TRAVELOGUE
मेरी रुद्रनाथ यात्रा के संस्मरण : अरुण कुकसाल


‘ये मेरी भेंट है, भगवान रुद्रनाथ मंदिर में चढ़ा दीजियेगा। आपकी बातों में सफर का पता ही नहीं चला। जबाब में मैने तुरंत कहा ‘आपको देख कर तो ‘शोले’ फिल्म की बसंती याद आ गयी, बोलते आप रहे, हम तो ‘हूं-हां’ ही कर रहे थे।’ पर बात शुरू तो आप लोगों ने की थी, इसलिए बातें तो आपकी ही हुयी ना। मैं तो बातों को बस आगे बढ़ा रहा था। अच्छा भैजी (भाई) लोगों, वापसी की सवारी ढूंढता हूं अब, श्रीनगर, श्रीनगर, श्रीनगर…….’ये महाशय पाण्डे जी हैं। श्रीनगर से बतौर टैक्सी चालक कर्णप्रयाग इनके साथ पहुंचे। हम रास्ते भर समझाते रहे कि भाई, तुम सिर्फ गाड़ी चलाओ, उत्तराखण्ड में बांध, खनन, शराब, शिक्षा पर आपकी बातें फिर कभी इत्मीनान से सुन लेगें। पर पाण्डे जी टीवी के ‘आफिस-आफिस’ सीरियल’ वाले पाण्डे जी ही हैं, कहां मानने वाले। उनकी जीप में सवारी, छत मेें सामान और स्पीड बिना ब्रेक दबाये फुल है। इसके बाद भी उनकी बातें गाड़ी से भी आगे-आगे चल रही हैं। बिना हमारी टोका-टाकी के केवल उन्हीं की बातें आप तक संक्षेप में पहुंचाता हूं।
बातें फिर जीप की रफ्तार के साथ-साथ चलने लगी। पाण्डे ने अब बड़ी पते की बात कही कि ‘सरकार हम शराब, खनन और मास्टरों के लिए ही चुनते हैं क्या ? क्योंकि जब भी कोई नयी सरकार आती है, बस साल-छः महीने तो इन्हीं पर बात होती रहती है। पीछे की सीट पर बैठे सज्जन अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बोले कि भै साब गढ़वाली में एक पुरणि मसल चा ‘कि, रौंतों क बल्द लमड़िन, बल, अपणि खुशिल’। बात यह है कि हम ही लोगों ने अपनी खुशी से अपना नुकसान कराया। तब तो कहते थे कि ‘आज दो-अभी दो उत्तराखण्ड राज दो’। अच्छे खासे थे पहले। कहने को अपना राज है पर जब जनता के पास खाणें-कमाणे के लिए कुछ होगा नहीं तो क्या करना ऐसे राज का। राज क्या पहाड़ के शरीर पर खाज हो गया है। खुजाओ तो अच्छा लगता है, न खुजाओ तो बैचेनी, ठीक करने की दवा है नहीं किसी के पास’।
अब पहले पहुंचना है पुंग। ये कैसा नाम है भाई, पुंग, भूपेन्द्र मुस्कराता है। वहीं जाकर पता चलेगा। पर पुंगी तो बजने वाली ही हुयी। ऊपर चढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। अचानक कहीं पर 50 कदम सीधा चलने को मिल जाय तो भगवान रुद्रनाथ की ही कृपा है। गांव, खेत और छानियों को पीछा छोड़ते हुए निर्जन जंगल है। मन में हर समय इच्छा होती कि रुद्रनाथ से वापसी वाले यात्री मिल जाते तब उनसे पूछते कि भाई, आगे कितना दूर है और रास्ता कैसा है। पर ‘मन मांगी मुराद’ इतनी जल्दी कहां पूरी होती है। एक धार पर पहुंचे और यह सोचकर कि चलो, कुछ देर बैठा जाय, बैठ ही रहा था कि पता नहीं, कैसे अपनी पीठ का पिठ्ठू नीचे की ढ़लान पर लुड़कते हुए अलविदा वाली मुद्रा में आ गया है। पर ताजुब्ब यह कि हम तीनों पकड़ने के बजाय उसको घिरमिंडी/पलटी खाते हुए देखने का आनंद लेते रहे। लगा कि अब तो हाथ आने से रहा क्योंकि नीचे तो गहरी खाई और तीखा ढ़लान है। पर किस्मत का मैं धनी हूं कि एक छोटी सी झाड़ी ने पिठ्ठू को संभाल लिया। अब उसको तकरीबन 50 मीटर नीचे से लाने का जोखिम तो लेना ही था। साथी लोग ‘भाईसाहब संभलकर जाना’ कह तो रहे हैं, पर साथ में उनकी लगातार हंसी बता रही है कि अभी भी उन पर बैग लुड़कने का आनंद बरकरार है। बैग जहां अटका उससे नीचे देखना भी खतरे को दावत देना है, ये सोच कर दबे पांव वापस आया तो लगा कि जग जीत लिया। चलो, इस बहाने तीनों की थकान तो हल्की हुई। वरना फूली हुयी सांसों के साथ लगातार पैदल चढ़ाई चढ़ते हुए हंसी का आ जाना कम ही होता है।Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur.