सरकार का लोकायुक्त अधिनियम तथा तबादला एक्ट का ‘पटाखा’ हुआ फुस्स…
योगेश भट्ट
धीमी गति से अपनी पारी की शुरुआत करते हुए त्रिवेंद्र सरकार ने जब खंडूरी शासनकाल में तैयार किए गए लोकायुक्त अधिनियम तथा तबादला एक्ट को पुनर्जीवित करने की घोषणा की तो लगा कि सरकार ‘खम’ ठोक कर दम दिखाने लगी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की तरह त्रिवेंद्र भी सुर्खियों में छाने लगे।
लेकिन यह क्या? सरकार ने जितनी तेजी से लोकायुक्त विधेयक व तबादला विधेयक को सदन में रखा, उतनी दृढता से वह उसे पास नहीं करा पाई। लोकायुक्त बिल पर आश्चर्यजनक तरीके से सरकार के कदम ठिठक गए। किसी को अंदाजा तक न था कि सरकार लोकायुक्त एक्ट को प्रवर समिति के हवाले कर देगी। वह भी तब जबकि विपक्ष भी इस विधेयक का समर्थन कर रहा था। इसके बावजूद विधेयक को विधानसभा की प्रवर समिति को भेजा जाना कई सवालों को जन्म देता है।
यहां एक और ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अभी प्रवर समिति का गठन भी नहीं हुआ है। आम तौर पर प्रवर समिति को ऐसे विधेयक भेजे जाते हैं, जिन पर सदन में विवाद की स्थिति हो, जिनमें कोई खामी सामने आ रही हो या फिर कोई सवाल उठ रहा हो। लोकायुक्त बिल की बात करें तो उसमें ऐसी कोई तकनीकी दिक्कत थी ही नहीं, बस विपक्ष की ओर से होने वाले विरोध का अंदेशा था। हालांकि सरकार का संख्याबल (58 भीमताल विधायक के समर्थन को जोड़कर) ही इतना ज्यादा है कि विपक्ष के विरोध की भी उसके सामने कोई हैसियत नहीं होती।
लेकिन आश्चर्यजनक यह रहा कि लोकायुक्त बिल पर विपक्षी कांग्रेस का भी सरकार को खुला समर्थन रहा। इसके बाद भी बिल पास नहीं हुआ तो फिर क्या यह माना जाए कि खुद सरकार ही नहीं चाहती थी कि विधेयक पास हो? दूसरा सवाल यह कि, यदि सरकार ही नहीं चाहती थी, तो फिर विधेयक सदन में पेश ही क्यों किया गया? क्या यह सब पूर्व नियोजित था कि विपक्ष लोकायुक्त और ट्रांसफर एक्ट का हल्का-फुल्का विरोध करेगा और सरकार इस आधार पर इन्हें प्रवर समिति को सौंप देगी, ताकि उसकी ‘साख’ भी बनी रहेगी और ये दोनों बिल लंबे समय के लिए टल भी जाएंगे? बहरहाल यदि यह सब पूर्व नियोजित था तो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
सरकार की मंशा पूरी तरह कटघरे में है, क्योंकि यह सीधे-सीधे जनभावनाओं के साथ छल है। सरकार से किसी ने नहीं कहा था कि वह इस बार ही लोकायुक्त और तबालदा एक्ट लेकर आए। पहले तो भाजपा के लिहाज से इन विधेयकों में किसी तरह की कमियां होनी नहीं चाहिए थी, क्योंकि ये दोनों विधेयक खंडूरी शासन में तैयार किए गए। इसके बावजूद यदि कोई कमी थी भी तो पहले उसे दुरुस्त किया जाना चाहिए था।
मगर लगता है भाजपा सिर्फ चुनावी मुद्दों पर ‘आई वाश’ करा रही है। बहरहाल सरकार की साख पर बड़ा सवाल है। सवाल उठना लाजमी भी है। खंडूरी शासन का लोकायुक्त भाजपा के चुनावी मुद्दों में प्रमुखता से रहा है। भाजपा ने इस मुद्दे पर खूब वाहवाही भी बटोरी है। इस लोकायुक्त बिल के बारे में प्रचारित यह है कि यह सबसे कड़ा बिल है, और मुख्यमंत्री का पद तक इसके दायरे में आएगा। हालांकि हकीकत यह है कि इसके लिए पांच सदस्यीय लोकायुक्त के सभी सदस्यों का एकमत होना अनिवार्य है, जो कि शायद ही कभी संभव हो। अभी बीते रोज तक मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र खुद यह प्रचारित कर रहे थे कि, इतना कड़ा लोकायुक्त है कि भ्रष्टाचार में घिरा कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकेगा, लोकायुक्त अधिकार संपन्न होगा और इसकी जांच समयबद्ध होगी। बहरहाल अब सरकार लोकायुक्त के मुद्दे पर खुद ही पीछे हट गई है। कारण जो भी हों लेकिन माना यही जा रहा है कि अभी ‘दिल्ली दरबार’ से ‘ग्रीन सिग्नल’ नहीं मिला है।