अप्रैल, 1942 में तत्कालीन जिला पंचायत, पौड़ी ने उनके कंडाली, रामबांस, पिरुल, भांग, भीमल आदि से कपड़ा बनाने की बनी थी कार्ययोजना
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बुधवार को आहूत मंत्रिमंडल की बैठक में सूबे के मुख्यमंत्री के साथ मंत्रिमंडल के सदस्य और मुख्य सचिव को कंडाली (बिच्छू घास) यानि सिसोंण से बनाई ‘जैकेट’ पहने नज़र आये जैकेट भी सुन्दर थी और नेताओं की मुस्कराहट भी सुन्दर थी लेकिन उत्तराखंड में किसने वर्ष 1930 में इसका उपयोग कर कपड़े बनाने का भगीरथ प्रयास किया यह जानने के लिए पढ़िए श्री अरुण कुकसाल जी का यह संस्मरण उन्ही के शब्दों में …..
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सन् 1952 में अमर सिंह रावत जी के खोजों की कार्ययोजना बना कर प्रधानमंत्री नेहरु के सामने की की थी प्रस्तुत
सीरौं गांव, पौड़ी (गढ़वाल) के पूर्वज महान अन्वेषक और उद्यमी अमर सिंह रावत 1930 से 1942 तक अपने गांव में ही कंडाली, पिरूल और रामबांस से व्यावसायिक स्तर पर कपडा बनाये करते थे। सन् 1940 में बम्बई (आज का मुम्बई) में रेशे से कपडा बनाने के कारोबार के लिए 1 लाख रुपये का अॉफर ठुकरा कर अपने गढवाल में ही स्व:रोजगार की अलख जगाना बेहतर समझा। परन्तु हमारे पहाड़ी समाज ने उनकी कदर न जानी।
ये गांव है सीरोैं। मेरे गांव चामी का बगलगीर। सीरौं, असवालस्यूं का सिरमौर गांव है। आबादी, खेती, पशुधन, भयात और जीवटता हर फील्ड में अव्वल और जीवन्त। प्रदेश भाजपा के शीर्षस्थ नेता तीरथ सिंह रावत जी इसी गांव के गौरव हैं।
पर बात आज अतीत की करें। आजादी से भी पहले की। उस दौर में उत्तराखण्ड में सामाजिक चेतना की अलख जगाने वालों में 3 अग्रणी व्यकि्तत्व इसी गांव से तालुक्क रखते थे। उद्ममीय अन्वेषक अमर सिंह रावत, आर्य समाज आन्दोलन के प्रेणेता जोध सिंह रावत एवं समाजशास्ञी डॉ। सौभाग्यवती। परन्तु आज मैं जीवन भर प्रयोगधर्मी/ नवाचार को समर्पित सीरौं गांव के अमर सिंह रावत जी के अमर प्रयासों की एक झलक आप तक पहुंचाता हूं।
अमर सिंह रावत जी का जन्म 13 जनवरी 1892 को पौड़ी (गढ़वाल) के असवालस्यूं पट्टी के सीरौं ग्राम में हुआ था। उन्होने कंडारपाणी, नैथाना तथा कांसखेत से प्रारम्भिक पढाई की। मिडिल में फेल होने के बाद स्कूली पढाई से उनका नाता टूट गया। परन्तु जीवन की व्यवहारिकता से जो सीखने- सिखाने का सिलसिला शुरू हुआ वह जीवन पर्यन्त चलता रहा। उनका पूरा जीवन यायावरी में रहा। उन्होने अपने जीवन में जीवकोपार्जन की गाड़ी सर्वे ऑफ़ इण्डिया, देहरादून में क्लर्की से प्रारम्भ की। नौकरी रास नहीं आयी तो रुडकी में टेलरिंग का काम सीखा और दर्जी की दुकान चलाने लगे।
विचार बदला तो नाहन (हिमांचल) में अध्यापक हो गये। वहां मन नहीं लगा दुगड्डा (कोटदा्र) में अध्यापकी करने लगे। वहां से लम्बी छलांग लगा कर लाहौर पहुंच कर आर्य समाजी हो गये। फिर कुछ महीनों बाद अपने मुल्क गढ़वाल आ गये और आर्य समाज के प्रचारक बन गांव-गांव घूमने लगे। इस बीच डी.ए.वी. स्कूल, दुगड्डा में प्रबंधकी भी की। संयोग से जोध सिंह नेगी (सूला गांव) जो कि उस समय टिहरी रियासत में भू बंदोबस्त अधिकारी के महत्वपू्र्ण पद पर कार्यरत थे से परिचय हुआ, फिर उन्हीं के साथ टिहरी रियासत के बंदोबस्त विभाग में कार्य करने लगे।
