चरम मौसमी हालात ने कोविड-19 के प्रभाव को और गहरा कर दिया
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
जलवायु परिवर्तन की बेरहम कदमताल 2020 में भी जारी रही। यही वजह है कि यह साल अब तक के सबसे गर्म तीन वर्षों की सूची में शामिल होने जा रहा है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के मुताबिक 2011-2020 का दशक अब तक का सबसे गर्म दशक होगा, जिसमें छह सबसे गर्म सालों का सिलसिला वर्ष 2015 से शुरू हुआ।
‘स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट इन 2020’ पर डब्ल्यूएमओ की अनंतिम रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों का गर्म होना रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है और वर्ष 2020 में वैश्विक महासागरों का 80% से ज्यादा हिस्सा कुछ समय के लिए समुद्री ग्रीष्म लहर की चपेट में रहा। इससे उस समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत व्यापक दुष्प्रभाव पड़े जो पहले से ही कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण की वजह से अधिक अम्लीय पानी के कारण संकट के दौर से गुजर रहे हैं।
दर्जनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों तथा उनसे जुड़े विशेषज्ञों के योगदान से तैयार की गई यह रिपोर्ट हमें दिखाती है कि अत्यधिक तपिश, जंगलों की आग और बाढ़ जैसी व्यापक प्रभावकारी घटनाएं और रिकॉर्ड तोड़ अटलांटिक हरीकेन के कारण करोड़ों लोगों के जीवन पर बुरा असर पड़ा है। इससे कोविड-19 महामारी के कारण मानव स्वास्थ्य तथा सुरक्षा एवं आर्थिक स्थायित्व पर मंडरा रहे खतरे और बढ़ गए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के बावजूद ग्रीन हाउस गैसों के वातावरणीय संकेंद्रण के स्तरों का बढ़ना जारी है। इससे आने वाली अनेक पीढ़ियों को और भी ज्यादा गर्म माहौल में जीना पड़ेगा क्योंकि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी काफी लंबे समय तक रहती है।
डब्ल्यूएमओ के महासचिव प्रोफेसर पेटेरी टालस ने कहा “वर्ष 2020 में औसत वैश्विक तापमान में औद्योगिक क्रांति से पूर्व (1850-1900) के स्तर से 1.2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने जा रही है। पांच में से कम से कम एक मौका ऐसा होगा जब वर्ष 2024 तक वैश्विक तापमान में अस्थाई वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाएगी।”
उन्होंने कहा कि इस साल जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए पेरिस समझौते की पांचवी वर्षगांठ है। हम सरकारों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के हाल में लिए गए संकल्पों का स्वागत करते हैं, क्योंकि इस वक्त हम इस समझौते को जमीन पर उतारने के लिहाज से सही रास्ते पर नहीं हैं और हमें अधिक प्रयास करने की जरूरत है।
प्रोफेसर टालस ने कहा कि रिकॉर्ड किए गए गर्म साल आमतौर पर अल नीनो के मजबूत असर से जुड़े होते थे। जैसा कि हमने वर्ष 2016 में देखा लेकिन अब हम देख रहे हैं कि वैश्विक तापमान पर ठंडा प्रभाव डालने वाले ला नीना का असर भी इस साल गर्मी पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रहा है। ला नीना के मौजूदा प्रभाव के बावजूद यह साल वर्ष 2016 में दर्ज किए गए गर्मी के रिकॉर्ड के नजदीक पहुंच चुका है।
