TRAVELOGUE

मेरी रुद्रनाथ यात्रा के संस्मरण : अरुण कुकसाल

रुद्रनाथ यात्रा (1-3 सितम्बर, 2017) एक साथ

अरुण कुकसाल

‘ये मेरी भेंट है, भगवान रुद्रनाथ मंदिर में चढ़ा दीजियेगा। आपकी बातों में सफर का पता ही नहीं चला। जबाब में मैने तुरंत कहा ‘आपको देख कर तो ‘शोले’ फिल्म की बसंती याद आ गयी, बोलते आप रहे, हम तो ‘हूं-हां’ ही कर रहे थे।’ पर बात शुरू तो आप लोगों ने की थी, इसलिए बातें तो आपकी ही हुयी ना। मैं तो बातों को बस आगे बढ़ा रहा था। अच्छा भैजी (भाई) लोगों, वापसी की सवारी ढूंढता हूं अब, श्रीनगर, श्रीनगर, श्रीनगर…….’ये महाशय पाण्डे जी हैं। श्रीनगर से बतौर टैक्सी चालक कर्णप्रयाग इनके साथ पहुंचे। हम रास्ते भर समझाते रहे कि भाई, तुम सिर्फ गाड़ी चलाओ, उत्तराखण्ड में बांध, खनन, शराब, शिक्षा पर आपकी बातें फिर कभी इत्मीनान से सुन लेगें। पर पाण्डे जी टीवी के ‘आफिस-आफिस’ सीरियल’ वाले पाण्डे जी ही हैं, कहां मानने वाले। उनकी जीप में सवारी, छत मेें सामान और स्पीड बिना ब्रेक दबाये फुल है। इसके बाद भी उनकी बातें गाड़ी से भी आगे-आगे चल रही हैं। बिना हमारी टोका-टाकी के केवल उन्हीं की बातें आप तक संक्षेप में पहुंचाता हूं।

श्रीनगर से डुंगरीपंथ के आगे बढ़ते ही जीप चालक पाण्डे जी बोले ‘वो देखो, मेरा धारी गांव। श्रीनगर डैम बनाने वालों ने कहा था स्वीजरलैंड जैसा बनायेगा हम तुम्हारे गांव को। चारों ओर मेरिन ड्राइव होगा इसके। कुछ नहीं हुआ भै साब, उल्टा बाप-दादाओं की जमीन-जैजाद के साथ गांव का भाईचारा भी चला गया। जब श्रीनगर डैम बनने की बात शुरू हो रही थी तो हम बेफिक्र थे कि धारी गांव तक इसका असर नहीं होगा। लेकिन बाद में जब धारी मंदिर को उठाने की बाद हुयी तो खूब विरोध हुआ। देश-प्रदेश के बडे-बडे नेताओं को हमने सौगंध खाते देखा कि धारी मंदिर का कुछ नहीं होगा। बाद में ये सब कैसे मान गए, सबको मालूम है। कुछ बोलना अपना मुहं खराब करना है, भै साब। वो तो वर्ष 2013 में अलकनंदा नदी में भयंकर बाढ़ आयी तब हम चेते और हमें अपने गांव में आने वाले खतरे का अहसास हुआ। तब लड़-झगड़ कर बांध मुआवजे के लिए हमारे गांव का निचला हिस्सा डूब क्षेत्र में शामिल हो पाया। मजे की बात यह रही कि ज्यादातर नदी के किनारे गरीब-गुरब्बों की और जो गांव छोड़कर बाहर शहरों में बस गए थे उनकी हिस्से की जमीन थी। वही फैदा में रहे। जब तक डैम नहीं बना था तब तक कम्पनी खूब मेहरबान थी हम पर। 18 साल से ऊपर के लोगों को 3500 रुपया महीना बिना बात के मिलने लगा था। डैम बना कि सब पर ढक्कन लग गया। पर लोग तो कम्पनी से पैसा लेने के आदी हो चुके थे। बस, फिर नेताओं और अधिकारियों के आगे-पीछे घूमने लगे डैम प्रभावित गांवों के लोग। पर अब होना क्या था। कम्पनी का तो काम बन गया था। उनकी बला से आंदोलन होते रहे। ‘सब गवां के होश में आये तो क्या हुआ’ वाली बात है, साहब लोगों। जो प्रेम-भाव था वो भी गया। आज सब भाई-बिरादर एक दूसरे को शक की नजर देख रहे हैं कि न जाने दूसरे को कितना मुआवजा मिला होगा। पीढ़ियों से बाहर बस गये लोग भी महीनों मय बाल-बच्चों के यहां रहने आये। ताकि उनको अधिक से अधिक मुआवजा मिल सके। वैसे भैजी, एक बात बताऊं हम पहाड़ी लोग लुरु ही हैं, अपना गांव, खलिहान, मंदिर डुबा दिया एक कम्पनी के फैदा के लिए। सुना, कुमाऊं में पंचेश्वर डैम बनाने जा रही है, सरकार। हमको ले जाओ सहाब, वहां हम बताईगें कि भाई लोगों, सरकार और कम्पनी की बातों में मत फंसना। जैसी गत हमारी हुयी है श्रीनगर डैम बनने से वैसे ही तुम्हारी भी होगी। सरकार का क्या है वो तो शराब और खनन से पैसा कमा रही है। डैम से भी कमा लेगी। पर तुम्हारा और तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों का बुरा हाल होगा। पता नहीं कितने सौ साल लगे होगें भैजी एक गांव बसने में और हमने नगद पैसों के चक्कर में 3-4 साल में ही उसे डुबा दिया। ‘घत्त तेरे की’ गाड़ी ज्यादा झौंक क्यों खा रही होगी ? जरा देखता हूं, बस दो मिनट लगेगें। कुछ नहीं थोड़ा हवा कम है। रुद्रप्रयाग में भरवा लेगें।