जोध सिंह नेगी जी ने पद छोडा तो उन्हीं के साथ वापस पौड़ी आ गये। जोध सिंह नेगी जी ने ‘गढ़वाल क्षञीय समिति’ के तहत ‘क्षञीय वीर’ समाचार पञ का प्रकाशन आरम्भ किया।अमर सिंह उनके मुख्य सहायक के रूप में कार्य करने लगे। मन-मयूर फिर नाचा और अमर सिंह जी कंराची चल दिये और आर्य समाज के प्रचारक बन वहीं घूमने लग गये। इस दौरान कोइटा (बलूचिस्तान) में भी प्रचारिकी की। लगभग 20 साल की घुम्मकड़ी के बाद ‘जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिर जहाज पर आयो’ कहावत को चरितार्थ करते हुए सन् 1926 में वापस अपने गांव सीरौं सदा के लिए आ गये।
अब शुरू होता उनका असल काम। सीरौं आकर रावत जी ग्रामीण जनजीवन की दिनचर्या को आसान बनाने और उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए नवीन प्रयोगों में जुट गये। विशेषकर स्व:रोजगार के लिए उनके अभिनव प्रयोग लोकप्रिय हुये। उन्होने अपने घर का नाम ‘स्वावलम्बन सदन’ रखा। नजदीकी गाँवों यथा – नाव, चामी, देदार, ऊंणियूं, रुउली, कंडार, किनगोड़ी के युवाओं के साथ मिलकर स्थानीय खेती, वन, खनिज एवं जल सम्पदा के बारे में लोकज्ञान, तकनीकी और उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया। उसके बाद इन संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए नवीन एवं सरल तकनीकी को ईजाद किया। श्री रावत ने नवीन खोज, प्रयोग एवं तकनीकी से अधिक सुविधायुक्त सूत कातने का चरखा, अनाज पीसने एवं कूटने की चक्की, पवन/हवाई चक्की, साबुन, वार्निश, इञ, सूती एवं ऊनी कपडे, रंग, कागज़, सीमेंट आदि का निर्माण किया। लोगों को इन उत्पादों को बनाना और इस्तेमाल करना सिखाया।
अमर सिंह रावत जी ने अपने आविष्कारों में इस विचार को प्रमुखता दी कि ग्रामीण जनजीवन के कार्य करने के तौर-तरींकों में सुधार लाया जाय तो इससे अाम आदमी के समय, मेहनत और धन को बचाया जा सकता है। महिलाओं के कार्य कष्टों को कम करने के दृष्टिगत उन्होने दो तरफ अनाज कूटने वाली गंजेली बनाई। यह गंजेली एक पांव से दबाने पर बारी-बारी से दोनों ओर की ओखली में भरे अनाज को आसानी से कूटती थी। अनाज पीसने के लिए ‘अमर चक्की’, जगमोहन चक्की’ और ‘हवाई चक्की’ बनाई। गांव की ऊंची धार पंचायत घर के पास उन्होने ‘पवन/हवाई चक्की’ को स्थापित किया। अनाज पीसने के लिए उनकी बनाई ‘हवाई/पवन चक्की’ का उपयोग कई गांवों के ग्रामीण किया करते थे। उन्होने सुरई के पौधे से वार्निश, विभिन्न झाडियों से प्राकृतिक रंग, खुशबूदार पौंधों से इञ और साबुन, वनस्पतियों से कागज बनाया। उन्होने मुलायम पत्थरों से सीमेंट बना कर कई घरों का निर्माण किया जिनके अवशेषों में आज भी मजबूती है।
रावत जी ने भीमल, भांग, कंडाली, सेमल, खगशा, मालू तथा चीड़ आदि की पत्तियों से ऊनी तागा और कपड़ा तैयार किया। चीड के पिरूल से ऊनी बास्कट (जैकेट) बनायी। जिसे वे और उनके साथी पहनते थे।पिरुल से बनी एक जैकिट उन्होंने जवाहर लाल नेहरु जी को भेंट की। इस बास्कट को उन्होने ‘जवाहर बास्कट’ नाम दिया। नेहरु ने इसे सराहा। नेहरू ने इस काम को आगे बड़ाने के लिए मदद का भरोसा दिलाया। सन् 1940 में नैनीताल में आयोजित राज्य स्तरीय प्रदर्शनी में अमर सिंह रावत जी ने अपनी टीम एवं उत्पादों के साथ भाग लिया। इस प्रदशनी में बम्बई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर चीनू भाई माधोलाल बैरोनत भी आये थे।