उन्होंने कहा ‘‘दुर्भाग्य से वर्ष 2020 हमारी जलवायु के लिए एक और असाधारण साल साबित हो रहा है। हमने धरती और समुद्र खासतौर पर आर्कटिक में तापमान वृद्धि के नए चरम देखे हैं। जंगलों की आग ने ऑस्ट्रेलिया, साइबेरिया और संयुक्त राष्ट्र के पश्चिमी तट और दक्षिण अमेरिका के बड़े इलाकों को अपनी चपेट में लिया है। इससे धुएं के ऐसे गुबार उठे हैं जिन्होंने धरती के अनेक हिस्सों को ढक लिया है। हम अटलांटिक महासागर में रिकॉर्ड संख्या में आए हरिकेन तूफानों के गवाह बने हैं। इनमें नवंबर में मध्य अमेरिका में अभूतपूर्व तरीके से एक के बाद एक आए कैटेगरी-4 के हरीकेन भी शामिल हैं। अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के हिस्सों में आई बाढ़ की वजह से बहुत बड़ी आबादी को मजबूरन दूसरे स्थानों पर पलायन करना पड़ा और इससे करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई।’’
भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के अनुसंधान निदेशक और महासागरों पर आईपीसीसी की एसेसमेंट रिपोर्ट के मुख्य लेखक डॉक्टर अंजल प्रकाश ने कहा कि ‘स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट’ की अनंतिम रिपोर्ट आईपीसीसी की एसआरसीसी रिपोर्ट में उभरे तथ्यों की फिर से पुष्टि करती है और वर्ष 2018 में अपने प्रकाशन के बाद से इससे संबंधित विज्ञान को अपडेट करती है। रिपोर्ट से पता चलता है कि महासागर और क्रायोस्फीयर, वैश्विक पारिस्थितिकी का एक महत्वपूर्ण घटक हैं। वे वैश्विक जलवायु और मौसम का नियमन करते हैं। महासागर धरती पर जीवन के लिए जरूरी बारिश और बर्फबारी का प्रमुख स्रोत हैं।
उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट के भारत के लोगों के लिए खास मायने हैं। भारत में एशिया की सातवीं सबसे लंबी तटीय रेखा है जो 7500 किलोमीटर लंबी है। भारत में नौ राज्य और दो केंद्र शासित प्रदेश समुद्र तट से सटे हैं, जिनकी कुल आबादी करीब 56 करोड़ है। भारत के तटीय क्षेत्रों में करीब 17 करोड़ 70 लाख लोग रहते हैं। वहीं, द्वीपीय इलाकों में 4 लाख 40 हजार लोग निवास करते हैं। इस रिपोर्ट के हिसाब से इस बड़ी आबादी पर ज्यादा खतरा मंडरा रहा है।
डॉक्टर प्रकाश ने कहा कि अब यह सवाल उठता है कि आखिर ऐसे में किया किया जाए। सबसे पहले तो हमें निर्माण के प्रति अपने रवैया को बदलना होगा। हमारा मूलभूत ढांचा जलवायु के अनुकूल होना चाहिए। हम इसे रूपांतरणकारी अनुकूलन कहते हैं। मौजूदा वक्त में योजना क्रियान्वयन और निगरानी की प्रक्रिया को जलवायु के अनुकूल बनाना चाहिए और सुव्यवस्थित आमूलचूल बदलाव भी जरूरी है।
वर्ष 2020 की स्टेट ऑफ ग्लोबल क्लाइमेट अनंतिम रिपोर्ट इस साल जनवरी से अक्टूबर के बीच लिए गए तापमान के आंकड़ों पर आधारित है। रिपोर्ट का अंतिम प्रारूप मार्च 2021 में प्रकाशित होगा। इस रिपोर्ट में नेशनल मेट्रोलॉजिकल एण्ड हाइड्रोलॉजिकल सर्विसेज, क्षेत्रीय तथा वैश्विक जलवायु केंद्रों और फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ यूनाइटेड नेशंस, इंटरनेशनल मोनेटरी फंड, इंटरगवर्नमेंटल ओशनोग्राफिक कमीशन ऑफ यूनेस्को, इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन, यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम, यूएन हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीस और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम समेत संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न साझेदारों द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाओं को शामिल किया गया है।
तापमान एवं गर्मी
जनवरी से अक्टूबर 2020 के बीच वैश्विक माध्य तापमान 1850-1920 बेसलाइन से 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया। इसे प्री इंडस्ट्रियल स्तरों के सन्निकटन (एप्रोक्सीमेशन) के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इस बात की आशंका काफी ज्यादा है कि वर्ष 2020 वैश्विक स्तर पर रिकॉर्ड किए गए अब तक के सबसे गर्म तीन सालों में शामिल हो जाएगा। तापमान दर्ज करने का आधुनिक काम वर्ष 1850 में शुरू हुआ था।
