उग्र राष्ट्रवाद बनाम उग्र क्षेत्रीय क्षत्रप !

- लड़ाई दो धुर्वीय होगी या बहु धुर्वीय !
- 2019 की लड़ाई भाजपा के राष्ट्रवाद व क्षेत्रीय क्षत्रपों के बीच घमासान
प्रकाश सुमन ध्यानी
10 मार्च लोक सभा चुनाव 2019 की घोषणा होते ही राजनैतिक दलों में हड़बड़ाहट शुरू हो गई। कारण था कि कोई दल तब तक न किसी ठोस गठबंधन के नजदीक पहुॅंच पाया नहीं मुद्दे तय कर पाया था। अतः चुनाव आयोग की घोषणा की तिथि तक यह तय नहीं हो पाया था कि लड़ाई दो धुर्वीय होगी या बहु धुर्वीय। इसके विपरीत 2014 के लोक सभा चुनाव में स्थितियाॅं काफी स्पष्ट थी। लड़ाई भाजपा एवं कांग्रेस में थी। छोटे दल व क्षेत्रीय दल अधिकतर या तो कांग्रेस के पाले में थे या भाजपा के। एक तरफ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गाॅंधी का नेतृत्व था दूसरी तरफ भाजपा के नरेन्द्र मोदी थे। मुद्दे भी तय थे। कांग्रेस ठोस आर्थिक तन्त्र व 10 साल के स्थिर शासन के मुद्दे को लेकर चल रही थी। उसका कहना था कि हमें ही सरकार चलाना आता है। अन्य के बस का यह काम नहीं है। अतः हमें एक मौका और दें। दूसरी तरफ भाजपा भ्रष्टाचार-हिन्दुत्व के मुद्दे पर उग्र थी। मोदी प्रश्न पर प्रश्न पूछ रहे थे। कार्यकर्ता मोदी-मोदी चिल्ला रहे थे। मोदी चुनाव की घोषणा के 6 माह पूर्व से पूरे देश का दौरा कर चुके थे। कुल मिलाकर 2014 की चुनाव घोषणा से पूर्व नेता तय थे, गठबंधन तय थे, मुद्दे तय थे, अतः चुनाव की घोषणा होते ही सब अपनी-अपनी सेना लेकर मैदान में कूद पड़े अब राजनैतिक पण्डित भी चुनाव की घोषणा के बाद चर्चा में व्यस्त हैं। चार संभावनाएं लगाई जा रही हैं-
1. क्या मोदी दुबारा प्रधानमंत्री बनेंगे ?
2. स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में क्या कोई अन्य भाजपायी प्रधानमंत्री बन सकता है ?
3. क्या राहुल गाॅंधी प्रधानमंत्री बनेंगे ?
4. कोई क्षेत्रीय क्षत्रप देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद तक पहुॅंच सकता है ?
2019 में मुद्दे उलट गये हैं। भाजपा अब उग्र राष्ट्रवाद को लेकर चल रही है। काॅंग्रेस राफेल, नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, विजय माल्या पर प्रश्न पूछ रही है। क्षेत्रीय क्षत्रप आरोप लगा रहे हैं कि मोदी संघवाद पर चोट कर रहे हैं, अब राजनीति भी केन्द्रीकृत की जा रही है। संसाधनों पर केन्द्र कब्जा जमा रहा है और स्वतन्त्र संस्थाओं पर अपना निरंकुश नियंत्रण मोदी चाहते हैं। अतः वे मोदी पर निरंकुश अधिनायकवाद की ओर बढ़ने का आरोप लगा रहे हैं। 2014 से 2017 तक जीत मोदी के कदम चूम रही थी। जादू इतना तकड़ा था कि मोदी और अमित शाह हार को भी जीत में बदल दे रहे थे व लोग उनके इस काम को भी जायज मान रहे थे (गोवा व नार्थ ईस्ट के राज्य उदाहरण हैं)। 2018 आते-आते परिस्थितियाॅ बदलने लगी उपचुनावों में विपक्ष भाजपा को मिलकर पटखनी देता रहा। 2014 के बाद भा0ज0पा0 को लोकसभा उपचुनावों में 10 सीटें गंवानी पड़ी। भाजपा की लोकसभा में संख्या 282 से 272 पर आ गई।
2014 में उत्तरप्रदेश ने मोदी का मार्ग प्रशस्त किया था लेकिन 2018 में गोरखपुर, फूलपुर, कैराना ने झटका इतना तकड़ा दिया कि भा0ज0पा0 हिल गई। 2018 में ही राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जीत कर राहुल गाॅंधी ने अपने अध्यक्ष बनाने पर सफलता की मोहर लगा दी। टीडीपी, तृणमूल काॅंग्रेस, लोक समता पार्टी एनडीए छोड़कर चली गई। शिव सेना, अपनादल, सुहेलदेव पार्टी, अकालीदल, रामविलास पासवान उतावले तेवर दिखाने लगे। पार्टी के अन्दर पुराने क्षत्रप या तो खुलेआम बगावती तेवर दिखाने लगे या अन्दर-अन्दर प्रश्न उठाने लगे। कुल मिलाकर 2018 में मोदी के लिए स्थितियाॅं बहुत अच्छी नहीं थी।
अचानक 2019 की 14 फरवरी को आतंकवादियों ने कश्मीर के पुलवामा में आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के जवानों की कानवाइ पर हमला कर 40 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। देश में गुस्सा चरम पर पहूॅंच गया। 12 दिन बाद वायु सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट स्थित आतंकवादियों के कैम्प को बमों से उड़ा दिया। सेना के इस शौर्य को मोदी ने लपक लिया, यहीं से उसे 2019 के लिए मुद्दा मिल गया। वह उग्र राष्ट्रवाद को लेकर 2019 में चुनाव लड़ने को उतारू हो गये क्योंकि विकास और लोक हितकारी मुद्दों पर तो बेरोजगारी, किसानों का विरोध, महंगाई, नोटबन्दी और जीएसटी भारी पड़ रहा था। इन मुद्दों की वजह से 2018 भाजपा का नहीं रहा। अतः वह 2019 में यदि खाली सरकार की उपलब्धियों के सहारे लड़ती तो कठिन हो जाता।
अतः चतुर मोदी ने परंपरागत प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की तरफ आक्रमण की धार मोड़ दी और इसे उग्र राष्ट्रवाद का मुद्दा बना दिया। भाजपा का तन्त्र मजबूत है ही उसने मुद्दे को जन-जन तक पहुॅंचा दिया। लेकिन अभिनन्दन की पाक में गिरफ्तारी व सीआरपीएफ शहीद जवानों के परिजनों द्वारा एक के बदले दस सिर लाने के मोदी के नारे की याद दिला दी व प्रश्न खड़ा कर दिया कि सरकार बताये कि बालाकोट एयर स्ट्राइक में मारे कितने गये। हमारे साठ सैनिक फरवरी से अब तक मर गये हैं। पाकिस्तान के कितने मारे ? यह तो बताओ आखिर बालाकोट आक्रमण से हमें हासिल क्या