जीप की पिछली सीट पर रुद्रप्रयाग के नजदीकी किसी प्राइमरी विद्यालय की शिक्षिका की झुंझलाहट ने सब्र तोड़ ही दिया। सुबह का स्कूल है और साढ़े सात यहीं पर हो गये हैं। उसके ऊपर स्कूल की भोजनमाता ने मोबाइल पर बताया कि कोई आये हैं स्कूल में। हाजरी रजिस्ट्रर मांग रहे हैं। अब आलमारी की चाभी तो मैड़म जी के ही पास है। मैड़म बड़बड़ायी कि किस्मत ही खराब थी कि इस गाड़ी में बैठी। अच्छी-खासी बस लगी थी स्टेशन में। वो भी आगे चल गयी, आज तो नौकरी गयी समझो। पाण्डे जी फिर कुछ बोलने को हुए कि मैडम जोर से बिफरी कि तुम चुपचाप गाड़ी चलाओ। मैडम के गुस्से से बाकी सवारी भी सहम से गये। आगे 10 मिनट बाद मैड़म उतरी तभी जीप का सन्नाटा टूटा। ‘तुम तो डर ही गये थे,’ भूपेन्द्र ने कहा तो पाण्डे बोला ‘डरना पड़ता है, भैजी, टीचर लोगों के वजह से ही तो पहाड़ में जीपें चल रहीं है हमारी। वरना कहां मिलती है रोज की सवारी। मैडम का गुस्सा भी ठीक ही हुआ। आज देर तो हो ही गयी उनको। न जाने क्या होगा आज उनका’। पाण्डे बोलते हुए मुस्कराता भी जा रहा है।