डब्ल्यूएचओ के आकलन पांच वैश्विक तापमान डाटा सेट्स (चित्र संख्या 1) पर आधारित हैं। यह सभी डेटा सेट इस वक्त वर्ष 2020 को अब तक के दूसरे सबसे गर्म साल के तौर पर सामने रखते हैं। वर्ष 2016 अब तक का सबसे गर्म साल रहा था जबकि 2019 तीसरे सबसे गर्म साल के तौर पर दर्ज किया गया है। इन तीन सबसे गर्म सालों के बीच तापमान का फर्क बहुत थोड़ा है। हालांकि जब समूचे साल का डाटा उपलब्ध होगा तब हर डाटा सेट की सटीक रैंकिंग में बदलाव हो सकता है।
सबसे ज्यादा गर्माहट उत्तरी एशिया, खासतौर पर साइबेरियन आर्कटिक में दर्ज की गई, जहां तापमान औसत के मुकाबले पांच डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा चढ़ गया। साइबेरिया में गर्मी का चरम जून के अंत में हुआ जब वेर्खोयांस्क का तापमान 20 जून को 38 डिग्री सेल्सियस हो गया। यह अनंतिम रूप से आर्कटिक सर्किल के उत्तरी इलाकों में किसी भी स्थान पर दर्ज किया गया सबसे ज्यादा तापमान था। यह पिछले 18 साल के डेटा रिकॉर्ड में जंगलों में आग लगने की सबसे सक्रिय परिघटना के लिए ईंधन साबित हुआ। जैसा कि आग लगने के कारण उठने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के लिहाज से अनुमान किया गया है।
समुद्री बर्फ
1980 के दशक के मध्य से कम से कम 2 बार ऐसा हुआ है जब आर्कटिक महासागर के तापमान में वैश्विक औसत के बराबर तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह से गर्मियों में आर्कटिक सागर पर जमी बर्फ की परत के पिघलने का लंबा दौर चला। इसका मध्य अक्षांश वाले क्षेत्रों की जलवायु पर असर पड़ा।
आर्कटिक सागर पर जमी बर्फ सितंबर माह में अपने सालाना न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई। यह 42 साल पुराने सेटेलाइट रिकॉर्ड में दूसरी सबसे बड़ी गिरावट थी। जुलाई और अक्टूबर 2020 में आर्कटिक सागर पर जमी बर्फ का क्षेत्र अब तक के न्यूनतम स्तर के रूप में दर्ज हो चुका है।
लैपटेक सागर पर जमी बर्फ वसंत, गर्मी और सर्दी के मौसम में अभूतपूर्व रूप से कम रही। जुलाई और अक्टूबर 2020 के बीच नॉर्दन सी रूट या तो बर्फ से बिल्कुल मुक्त था या फिर मुक्ति की कगार पर था।
वर्ष 2020 में अंटार्कटिक में जमी बर्फ 42 वर्षों के माध्य के लगभग बराबर या उससे कुछ ही ज्यादा थी।
वर्ष 2019 के मुकाबले कम रफ्तार होने के बावजूद ग्रीनलैंड में बर्फ पिघलने का सिलसिला जारी है और इस साल वहां 152 गीगा टन बर्फ पिघल गई।
समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी और महासागरों का तापमान
वर्ष 1960 से 2019 के बीच महासागर का तापमान (ओशन हीट कंटेंट) वर्ष 2019 में सबसे ज्यादा था। इससे हाल के दशकों में महासागरों द्वारा तेजी से गर्मी सूखने के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते संकेन्द्रण के परिणामस्वरूप जलवायु प्रणाली में जमा होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा का 90% से ज्यादा हिस्सा महासागर में जाता है।
वर्ष 1993 के शुरू से समुद्र के जलस्तर की ऊंचाई आधारित वैश्विक औसत दर 3.3+_0.3 मिलीमीटर प्रतिवर्ष रही है। समय के साथ इस दर में वृद्धि भी हुई है। हिम आवरणों से बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने से होने वाला नुकसान समुद्र के जलस्तर के वैश्विक माध्य में तेजी से बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण है।
वर्ष 2020 में दर्ज किया गया वैश्विक माध्य समुद्र जलस्तर 2019 में रिकॉर्ड किए गए स्तर के जैसा ही है और यह दीर्घकालिक रुख के अनुरूप है। ला नीना स्थितियों के विकास से वैश्विक समुद्र जल स्तर में हाल में मामूली गिरावट आई है, जैसा कि ला नीना की पिछली स्थितियों में अस्थाई रूप से आई थी।
