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उत्तराखण्ड के लिए पैदा होता बोली-भाषा का भ्रम !

भाषा मानकीकरण के नाम पर NGO का तीन दिन का ड्रामा!
निश्चित है कि भाषा के नाम पर खिचड़ी पहले से पक रही थी!
श्री नेगी को ढाल बनाकर एक जिले तक ही क्यों सिमटा दिया ?
डाॅ. बिहारीलाल जलन्धरी
यदि हम समग्र उत्तराखण्ड और उत्तराखण्ड की समग्र व सर्वमान्य भाषा की बात करें तो हमें दक्षिण भारत में मलयलम के उदाहरण से प्रेरणा लेकर गढ़वाली-कुमांउनी का अस्तित्व यथावत रखकर दोनों का समाकलन कर एकीकरण की बात को महत्व देना चाहिए, यही उत्तराखण्ड और उत्तराखण्ड की भाषा के लिए श्रेयकर होगा।
यह सर्व विदित है कि विद्यार्थियों के लिए पठन-पाठन के विषयों का स्वरूप प्रदेश में प्रादेषिक शैक्षिक परीक्षण परिषद (एस.सी.ई.आर.टी) द्वारा किया जाता है। इसी क्रम में विभाग ने उत्तराखण्ड की बोलियों पर कार्य करने के लिए तीन मण्डलों की स्थापना की थी। प्रत्येक मण्डल में एक नोडल कार्यालय डाइट स्थापित किया था। गढ़वाली का पौड़ी में कुमाऊंनी का अल्मोड़ा में और जौनसारी का विकास नगर में। किसी प्रकार के दबाव या गतिरोध के कारण विभाग की यह योजना पहाड़ नहीं चढ़ पाई और कार्यक्रम बीच में ही स्थगित हो गया। यदि कार्यक्रम परवान भी चढ़ता जो बोलियों के रूप में हमारा पूरा उत्तराखण्ड पौराणिक काल की भांति मैं गढ़वाली तू कुमाउनी वह जौनसारी में बंट ही गया होता। उत्तराखण्ड की समग्रता इन बोलियों के पठन-पाठन में आने से गौंण हो जाती। प्रदेष में शिक्षा के ढ़ांचे में भाषा के विषय को किस प्रकार समायोजित किया जाय, इस पर प्रदेश के सभी भाषा विशेषज्ञों की एक समिति के माध्यम से सभी मानकों के आधार पर समाकलन कर निर्धारित करना था। परन्तु इस पक्ष में यह विभाग फिसड्डी साबित हुआ है।