हुआ ? यह प्रश्न अभी अनुतरित है। अतः जब तक दोनों ओर युद्ध का वातावरण रहा देश में उन्माद बना रहा। स्वभाविक रूप से देश सरकार के साथ खड़ा दिखा लेकिन जैसे-जैसे उन्माद समाप्त हो रहा है प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं। सरकार से प्रश्नों का जबाब मांगा जा रहा है। यदि यह उन्माद बना रहा तो भा0ज0पा0 को फायदा मिलेगा लेकिन यदि सरकार पाकिस्तान पर ठोस कार्यवाही नहीं कर पायी तो पासा उल्टा भी पड़ सकता है।
अब यह देख लेते हैं कि उग्र राष्ट्रवाद चुनाव पर कितना असर डालेगा। यह उन्माद भाजपा प्रभाव वाले राज्यों में ज्यादा है। इन राज्यों में तो भाजपा 2014 में अपना सर्वोच्च दे चुकी है। उत्तरप्रदेश, चण्डीगढ़, गोवा, बिहार, दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, असम में कुल 363 में से 271 सीटें 2014 में भाजपा जीत चुकी है। निश्चित रूप से उसे इन राज्यों में कम ही होना है। नार्थ ईस्ट में पुलवामा से ज्यादा नागरिकता संशोधन विधेयक व गैर आदिवासी पहचान पत्र का है। इसलिए असम गण परिषद् व अन्य छोटे-छोटे दल या तो एन.डी.ए. छोड़ चुके हैं या भाजपा के साथ उनके सम्बन्धों में खटास आ चुकी है। अतः यहाॅं भी भाजपा को फायदा नहीं है। उड़ीसा, बंगाल व त्रिपुरा में मुश्किल से कुल 8-10 सीटों का फायदा भा0ज0पा0 को होगा परन्तु 101 सीटों वाले आन्ध्रा, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडू व पाॅंडीचेरी में फायदे की कोई गंुजाईश नहीं दिखाई दे रही है। पूरे दक्षिण भारत के राज्यों में कहीं भी पुलवामा घटना के बाद कोई उल्लेखनीय प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। अतः उग्र राष्ट्रवाद का असर वहाॅं नहीं है। कुल मिलाकर जहाॅ उग्र राष्ट्रवाद का असर है वहाॅं भा0ज0पा0 पहले से कम हो रही है। जहाॅं असर नहीं है (नार्थ ईस्ट व दक्षिण) वहाॅं बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है। एन0डी0ए0 के सहयोगी या तो साथ छोड़ रहे हैं या जो साथ हैं वे उत्साहित नही हैं। पार्टी के अन्दर वरिष्ठ कार्यकर्ता खास उत्साहित नहीं है। तो भाजपा क्या अपने दम पर सरकार बना पायेगी यह यक्ष प्रश्न खड़ा ही है।
दूसरी ओर विपक्ष की ताकत क्षेत्रीय क्षत्रप है। अटल बिहारी बाजपेयी सरकार की तरह मोदी सरकार सहयोगियों को साथ नहीं ले पायी है। अतः एआईडीएमके अतिरिक्त कोई नया दमदार क्षेत्रीय सहयोगी भा0ज0पा0 नहीं ढूंढ पायी है। एआईडीएमके भी ढलान पर है।
यह ठीक है कि 2018 जाते-जाते कांग्रेस 6 राज्यों में सत्ता पा चुकी है। वह आक्रमक भी हुई है। राहुल गाॅंधी ने खुद को व पार्टी को निखारा भी है लेकिन अभी अपने दम पर वह भाजपा व खासकर मोदी का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन यदि कांग्रेस, सपा, बसपा, ममता, बीजेडी, तेलगुदेशम, सीपीआई, सीपीआईएम, आरजेडी, शरद पंवार, जेडीएस, डीएमके, नेशनल कांफ्रेस, पीडीएफ व नार्थ ईस्ट के छोटे दलों से गठबंधन कर पाती है या सहमति बनाकर चुनाव लड़ पाती है तो वह भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में आ सकती है और चुनाव रोचक बन सकता है।
