ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत करने वाले योद्धा वीर चंद्र सिंह गढ़वाली
वेद विलास उनियाल
भारतीय स्वाधीनता की लडाई के अमर सैनानी और मंगल पांडे की तरह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत करने वाले योद्धा वीर चंद्र सिंह गढवाली की 125वीं जयंती पर आयोजित एक आयोजन में जिन भावनाओं को लेकर गया था, उससे निराश होना पडा। अगर एक छोटे नाट्य मंच को छोड दिया जाए तो उसमें कुछ भी ऐसा नहीं पाया जिससे मन में संजोया जा सके।
सबसे पहले तो यही कि दुनिया की सबसे चर्चित क्रांतियों में एक पेशावर कांड के नायक का हम पहाडीकरण क्यों करते हैं। गढवाल राइफल के चंद्र सिंह गढवाली और उनके साथियों की बगावत से 1930 में पेशावर में जलियावाला बाग जैसा संहार होते होते रह गया।
न जाने कितने आजादी के दिवाने उस दिन मारे जाते। मगर उस महानायक को याद करने का हमारा ये तरीका। ……थोडा जानिए हम कहां गलत हैं।
1- दिल्ली ही ऐसे आयोजनों का स्थल क्यों। क्या च्ंद्र सिंह गढ़वाली की यादों के लिए, हम उनके पैतृक गांव में नहीं जा सकते थे। उस अमर सैनानी की याद में यह आयोजन अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तरह बन कर रह गया। वही मंच पर एक फोटो, नायकों के कुछ परिजन, वहीं धन मुहैया कराने वाले लोगों का बार बार स्तुतिगान, और पांच छह गीत और नृत्य। यानी एक पैकेज। अपने नायकों को याद करने का यह तरीका नहीं होता।
4- ये काम बहुत कुशलता से होते हैं । मच पर एक फोटो रख दिया जाता है। मुख्य अतिथि कुछ कहते हैं। नायक या सेलिब्रिटी के परिवार से किसी को आमंत्रित किया जाता है। ताकि लगे कि आयोजन को लेकर गंभीरता दिखाई गई है। लेकिन चंद्रसिंह गढवाली की पुत्रवधु आती हैं उनसे कुछ कहने का अनुरोध नहीं किया जाता। चंद्रसिंहजी के सहयोगी के बेटे आते हैं मंच पर शोपीस की तरह बुलाए जाते हैं। लेकिन हम कई ऐसे लोगों को सुनते हैं जो मंच पर कहने की पात्रता नहीं रखते। वो नहीं उनका धन बोलता है । यह जरूर है कि आय़ोजन बिना धन के नहीं होता लेकिन ख्याल यह भी रखा जाना चाहिए कि किसी महानायक की याद करते हुए हम कितनी अहमियत दूसरों को दें। ऐसे आयोजनों का फोकस उन महानायकों पर होना चाहिए।
3- दिल्ली में एक गलत रीत पड गई है। किसी नायक या सलिब्रिटी के नाम पर आयोजन किया जाता है। राज्य सरकार का संस्कृति विभाग पैसा देता है। कुछ संस्थाओं . व्यवसाय जगत के लोगों से पैसा आता है। एक स्मारिका भी निकाली जाती है। यानी चारों तरफ से पैसा । वह नायक पीछे छूट जाता है रोशनी कहीं और बिखर जाती है। कल च्ंद्र सिंह गढवालीजी को याद करते हुए मन रो रहा था। अपने नायकों के नाम पर ऐसा खिलवाड नहीं होना चाहिए। यहां तक कि एक वक्ता ने तो चंद्रसिंह गढवाली को आदेश देने वाले ब्रिटिश अधिकारी को डायर कह दिया। डायर शब्द ही उनके दिमाग में घूम रहा था।
4- ये काम बहुत कुशलता से होते हैं । माहौल को पहाडमय दिखाने के लिए एक मशकबीन और ढोल दमों वाले समारोह स्थल में गेट के पास खडे किेए जाते हैं। उन्हें कोई सम्मान नहीं देता। बस ऐसे खडे किए जाते हैं जैसे शादी के समय कुछ लोगों को रंगबिरंगे कपडे पहनाकर द्वार में खडे कर देते हैं। इनका काम होता है कि खास और पैसे देने वाले अतिथियों के आते ही बेडू पाको बार मासा की धुन बजाना। इन्हें इशारा किया जाता है कि कब कब उन्हें मशकबीन ढोल बजाना है। और फिर