बातें फिर जीप की रफ्तार के साथ-साथ चलने लगी। पाण्डे ने अब बड़ी पते की बात कही कि ‘सरकार हम शराब, खनन और मास्टरों के लिए ही चुनते हैं क्या ? क्योंकि जब भी कोई नयी सरकार आती है, बस साल-छः महीने तो इन्हीं पर बात होती रहती है। पीछे की सीट पर बैठे सज्जन अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बोले कि भै साब गढ़वाली में एक पुरणि मसल चा ‘कि, रौंतों क बल्द लमड़िन, बल, अपणि खुशिल’। बात यह है कि हम ही लोगों ने अपनी खुशी से अपना नुकसान कराया। तब तो कहते थे कि ‘आज दो-अभी दो उत्तराखण्ड राज दो’। अच्छे खासे थे पहले। कहने को अपना राज है पर जब जनता के पास खाणें-कमाणे के लिए कुछ होगा नहीं तो क्या करना ऐसे राज का। राज क्या पहाड़ के शरीर पर खाज हो गया है। खुजाओ तो अच्छा लगता है, न खुजाओ तो बैचेनी, ठीक करने की दवा है नहीं किसी के पास’।

कर्णप्रयाग से गोपेश्वर पहुंचे तो ‘बारिश ने कहा मैं भी आती हूं तुम लोगों के साथ, रुद्रनाथ’। अब बारिश को ना आ कहने से तो कुछ होने वाला नहीं है, बस दुआ ही कर सकते हैं कि वह यहीं रुक जाय। जाने की जल्दी है, पर हम पहाड़ियों का पहाड़ीपन हुआ कि दिन में भात तो डटकर खाना ही है। गोपेश्वर से सगर टैक्सी से और उसके बाद पैदल यात्रा। नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत स्थित सगर की दूरी गोपेश्वर से 3 किमी. है। सगर में रुद्रनाथ जाने के लिए प्रवेश गेट सड़क से ही बना है। गेट के आस-पास दुकानें हैं। स्थानीय लोगों और रुद्रनाथ जाने वाले यात्रियों की जरूरतों का सामान उनमें है। सगर की बसावट से कुछ दूर पहुंचे तो आगे का रास्ता एकदम खल्लास नजर आया। यकीन हो गया कि हम रास्ता भटक गये हॅैं। आस-पास छानियों में जानवर तो बंधे हैं पर आदमी जैसा तो कोई दिखाई नहीं दे रहा। ‘कोई है, भाईसहाब’ की कई आवाजें लगायी पर कोई हो तो बोले। अपना बचपन में सीखा लम्बी सीटी बजाने का हुनर आजमाया, कई सीटियां मारी। ताजुब्ब है, भूपेन्द्र और सीताराम को तो सीटी बजानी आती ही नहीं हैं। कैसे पहाड़ी हैं, ये। पहाड़ी की मौलिक पहचान है कि उसे सीटी बजानी तो आती ही है। परन्तु इस समय तो अपना सीटी बजाने का मौलिक ज्ञान भी काम नहीं आया। छावनियों के अंदर-बाहर बंधे जानवरों ने भी पता नहीं क्या समझ के हमारी ओर ध्यान नहीं दिया। वे अपनी ही मस्ती में आराम फरमा रहे थे। वापसी की ओर मुड़ने को हुए तो कोई सज्जन कंधे पर सामान लिए इन छावनियों की ओर आते दिखाई दिये। ‘जान पर जान आयी’। वे पास आये तो बोले ‘वो सामने की धार वाला रास्ता रुद्रनाथ का है। आप इधर गलत मुड़ गये।’ लगा कि भाई नेपाली है, आदतन नाम पूछा तो ‘दीप चंद तिवारी’। नेपाली नाम तो दिल बहादुर/मन बहादुर…….. सुनते आ रहे हैं। ये नाम नया लगा। दीप चंद लगभग 15 साल से गढ़वाल में हैं, यहां रहते हुए 5 साल हो गये हैं। जानवरों का पालन-पोषण, सब्जी और खेती से वो जुडे़ हैं। परिवार नीचे सगर गांव में है। दीप चंद ज्यादा बात करने के मूड़ में नहीं है। ‘आपको देर हो जायेगी, बारिश भी है, इसलिए चलते बनो’ का भाव उसके चेहरे पर देखते हुए हम तीनों लौटे बुद्धुओं की तरह नीचे की ओर सरकने लगे।

रुद्रनाथ जाने वाले सही रास्ते पहुंचे तो खिसियाट के साथ झुंझलाहट भी थी। रास्ते की मुंडेर पर 2 बालिकायें रस्सी लिए बैठीं हैं। उनसे रुद्रनाथ जाने के लिए इस रास्ते को पूछकर पुख्ता किया। सृष्टि और आंकाक्षा हैं वो, कक्षा 6 एवं 7 की छात्रायें। स्कूल से आने के बाद घास लाने को आयीं हैं। पढाई के साथ घर-खेत के काम में हाथ बांटना उनकी रोज की दिनचर्या है। चलते-चलते पूछा, तो बोली कि ‘हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा हमारे घर के काम। वैसे ही आजकल घरवालों के लिए सुबह से देर शाम खेतीबाडी का टैम है।’ खड़ी चढ़ाई के रास्ते में दोनों ओर खेत और कहीं-कहीं मकान और छावनियां भी हैं। कुछ मकान खडंहर में तब्दील हैं। एक खडंहर हवेली दिखी, तो पास के खेत में काम कर रही बुर्जग महिला ने बताया कि ‘ये खूब पैसा वाले लोग थे, तब यहां रह कर उनको क्या करना था। बाहर देश चले गये। अब कोई नहीं आता उनका। पहाड़ में रहना तो हम गरीब-गुरबों के लिए है, कहां जाना हमने।’ पैसे वाले बाहर चले गये, जिसको अपनी पढाई के अनुरूप रोजगार नहीं मिला वो भी बाहर गये। जो इन दोनों से लाचार है, वही पहाड़ में रह रहा है। ऐसा है क्या ? मन ने सोचा तो दिमाग चालक है ‘बोला, चुपचाप चढ़ाई चढ़ो इस समय। सोचों मत वरना और थक जाओगे। ये तो किन्हीं बड़ी गोष्ठी और संगोष्ठी में सोचने और बोलने की बातें हैं।’

यात्रा की पहली धार पर पहुंचे। चांदकोट जगह है यह। पौड़ी गढ़वाल के चैंदकोट की याद आ गयी। गजेन्द्र सिंह नेगी जी यहां पर आथित्य के लिए मौजूद हैं। चाय, बिस्कुट, मैगी से लेकर दाल-भात और तकरीबन 20 लोगों के रात रुकने का इंतजाम है, उनके पास। बस कहने की देर है। निखालिष दूध की बनी चाय को देते हुए गजेन्द्र आगे के रास्ते के बारे में बता रहें हैं। उनका कहना है कि बारिश बंद हो गयी है, इसलिए हम लोग चाल में थोड़ी तेजी लायें तो यहां से 7 किमी. दूर मोलिखर्क रात्रिविश्राम के लिए पहुंच सकते हैं। उनके गांव के ही प्रेम सिंह बिष्ट 2 महिला यात्रियों के साथ आधा घण्टा पहले यहां से गये हैं। उन्हें भी आज मोलिखर्क पहुंचना है। प्रेम सिंह बिष्ट की मोलिखर्क में छानी है, वहां हमारे रात्रि रुकने-खाने की बढ़िया व्यवस्था हो जायेगी। हमारी सहमति पर गजेन्द्र तुरंत मोबाइल से बिष्ट से बात करके उसे सलाह देते हैं कि वो पुंग में हमारा इंतजार करे, ताकि हम उन्हीं के साथ मोलिखर्क चल सकें।’ गजेन्द्र बताते हैं कि ‘पुंग से मोलिखर्क 4 किमी. है। एकदम खड़ी चढ़ाई के साथ घनघोर जंगल का रास्ता है। आपको पुंग के थोड़ा आगे ही रात हो जायेगी। और रात को जंगली जानवरों का तो डर हुआ ही। प्रेम सिंह के साथ रहने से आप बिल्कुल सुरक्षित और समय पर मोलिखर्क पहुंच जायेगें।’ गजेन्द्र की व्यावसायिक कुशलता हमारे लिए राहत लेकर आयी। मोबाइल की महत्ता और व्यावसायिक उपयोगिता के भी दीदार हो गये। लम्बी दूरी की पैदल यात्रा में रात के खाने और रहने का पक्का इंतजाम हो जाना माने आधी थकान गायब। गजेन्द्र के पास बेचने को रिंगाल से बनी टोकरी, डालिया और कई तरह की शोपीस हैं। पहाड़ी अनाज और मसाले भी हैं, पर कम मात्रा में। उनका कहना है औसतन 40-50 व्यक्ति प्रतिदिन रुद्रनाथ के लिए जाते हैं। मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर में यात्रियों की जबरदस्त भीड़ रहती है। ज्यादातर वापसी वाले यात्री ही रात्रि विश्राम के लिए उनके पास रुकते हैं। गजेन्द्र बताते हैं कि प्रतिवर्ष मई से अक्टूबर माह तक चलने वाले सीजन में वे 45-50 हजार रुपये तो बचा ही लेत हैं।

अब पहले पहुंचना है पुंग। ये कैसा नाम है भाई, पुंग, भूपेन्द्र मुस्कराता है। वहीं जाकर पता चलेगा। पर पुंगी तो बजने वाली ही हुयी। ऊपर चढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। अचानक कहीं पर 50 कदम सीधा चलने को मिल जाय तो भगवान रुद्रनाथ की ही कृपा है। गांव, खेत और छानियों को पीछा छोड़ते हुए निर्जन जंगल है। मन में हर समय इच्छा होती कि रुद्रनाथ से वापसी वाले यात्री मिल जाते तब उनसे पूछते कि भाई, आगे कितना दूर है और रास्ता कैसा है। पर ‘मन मांगी मुराद’ इतनी जल्दी कहां पूरी होती है। एक धार पर पहुंचे और यह सोचकर कि चलो, कुछ देर बैठा जाय, बैठ ही रहा था कि पता नहीं, कैसे अपनी पीठ का पिठ्ठू नीचे की ढ़लान पर लुड़कते हुए अलविदा वाली मुद्रा में आ गया है। पर ताजुब्ब यह कि हम तीनों पकड़ने के बजाय उसको घिरमिंडी/पलटी खाते हुए देखने का आनंद लेते रहे। लगा कि अब तो हाथ आने से रहा क्योंकि नीचे तो गहरी खाई और तीखा ढ़लान है। पर किस्मत का मैं धनी हूं कि एक छोटी सी झाड़ी ने पिठ्ठू को संभाल लिया। अब उसको तकरीबन 50 मीटर नीचे से लाने का जोखिम तो लेना ही था। साथी लोग ‘भाईसाहब संभलकर जाना’ कह तो रहे हैं, पर साथ में उनकी लगातार हंसी बता रही है कि अभी भी उन पर बैग लुड़कने का आनंद बरकरार है। बैग जहां अटका उससे नीचे देखना भी खतरे को दावत देना है, ये सोच कर दबे पांव वापस आया तो लगा कि जग जीत लिया। चलो, इस बहाने तीनों की थकान तो हल्की हुई। वरना फूली हुयी सांसों के साथ लगातार पैदल चढ़ाई चढ़ते हुए हंसी का आ जाना कम ही होता है।