यद्यपि समग्र देश के स्तर पर देखें तो अभी भाजपा का पलड़ा भारी दिखता है। परन्तु यह सतही बढ़त धरातल पर कितना उतर पाती है यह भविष्य बतायेगा। भाजपा सबसे बड़ा दल बनते हुए दिख रहा है। उसकी कमजोरी है कि वह क्षेत्रीय व जातीय क्षत्रपों को नहीं साध पा रही है। कांग्रेस 2014 से अच्छा करने वाली है लेकिन वह भाजपा की संख्या से दूर रहने वाली है। लेकिन आज उसके रिश्ते क्षेत्रीय क्षत्रपों से भाजपा से ज्यादा अच्छे हैं यही उसकी ताकत है। यदि कांग्रेस 140-150 के बीच सीटें लाती है तो वह सरकार बना सकती है लेकिन मोदी को पुनः प्रधानमंत्री बनने के लिए कम से कम 240 सीटें चाहिए। यदि भाजपा 200 सीटें भी लाती है तब भी भाजपा का ही प्रधानमंत्री बनेगा पर मोदी नहीं कोई और बनेगा। कोई क्षेत्रीय क्षत्रप तब ही प्रधानमंत्री बन सकता है जब काॅंग्रेस 100 से अधिक सीटें लाये व क्षेत्रीय दल 180 से अधिक जो कि फिलहाल कठिन लगता है।
मेरा मानना है कि युद्ध में विजय चुनाव में जीत की गारंटी नहीं है। फिर अभी तो न पाकिस्तान से औपचारिक युद्ध हुआ है न ही विजय हुई है, एक उन्माद मात्र है जिसके सहारे बहुत बड़ी उम्मीद लगाना ठीक नहीं है। भाजपा को पाॅंच वर्ष की उपलब्धि पर केन्द्रित करना चाहिए व क्षेत्रीय क्षत्रपों के बीच व जातीय पक्षों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ानी चाहिए।
इतिहास गवाह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध (1945) मित्र राष्ट्र जीते। चर्चिल तब ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे परन्तु वे 1946 का चुनाव हार गये। इसी प्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति एच0डब्लू0बुश ने ईराक में 1911 का युद्ध जीता परन्तु वे बढ़ती बेरोजगारी के कारण 1992 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव हार गये। कश्मीर का युद्ध तो छदम युद्ध है जिसका हर रोज और हर घटना के हिसाब से हार-जीत का हिसाब लगता है। उसी प्रकार देश के लोगों की मनस्थिति भी बदलती रहती है।
यदि उत्तराखण्ड की बात करूॅं तो यहाॅं पूर्व मुख्यमंत्री मे.ज. रिटा। भुवनचन्द्र खण्डूडी के पुत्र अचानक कांग्रेस में चले गये हैं। 16 मार्च को राजधानी देहरादून में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाॅंधी सफल जनसभा कर चुके हैं। उन्होंने ईमानदार छवि के भुवनचन्द्र खण्डूडी को संसद की रक्षा समिति के अध्यक्ष पद से हटाने को मुद्दा बना दिया है और सैनिक बहुल प्रदेश की भावना को झकझोर दिया है। इससे उत्तराखण्ड अचानक राष्ट्रीय परिदृश्य में आ गया है। फिर भी फिलहाल तो एडवाॅंटेज भा0ज0पा0 ही लगता है लेकिन जनता भाजपा को 2014 की तरह ब्लैंक चैक देते हुए भी नहीं लग रही है (2014 में पाॅंच की पाॅंच सीटें भाजपा ने जीती थी)।
कुल मिलाकर 2019 की लड़ाई मुझे भाजपा के राष्ट्रवाद व क्षेत्रीय क्षत्रपों के बीच घमासान की लग रही है। यदि भाजपा अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में पहले से अच्छा कर पाई तो उसका प्रधानमंत्री और क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भाजपा को अपने-अपने गढ़ में घुसने नहीं दिया तो कांग्रेस के साथ मिलकर उनका प्रधानमंत्री। फिलहाल यही दो विकल्प लग रहे हैं यदि चुनाव के मध्य कोई अनहोनी न घटी तो।
(लेखक प्रकाश सुमन ध्यानी ,पूर्व सलाहकार (पर्यटन) मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड रहे हैं )