धरती पर चलने वाले थपेड़ों की तरह भीषण गर्मी महासागरों की सतह के नजदीक वाली परत पर असर डाल सकती है। इसकी वजह से सामुद्रिक जीवन तथा उस पर निर्भर समुदायों पर विभिन्न तरह के दुष्प्रभाव पड़ सकते है। समुद्री हीटवेव्स पर निगरानी रखने के लिए सेटेलाइट के जरिए हासिल समुद्री सतह के तापमान की सूचनाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें साधारण, सशक्त, अत्यधिक या चरम की श्रेणियों में रखा जा सकता है। वर्ष 2020 में ज्यादातर महासागरों में किसी न किसी वक्त पर कम से कम एक बार सशक्त समुद्री हीटवेव को महसूस किया गया। इस साल जून से अक्टूबर के बीच लैपटेक सागर में चरम समुद्री हीटवेव महसूस की गई। इस क्षेत्र में समुद्र पर जमी बर्फ का दायरा आमतौर पर कम होता है और उससे सटे भू-भागों में गर्मी के मौसम में लू के थपेड़े महसूस किए गए।
महासागरों के पानी के अम्लीकरण में बढ़ोत्तरी हो रही है। मानव की गतिविधियों के कारण पैदा होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के सालाना उत्सर्जन का करीब 23% हिस्सा महासागरों द्वारा वातावरण से सोख लिया जाता है। इसकी वजह से धरती पर जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाले प्रभाव और बढ़ जाते हैं। महासागरों द्वारा इस प्रक्रिया के कारण चुकाई जाने वाली कीमत काफी ज्यादा है क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड समुद्र के पानी से प्रतिक्रिया करके उसके पीएच स्तर को गिरा देती है। इस प्रक्रिया को ही महासागर के अम्लीकरण के तौर पर जाना जाता है। आकलन के लिए उपलब्ध स्थलों पर वर्ष 2015 से 2019 के बीच पीएच स्तर में गिरावट देखी गई है हालांकि इस सिलसिले में पिछले साल के आंकड़े इस समय उपलब्ध नहीं हैं। अन्य चीजों के मापन समेत स्रोतों की व्यापक श्रंखला भी यह दिखाती है कि वैश्विक स्तर पर महासागरों के अम्लीकरण में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
अत्यधिक प्रभाव डालने वाली परिघटनाएं
पूर्वी अफ्रीका और साहील, दक्षिण एशिया, चीन और वियतनाम में करोड़ों लोग विनाशकारी बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। अफ्रीका में सूडान और केन्या पर सबसे बुरा असर पड़ा है। केन्या में जहां 285 लोगों की मौत हुई है वही सूडान में 155 लोगों ने अपनी जान गंवाई है।
दक्षिण एशियाई देशों में से भारत में 1994 से अब तक दूसरी बार मॉनसून में सबसे ज्यादा बारिश हुई है। पाकिस्तान में अगस्त सबसे ज्यादा वर्षा वाला महीना रहा। बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार समेत संपूर्ण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बाढ़ की घटनाएं हुई।
चीन में यांग्त्जे नदी के जल भरण क्षेत्रों में लगातार भारी वर्षा हुई जिसकी वजह से जबरदस्त बाढ़ आई। इस आपदा की वजह से 15 अरब डालर से ज्यादा का नुकसान हुआ और 279 लोगों की मौत हुई।
वियतनाम में उत्तर-पूर्वी मानसून की आमद के साथ हुई भारी बारिश में उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफान और विक्षोभ की वजह से और बढ़ोत्तरी हो गई। इस कारण पांच हफ्तों से भी कम समय में भूस्खलन की आठ घटनाएं हुईं।
तपिश, सूखा और आग
दक्षिण अमेरिका के अंदरूनी इलाकों में वर्ष 2020 में अनेक हिस्से भीषण सूखे की चपेट में रहे। इसकी वजह से उत्तरी अर्जेंटीना, पराग्वे और ब्राजील के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों पर सबसे बुरा असर पड़ा। अकेले ब्राजील में ही तीन अरब डॉलर से ज्यादा की फसलें नष्ट हो गईं।