मच पर एक फोटो रख दिया जाता है। मुख्यअतिथि कुछ कहते हैं। नायक या सेलिब्रिटी के परिवार से किसी को आमंत्रित किया जाता है। ताकि लगे कि आयोजन को गंभीर बनाया जा रहा है। यहां भी लगभग यही रीत दिखी।
चंद्रसिंह गढवाली की पुत्रवधु आती है उनसे कुछ कहने का अनुरोध नहीं किया जाता। चंद्रसिंहजी के सहयोगी के बेटे आते हैं मंच पर शोपीस की तरह बुलाए जाते हैं। लेकिन हम कई ऐसे लोगों को सुनते हैं जो मंच पर कहने की पात्रता नहीं रखते। वो नहीं उनका धन बोलता है । यह जरूर है कि आय़ोजन बिना धन के नहीं होता लेकिन ख्याल यह भी रखा जाना चाहिए कि किसी महानायक की याद करते हुए हम कितनी अहमियत दूसरों को दें। ऐसे आयोजनों का फोकस उन महानायकों पर होना चाहिए। लेकिन आयोजन बिखर जाते हैं । क्योकि उसके पीछे चिंतन सोच समझ नहीं होती।
5- एक सुंदर पन्नो में स्मारिका निकाली जाती है। स्मारिका में सारगर्भित छोडिए एक सामान्य लेख भी चंद्रसिंह गढवाली पर नहीं है। स्मारिका रंग बिरगे विज्ञापनों से भरी है। हां दिखाने के लिए पहले पेज पर च्ंद्रसिंह गढवाली का फोटो है। आप ताज्जुब करेंगे इस स्मारिका में दस पेज केवल उत्तराखंड की फिल्म नीति को लेकर दिए गए हैं। पूरी स्मारिका एक तरह से च्ंद्र सिंह गढवाली का अपमान करती है। अगर स्मारिका में सरकार या स्ंस्थाओं का पैसा खर्च हो रहा तो यह काम गंभीरता के साथ किया जाना चाहिए। समाज के पुराने अनुभवी लोगों की मदद से बेहतर पठनीय और उपयोगी सामग्री को लाया जाना चाहिए था।
आप महहूस करें जो जो स्मारिका उस अमर सैनानी पर है , उसके कथा वस्तु क्या है — अपणी सांस्कृतिक विरासत.,उत्तरांचल फिल्म यात्रा में मेरे कुछ कदम . ट्रेडिशनल म्य़ूजिक इंस्टूमेंट्स, ।
अजीब हालात एक लेख में – हैडिंग दी गई – जब सुबह कलाकार मृत्य पाए गए और नीचे अमलानंद धस्माना, गोपाल बाबू गोस्वामी , स्व चंद्र सिंह राही के साथ साथ नरेंद्र सिंह नेगीजी का भी आठ दस लाइनों में उल्लेख है। आप जान लीजिए कितनी गैरजिम्मेदारी के साथ ये काम हुए हैं। यानी आयोजन केवल धन संग्रह की चिंताओं तक । केवल चंद्रसिंह गढवाली पर लघु नाट्य समीक्षा। वो भी इसलिए कि उसे मंचित किया गया।
6 बचाइए इस उत्तराखंड को। यह नया नशा है जिसके आगे का भविष्य बहुत डरावना दिख रहा है। संस्कृति और कला के नाम पर जम कर पैसा खींचा जा रहा है। और कहते हुए संकोच नहीं है कि इस काम में कई संस्कृति के पुरोधा भी लगे हुए है। एक अच्छी संस्कृति को हम सामने प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। आयोजनों के नाम पर जुगाड बनाए जा रहे हैं। सरकार से पैसा मंजूर कराया जाता है। औऱ फिर एक नकली सा आयोजन परोस दिया जाता है। किसी नायक या सेलिब्रटी या शहीद को लेकर किसी आयोजन में जो सेंटीमेंट्स फील होना चाहिए वो हम अब ऐसे तमाम आयोजनों में दूर दूर तक नहीं पा रहे हैं। संस्कृति कला के कोई सरोकार गांवों से नहीं रह गए। लोककला और संस्कृति का परचम यह है कि पुराने बाजे -गाजे सब खत्म हो गए। पुराने गीतों की शैलियां लुप्त हो गई। बाजारीकरण के गीत आ गए। जिनका असर दो क्षण के लिए मन में रहता है।
6- वहीं दिल्ली के पाांच सात लोग बार बार ऐसे आयोजनों में बुलाए जाते हैं। बेशक उस आयोजन को लेकर उनका किसी तरह योगदान होगा। लेकिन उनकी प्रस्तुति और उपस्थिति का अहसास कराने का यह तरीका नहीं। आप ऐसे गभीर महत्वपूर्ण आयोजनों की जिम्मेदारी लेते हैं तो आपको उस नायक शहीद या सेलिब्रिटी को महत्व देना आना चाहिए।
और अगर वह नायक चंद्र सिंह गढवाली है तो हम सबको बहुत सतर्क सहज रहना चाहिए। इस तरह के खिलवाड भविष्य में न हों।