कॉमेडी के रूप में प्रस्तुत करने वाली यह फिल्म सिर्फ इस रिश्ते को शादी की स्वीकार्यता देने की दौड़ है जिसे पूरे पूरे परिवार आ कर देख रहे हैं.
सलाम नमस्ते (2005)
सैफ खान और प्रीति ज़िंटा किं यह फिल्म शायद हिंदी की पहली ठीक ठाक लिव इन फिल्म है जिसमे इस रिश्ते को बहुत गहराई और गंभीरता से समझाया गया है.ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले दो नए विचारों का एक जोड़ा शादी के बिना साथ रहना एक नार्मल बात समझता है,दोनों नौकरी करते हैं इसलिए उनपर कोई आर्थिक मज़बूरी नहीं है और उनके साथ रहने का कारण सिर्फ प्यार है.
समस्या तब आती है जब प्रीटी ज़िंटा गर्भवती हो जाती है.सैफ को बच्चा नहीं चाहिए पर प्रीटी के लिए बच्चा गिराने का सवाल ही नहीं उठता.उसकी माँ बनने की आकांक्षा उसे हालात से लड़ने की हिम्मत देती है अंत में सैफ भी उससे शादी करने को तैयार हो जाता है जैसा की हिंदी सिनेमा में अंत में होता है.
फिल्म में रिपोर्टर बनी कृति मथुरा में एक विधवा से पूछती है “क्या दो लोगों को शादी से पहले एक दूसरे को जानने के लिए साथ रहना चाहिए और वो बिंदास जवाब देती है “यह तो बहुत अच्छी बात है। अगर मैं अपने पति को पहले से जान लेती तो उस शराबी से कभी शादी नहीं करती. वो तो मर गया और मुझे यहाँ भीख मांगने के लिए छोड़ गया.
लेकिन मेरे हिसाब से 1965 में विजय आनंद द्वारा निर्मित ‘गाइड’ पहली ऐसी फिल्म मानी जानी चाहिए जिसमे शादी शुदा रोज़ी (वहीदा रहमान ) अपनी शादी से दुखी हो कर राजू गाइड (देव आनंद) के साथ रहने लगती है.पूरी फिल्म में वो अपने इस रिश्ते को कभी गलत नहीं मानती बल्कि ‘आज फिर जीने की तमन्ना है” जैसा सदा बहार गाना गाकर कर अपनी ख़ुशी का इज़हार करती है.
इधर कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में इस विषय पर फिल्मों की भरमार हो गई है जिसमे बचना ऐ हसीनों , फैशन ,प्यार का पंचनामा, आशिक़ी 2 , शुद्ध देसी रोमांस जैसी फिल्में सामने आईं लेकिन जैसा इनके नाम से पता चलता है फिल्म निर्माताओं ने ऐसी फिल्मों को रोमांस और मौज मस्ती से अधिक कुछ नहीं समझा।
इधर कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में इस विषय पर फिल्मों की भरमार हो गई है जिसमे बचना ऐ हसीनों , फैशन ,प्यार का पंचनामा ,आशिक़ी 2 , शुद्ध देसी रोमांस जैसी फिल्में सामने आईं लेकिन जैसा इनके नाम से पता चलता है फिल्म निर्माताओं ने ऐसी फिल्मों को रोमांस और मौज मस्ती से अधिक कुछ नहीं समझा।
लेकिन भारत में लिव इन गंभीर विषय है और इस पर देश भर में एक भयंकर बहस 2005 में शुरू हुई जब दक्षिण की मशहूर हीरोइन खुशबू ने इंडिया टुडे में एक इंटरव्यू में कह दिया कि भारत में बहुत से लोग लिव इन में रहते हैं और इसमें कुछ गलत नहीं है बशर्ते की वो प्रोटेक्शन लेते हों. इनके इस बयान का पूरे तमिल नाडु में इतना विरोध हुआ की उनके ऊपर एक साथ 22 न्यायालयों में मुकदमे चलने लगे.
मद्रास हाई कोर्ट ने सारे मामलों को एक जगह कर के खुशबू पर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए मुकदमा करने का आदेश दे दिया।जज ने यहाँ तक कहा की खुशबू एक आठवीं पास लड़की हैंऔर उसे भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ नहीं मालूम।
इस फैसले से राहत के लिए खुशबू ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और उसका मुकदमा जानी वाली वकील पिंकी आनंद ने लड़ा (जो आज भारत की एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हैं ).इस केस में 2010 में सुप्रीम कोर्ट अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा की अगर दो वयस्क लोग साथ साथ रहना चाहते हैं तो किसी को इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए. बशर्ते ये (अडल्ट्री) पुरुषों द्वारा पर स्त्री के साथ रहने का मामला नहीं है.
इस केस के बारे में एक पुस्तक में पिंकी आनंद ने लिखा है “मैं खुशबू का पक्ष इसलिए नहीं ले रही थी की मैं लिव को सही मानती हूँ. मेरे विचार से यह ठीक नहीं है लेकिन मैं खुशबू के अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उसका समर्थन कर थी जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (A) अंतर्गत उसको प्राप्त है.
पिछले कुछ वर्षों से लिव इन के और बहुत से साइड इफ़ेक्ट समाज में उजागर हुए हैं जिनपर बॉलीवुड का इतना ध्यान नहीं गया है.2015 में ऐन जी ओ ‘प्रयास’ के सभागार में निर्भया की याद में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमे दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी उपस्थित थे. ऐन जी ओ उनपर यौन उत्पीड़न के केस रजिस्टर न करने के आरोप लगाए जा रहे थे.काफी देर चुप रहने के बाद एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी ने बताया कि इसमें उनकी गलती नहीं है क्योंकि दिल्ली में 60 प्रतिशत फ़र्ज़ी केस आते हैं और इन मामलों के चक्कर में असली केस कभी कभी छूट जाते हैं.
“हमारे पास अधिकतर केस ऐसी महिलाओं द्वारा किये जाते हैं जो अपनी मर्ज़ी से अपने पार्टनर के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हुए सालों रहती हैं लेकिन जब उनका पार्टनर शादी से इंकार कर देता है तो वो उस पर बलात्कार का आरोप लगा देती है”.
सभागार में बैठे सभी लोगों ने माना कि उन्हें भी ऐसे मामलों के बारे में पता चला हैं लेकिन सभी का पुलिस से आग्रह था कि कुछ फ़र्ज़ी मामलों की वजह से वो ऐसे गंभीर आरोपों को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते और उन्हें हर केस की तहकीकात करनी चाहिए.
लिव इन केवल एक रोमांटिक ज़ज़्बा नहीं है बल्कि इससे होने वाले दूरगामी परिणामों से महिलाओं और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है जिसका उद्देश्य घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाना है.
शारीरिक दुर्व्यवहार अर्थात शारीरिक पीड़ा, अपहानि या जीवन या अंग या स्वास्थ्य को खतरा या लैगिंग दुर्व्यवहार अर्थात महिला की गरिमा का उल्लंघन, अपमान या तिरस्कार करना या अतिक्रमण करना या मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार अर्थात अपमान, उपहास, गाली देना या आर्थिक दुर्व्यवहार अर्थात आर्थिक या वित्तीय संसाधनों, जिसकी वह हकदार है, से वंचित करना, मानसिक रूप से परेशान करना ये सभी घरेलू हिंसा कहलाते हैं।