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शब्दों में कैद कम्युनिस्ट पार्टियां

जिस प्रकार समाज में चारित्रिक लांछन का कोई बचाव नहीं है, उसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर संशोधन- वाद का भी कोई बचाव नहीं
प्रमोद शाह
भारतीय राजनीति में अगर आप दिलचस्पी रखते है, तो कभी ना कभी राजनैतिक मुख्यधारा से इत्तर एक सशक्त विचारधारा के रूप में, जनता के संघर्षों में घिसे एक कार्यकर्ता के रूप में और एक कम्युनिस्ट के तौर पर जरूर यह विषय विमर्श का मुद्दा रहेगा ।
साथ ही बड़ी शिद्दत के साथ आपने महसूस भी किया होगा कि, ” गरीबी ,बेरोजगारी, तीक्ष्ण शोषण , और कई बार साफ साफ दिखाई दे रहे वर्ग संघर्ष जैसे मुफीद हालातो के बाद भी भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों सर सब्ज नहीं हो पाई” ?
हालांकि यह नितांत राजनीतिक सवाल है. चूंकि कम्युनिस्ट पार्टियां इस देश के लोकतांत्रिक प्रक्रिया का भी हिस्सा हैं . इसलिए जनता अथवा समाज के बीच से भी, इस पर बात करने की गुंजाईश हमेशा रहेगी ।
यह एक गजब का ऐतिहासिक संयोग है कि भारत में दक्षिण पंथ की पाठशाला, आर.एस .एस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दोनों का जन्म एक ही वर्ष 1925 में हआ , साथ ही दोनों ही विचारधाराएं अपने कैडर के लिए भी खूब जानी जाती हैं।
गौरतलब है कि, 21 वी शताब्दी के प्रारंभिक दशक कम्युनिस्टों के लिए बुरी खबर के साल रहे हैं . जहां साल दर साल अखिल भारतीय स्तर पर उनका प्रभाव लगातार क्षीण होता गया .
अपनी सामान्य समझ से,जब मैं कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव को कम होने के क्रम को समझता हूं .तो मेरी दृष्टि दो -तीन बातों में रुक जाती है।
उसमें सबसे बड़ा कारण कम्युनिस्टों का स्वयं को परिभाषा और शब्दों से मुक्त नहीं कर पाना ही है । कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यालय अथवा कैडर के बीच आज भी जो शब्द सर्वाधिक सुनाई देता है। वह #संशोधनवादी और #प्रतिक्रियावादी है ।
कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर संशोधनवादी शब्द को लेकर इतने गहरे आग्रह हैं कि जहाँ एक ओर कई बार पार्टियों के भीतर गृह युद्ध की स्थितियां बन जाती रही, वहीँ दूसरी ओर यह शब्द इन पार्टियों के विभाजन का आधार भी बन गया ।
जिस प्रकार समाज में चारित्रिक लांछन का कोई बचाव नहीं है , उसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर संशोधन- वाद का भी कोई बचाव नही है ।
परिभाषाओं के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता ही भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों की ग्राह्यता को कम कर देती है .परिणाम स्वरूप तमाम जमीनी परिस्थितियों के मुफीद होने के बाद भी , कम्युनिस्ट भारतीय राजनीति में हमेशा हाशिए में ही बने रहे . सैद्धांतिक राजनीति का यह भय ही कम्युनिस्टों को व्यावहारिक और जमीनी निर्णय लेने से रोक देता है. परिणाम स्वरूप पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और जमीनी कार्यकर्ताओं में दर्जनों बार विरोधाभास देखा गया है . इस वैचारिक अंतर संघर्ष को सबसे अधिक कम्युनिस्ट पार्टी के महा सचिव पी.सी जोशी बनाम नवनियुक्त महासचिव बी टी रणदिवे 1948 कोलकाता अधिवेशन से समझा जा सकता है ।
कामरेड पी .सी जोशी का व्यक्तित्व बेहद मिलनसार था . वह परिभाषाओ से मुक्त होकर भारतीय समाज के हर वर्ग के लिये आसानी से उपलब्ध रहे, बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार व्यावहारिक निर्णय लेने का भी प्रबल सामर्थ्य उनमें था । इन्हीं कारणों से वे लोकप्रिय भी रहे ।यह कामरेड पी.सी जोशी ही थे. जो जवाहरलाल नेहरू के करीबी तो थे ही. महात्मा गांधी भी उनसे प्रभावित हो गए थे ।
महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब नवोदित भारत के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा तो कामरेड पी.सी जोशी ने एक पर्चा निकालकर ” हिंदूवादी ताकतों से नेहरू सरकार की रक्षा ” का व्यावहारिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ाने वाला निर्णय लिया । तो यही निर्णय कामरेड पी.सी जोशी को संशोधन वाद का आरोप लगाकर हटाकर एक सामान्य कार्यकर्ता बनाने का आधार भी बन गया ।
कामरेड पी.सी .जोशी के बाद बी.टी रणदिवे कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव चुने गए . जमीनी सच्चाई के इत्तर वह नेहरू सरकार पर आंग्ल – अमेरिकन गठबंधन का आरोप लगाकर हमलावर हो गए । देश की राजनीति में खुलेआम चीन और सोवियत संघ से दिशा निर्देश प्राप्त करने का संकेत देने लगे. जिससे निश्चित रूप से भारतीय जनमानस में एक भ्रम की स्थिति बनी ।
सैद्धांतिक होने की आड़ में कथित “संशोधनवादी ” होने का आरोप लगाकर व्यवहारिक राजनीति से दूर होने के कारण ही कम्युनिस्ट भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पिछड़ते गए. जबकि सच यह था कि 1948 में हैदराबाद सहित देश के विभिन्न हिस्सों में कम्युनिस्ट मुख्य विचारधारा के रूप में जाने जाने लगे थे ।
संशोधन वाद के आरोप के चलते ही 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ, फिर इन्हीं आधारों पर “ज्योति बसु” भारत के प्रधानमंत्री बनते -बनते रह गए . मान लिया जाये कि यदि ज्योति बसु भारत के प्रधानमंत्री बनते, तो क्या व्यावहारिक राजनीति की यह पहल सैद्धांतिक कम्युनिस्ट राजनीति से ज्यादा प्रभावी नही होती ?
खैर देर सवेर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को लोकतंत्र में प्रासंगिक बने रहने के लिए आत्मावलोकन कर स्वयं ही इस प्रश्न का ब्यावहारिक समाधान खोजना होगा।
श्री प्रमोद शाह की फेस बुक वाल से साभार