अमर सिंह जी के स्थानीय वनस्पतियों यथा- कंडाली, पिरुल, रामबांस से ऊनी और सूती कपड़ों के उत्पाद जैसे बास्कट, कमीज, टोपी, मफलर, कु्रता, दस्ताने, मोजे, जूते बनाने के फार्मूले और कार्ययोजना को उद्योगपति सर चीनू भाई ने 1 लाख रुपये में खरीदना चाहा अथवा अमर सिंह जी को बम्बई आकर उनके साथ साझेदारी में उद्यम लगाने की पेशकश की थी। रावत जी ने चीनू भाई को दो टूक जबाब दिया कि ‘यदि यह उद्योग चीनू भाई गढ़वाल में लगायें तो वे उनके साथ फ्री में काम करने को तैयार है’। रावत जी की मंशा यह थी कि इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। उद्योगपति चीनू भाई बम्बई में ही उद्यम लगाना चाहते थे। अत: बात नहीं बन पायी। उसके बाद रावत जी खुद ही अपने गांव के आस-पास उद्यम लगाने के प्रयास में लग गए।
उल्लेखनीय है कि अप्रैल, 1942 में तत्कालीन जिला पंचायत, पौड़ी ने उनके कंडाली, रामबांस, पिरुल, भांग, भीमल आदि से कपड़ा बनाने की कार्ययोजना के लिए 8 हजार रुपये का अनुदान मंजूर किया। यह तय हुआ कि पौड़ी गढ़वाल की कंडारस्यूं पट्टी के चौलूसैंण में अमर सिंह जी के सभी प्रयोगों को व्यावसायिक रूप देने के लिए यह उद्यम लगाया जायेगा। पर वाह ! रे हम पहाड़ियों की बदकिस्मती। दिन-रात की भागदौड़ की वजह से रावत जी तबियत बिगड गयी। कई दिनों तक बीमार रहने पर सतपुली के निकट बांघाट अस्पताल में 30 जुलाई 1942 को अमर सिंह जी का निधन हो गया। सारी योजनायें धरी की धरी रह गयी। उनके सपने उन्हीं के साथ सदा के लिए चुप हो गये।
अमर सिंह रावत की मृत्यु के बाद उनके परम मित्र और गढ़वाल के प्रथम लोकसभा सदस्य भक्त दर्शन जी ने सन् 1952 में अमर सिंह रावत जी के खोजों की कार्ययोजना बना कर प्रधानमंत्री नेहरु के सामने प्रस्तुत की। नेहरु जी ने सकारात्मक टिप्पणी के साथ संबधित अधिकारियों को फाइल भेजी। इस पर सरकार की ओर से कुछ सकारात्मक प्रयास भी हुये। पर बात आगे नहीं बढ़ पायी।
अमर सिंह रावत जी ने सन् 1926 से 1942 तक लगातार स्थानीय संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के लिए नवीन तकनीकी एवं उत्पादों का विकास किया। उनका घर नवाचारों की प्रयोगशाला थी। अपने आविष्कारों की व्यवहारिक सफलता के लिए उन्होने घर की जमा पूंजी तक खर्च कर डाली थी। उन्होने अपने आविष्कारों पर आधारित पुस्तक ‘पर्वतीय क्षेञों का ओद्योगिक विकास’ को तैयार किया। जिसे उनकी मृत्यु के बाद भक्त दर्शन जी ने प्रकाशित किया था। इस किताब में अपनी मार्मिक व्यथा को व्यक्त करते हुए उन्होने लिखा है कि ‘मैं जिन अवसरों को ढूंढ रहा था, वे भगवान ने मुझे प्रदान किये। परन्तु मैं कैसे उनका उपयोग करूं, यह समस्या मेरे सामने है। मेरी खोंजों को व्यवहारिक रूप देने के लिए यथोचित संसाधन नहीं है।अब तक इस पागलपन में मैं अपनी संपूर्ण आर्थिक शक्ति को खत्म कर चुका हूं। यहां तक कि स्ञी-बच्चों के लिए भी कुछ नहीं रखा है। अब केवल मेरा अपना शरीर बाकी है।
उद्यमी अमर सिंह रावत उन महानुभावों में है जिनको जमाना पहचान नहीं पाया। यदि उनकी खोजी योग्यता को मदद मिल जाती तो और ही बात होती। आज भी सीरों गाँव में उनके घर के आंगन में रावत जी का स्वम का बनाया सीमेंट उनके अदभुत प्रयासों की याद दिलाता है।
मूल बात यह है कि ये पहाड़ी समाज कब अपनों की कद्र करना सीखेगा ?
आप भी श्री अरुण कुकसाल जी से संपर्क कर सकते हैं
9412921293
arunkuksal@gmail.com
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