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दिवाकर भट्ट की सम्मानजनक विदाई का यही है सही वक्त

पार्टी संरक्षक मंडल में हों शामिल, अध्यक्ष पद छोड़ें

13 साल में 4 बार दल बदले, जनता का विश्वास खोया

गुणानंद जखमोला 
वर्ष 2007 यूकेडी, 2012 भाजपा, 2017 निर्दलीय और अब उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष। 2007 में महज 22 लाख की संपत्ति और आज करोड़ों के व्यारे-न्यारे। 2007 में दिवाकर भट्ट टूटी कटोरी में दाल रोटी खाते थे लेकिन बाद में सत्ता की मलाई खाई तो सत्ता के ही हो गये, जनता के नहीं। यूकेडी सत्ता में कांग्रेस और भाजपा की गोदी में बैठी तो दल के कार्यकत्र्ताओं को क्या मिला? पहले भी यूकेडी फक्कड़ थी और आज भी। यूकेडी के नेताओं ने अपनी आर्थिक सेहत सुधारी लेकिन पार्टी की नहीं। आज एक विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने के लिए कम से कम 3 करोड़ रुपये चाहिए, लेकिन यूकेडी से टिकट लड़ने वाले नेताओं के पास दस लाख रुपये भी नहीं होते र्हैं। यदि पिछले 20 साल में यूकेडी ने जनता का विश्वास बनाए रखा होता तो आज उसे पाई-पाई के लिए मोहताज नहीं होना पड़ता। निसंदेह राज्य निर्माण में दिवाकर भट्ट और काशी सिंह ऐरी का अहम योगदान है लेकिन पार्टी को डुबाने में भी इन्हीं का हाथ है। इसमें कोई शक नहीं है।
आज राज्य की जनता भाजपा शासन से त्रस्त है। कांग्रेस मृतप्राय है, ऐसे में जनता फिर विकल्प देख रही है लेकिन जब जनता यूकेडी के नेतृत्व की ओर देखती है तो उन्हें दल के टाॅप नेता ही धोखेबाज और स्वार्थी नजर आते हैं। वो फिर यूकेडी की ओर पीठ कर देती है। अब यूकेडी में कुछ अच्छे और युवा लोग आ रहे हैं। मोहित डिमरी जैसे प्रतिभाशाली और धरातल पर काम करने वाले युवा। जिनकी जनता में भी पैठ है। ऐसे समय में दिवाकर भट्ट, त्रिवेंद्र पंवार जैसे वरिष्ठ आंदोलनकारियों को दल में संरक्षक मंडल में चले जाना चाहिए। वैसे भी दिवाकर भट्ट आज 74 वर्ष के हो चुके हैं और चुनाव के समय 76 साल के होंगे।
राज्य गठन के बाद 20 साल का राजनीतिक इतिहास देखिए। यूकेडी के ये नेता राजनीति के वो कालीदास साबित हुए हैं जो अपनी ही डाल पर कुल्हाड़ी चलाते रहे हैं। नेता तो सत्ता के साथ सांठगांठ में व्यस्त रहे और कार्यकत्र्ताओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। राज्य गठन से पहले भी कार्यकत्र्ता सड़कों पर थे और आज भी। दरअसल, यूकेडी को इसी पार्टी के नेताओं ने कभी राजनीतिक दल बनने ही नहीं दिया। यूकेडी की पहचान आंदोलनकारी दल की थी और आज भी है। इसलिए लाभ पार्टी को नहीं नेताओं को मिला। ओमगोपाल रावत और प्रीतम सिंह पंवार भी धोखेबाज नेताओं की श्रेणी में हैं जिन्होंने जनता के साथ ही नहीं पार्टी के साथ भी छल किया।
यूकेेडी यदि अब खत्म होने से बचना चाहिए है तो उसे नये सिरे से राजनीतिक ढंग से सोचना होगा। भावनात्मक सोच बदलनी होगी और कुछ सख्त कदम उठाने होंगे। साथ ही लचीलापन भी लाना होगा। जेब में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने की तर्ज पर 70 सीटों पर चुनाव लड़ने की बजाए गठबंधन और वैकल्पिक रणनीति बनानी होगी। दिवाकर भट्ट की इसमें अहम भूमिका हो सकती है कि वो अध्यक्ष पद से हट जाएं और बागडोर नये और युवा नेतृत्व को सौंप दें। खुद संरक्षक बन जाएं। जनता के बीच जाना होगा। जनता को उम्मीद जतानी होगी कि हम सत्ता के लिए उनके सपनों का सौदा नहीं करेंगे। तभी यूकेडी को लोग एक राजनीतिक दल के रूप में स्वीकार करेंगे। ऐसे में सही वक्त है कि दिवाकर भट्ट अब अपनी राजनीतिक लालसा को त्यागकर पार्टी हित में काम करें। यूकेडी 2022 विधानसभा चुनाव के बारे में सोच रही है तो दिवाकर भट्ट के लिए सही समय है कि वो अध्यक्ष पद त्याग दें और पार्टी का जनाधार बढ़ाने की दिशा में काम करें।
श्री गुणानंद जखमोला की फेसबुक वाल से साभार 

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