अमेरिका में गर्मी के अंत और सर्दियों में जंगलों में आग लगने की सबसे बड़ी घटनाएं दर्ज की गयीं। बड़े पैमाने पर सूखा और भयंकर गर्मी की वजह से जंगलों में यह आग भड़की और जुलाई तथा सितंबर के बीच दक्षिण पश्चिमी इलाके सबसे ज्यादा गर्म और सूखे पाए गए।
कैरेबियाई इलाकों में अप्रैल और सितंबर में ग्रीष्म लहर का प्रमुख दौर रहा। गत 12 अप्रैल को क्यूबा के राष्ट्रीय रिकॉर्ड के मुताबिक वेग्वीटस में तापमान 39.7 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया है। वहीं हवाना में 38.5 डिग्री सेल्सियस के साथ अब तक का सबसे गर्म दिन रिकॉर्ड किया गया है।
ऑस्ट्रेलिया में 2020 के शुरू में गर्मी ने तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। यूरोप में सूखा और हीटवेव महसूस किया गया लेकिन उनमें 2019 जैसी तेजी नहीं थी।
उष्णकटिबंधीय चक्रवात एवं तूफान
वैश्विक स्तर पर वर्ष 2020 में उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफानों की संख्या सबसे ज्यादा रही। इस साल 17 नवंबर तक 96 चक्रवाती तूफान आ चुके थे। उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र इस लिहाज से अभूतपूर्व तरीके से काफी सक्रिय रहा। यहां 17 नवंबर तक 30 उष्णकटिबंधीय तूफान आए। यह संख्या दीर्घकालिक औसत (1981-2010) के दोगुने से ज्यादा थी। इसने वर्ष 2005 में एक पूर्ण सत्र में कायम किए गए रिकॉर्ड को तोड़ दिया। साइक्लोन अम्फन 20 मई को भारत-बांग्लादेश सीमा पर टकराया था। यह नॉर्थ इंडियन ओशन का अब तक का सबसे विनाशकारी तूफान रहा। इससे भारत को करीब 14 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। साथ ही भारत से बांग्लादेश के तटीय इलाकों में बड़े पैमाने पर लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित इलाकों में जाना पड़ा।
जोखिम और प्रभाव
वर्ष 2020 की पहली छमाही में करीब एक करोड़ लोगों को आपदाओं के चलते अपना घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा। ज्यादातर पलायन जल मौसम विज्ञान संबंधी आपदाओं के कारण हुआ। कोविड-19 महामारी के कारण लोगों के विस्थापन का खतरा और भी बढ़ गया है। मई के मध्य में फिलीपींस में 180000 से ज्यादा लोगों को उष्णकटिबंधीय तूफान वोंगफोंग से पहले एहतियातन अपना घर बार छोड़ना पड़ा। कोविड-19 महामारी के कारण सोशल डिस्टेंसिंग अपनाने की जरूरत के मद्देनजर बड़ी संख्या में लोगों को एक साथ सुरक्षित स्थानों पर ले जाना काफी मुश्किल था। इसके अलावा शरण स्थलों पर भी आधी क्षमता में ही लोगों को रखने की मजबूरी सामने आई।
एफपीओ और डब्ल्यूएफपी के मुताबिक वर्ष 2019 में पांच करोड़ से ज्यादा लोगों को जलवायु संबंधी आपदाओं और कोविड-19 महामारी की दोहरी मार झेलनी पड़ी। मध्य अमेरिका के देशों को हरीकेन एता, लोता और पहले से ही मौजूद मानवीय संकट की तिहरी मार सहन करनी पड़ रही है। होंडुरास सरकार के अनुमान के मुताबिक 53000 हेक्टेयर इलाके में बोई गई फसल पूरी तरह नष्ट हो गई है।
मिले सबक और जलवायु संरक्षण की गतिविधियां बढ़ाने के अवसर
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आईएमएफ के मुताबिक कोविड-19 महामारी के कारण पैदा हुई मौजूदा वैश्विक मंदी की वजह से प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी लाने की नीतियों को लागू करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। हालांकि इसके जरिए अर्थव्यवस्था को प्रदूषणमुक्त रास्तों के जरिए आगे बढ़ाने के अवसर भी सामने आए हैं। इसके लिए प्रदूषण मुक्त और सतत सार्वजनिक मूलभूत ढांचे में निवेश को बढ़ाना होगा। इससे क्षतिपूर्ति के दौर में भी जीडीपी और रोजगार को बढ़ाया जा सकता है।