पुंग पहुंचे तो एक बड़ा मखमली खूबसूरत मैदान नजर आया। चारों ओर से जंगल से घिरा। बायें ओर के पर्वत शिखर मेें जहां जगंल नहीं हैं वहां 4 झरने अपनी भव्य उपस्थिति दे रहे हैं। दायें ओर का पहाड़ घने जगंल से घिरा है। हमें उसी ओर जाना है। पुंग में दो छानियां हैं, जो आजकल यात्रियों के खाने-पीने और रहने के काम आ रहे हैं। रुद्रनाथ से वापस 10-12 यात्रियों की चहल-पहल भी है, जो रात को यहीं रुकेंगे। प्रेम सिंह के बारे में पूछते हैं तो पता लगा ‘प्रेम सिंह तो अपनी महिला साथियों के साथ प्रेम से आगे चले गये हैं। उनका यह संदेशा भी कि वे धीरे-धीरे चल रहे हैं, इसलिए आप लोगों से रास्ते में मुलाकात हो ही जायेगी।’ पूछा, किधर को है मोलिखर्क। पुंग वाले छोटे कद के सज्जन अपनी मुंडी को जितना ऊपर उठा सकते हैं, करके बोले ‘मोलिखर्क वो सामने वाली चोटी से थोड़ा और आगे है। यहां से 4 किमी. है।’ शरीर में हिर्र-हिर्र तो हो ही गयी हमारी। पर चलना तो है ही। क्योंकि पुंग में तो रहने की व्यवस्था फुल हो गयी है। कुछ और यात्रियों ने पहले से ही बुक कराया है। सीताराम सामने वाले सज्जन से पूछते हैं कि ‘इस जगह का नाम पुंग कैसे पड़ा।’ ‘पता नहीं जी पुराने लोग कहते आ रहे हैं’, वो बोले। ‘अब बोलना क्या है यहां आकर महसूस ही हो गया कि इसे पुंग क्यों कहते हैं,’ भूपेन्द्र मुस्कराया।

पुंग की छाानियों से काफी दूर तक समतल घास के ढ़लान हैं। लगातार बारिश और लोगों के आने-जाने से रास्ते में फिसलन है। अब तक थमी बारिश फिर शुरू हो गयी है। पुंग के आखिरी कोने से एकदम खड़ी चढ़ाई है। बांझ-बुरांश के जंगल का घनापन और गहराने लगा है। समय का तकाजा है कि हम अपनी चाल मेेें तेजी लायें। तभी अंधेरा होने से पहले मोलिखर्क पहुंच पायेंगे। पर लगातार चढ़ाई और बारिश के साथ ऐसी हालत में तेज चलने की भी एक सीमा होती है। शाम की घुधंलाहट भी तेजी से बढ़ रही है। एक ही घार से लगातार कैंचीनुमा चढ़ाई का रास्ता, बारिश की किच-पिच और दोनों ओर बद-बद तेजी से बहते गधेरों (छोटी नदी) के शोर ने शरीर की बोझिलता बढ़ाई है। परन्तु ‘रुक जाना नहीं तू कहीं हार के’ का मंत्र इस समय हमारे मन-मस्तिष्क में है। चलते-चलते नीचे निगाह जाती है तो पुंग गोल कटोरेनुमा नजर आता है। परन्तु हमारे ऊपर की धार का अता-पता नहीं है। हमें लग रहा है कि अगले हर मोड़ के बाद मोलिखर्क के दर्शन हो ही जायेंगे। पर ऐसा न होकर नये मोड़ के बाद तुरन्त आगे का नया मोड़ नजर आ जाता है। भूपेन्द्र का कहना है कि यहां के किमी. लम्बे तो नहीं है। वरना 4 किमी. तो इतना ज्यादा नहीं होता है। अब तुम कुछ भी सोचो लेकिन मोलिखर्क तो अपनी निर्धारित दूरी पर ही आयेगा।

बारिश के मौसम में जाती हुयी शाम के बाद अंधेरा तुरंत होने लगता है। वैसे भी ऊंचे पहाड़ों में रात और सुबह दोनों बहुत तेजी से होते हैं। इसका अंदेशा साथियों को बताया तो तय हुआ अब तो मोलिखर्क में पहुंच कर ही दम लेगें। हमसे आधे घंटे पहले पुंग से जाने वाले प्रेम सिंह का कहीं अता-पता नहीं है। सीताराम ‘औ ! प्रेम सिंह, औ ! प्रेम सिंह की जोर से आवाज लगाने के बाद ‘प्रेमू भैजी, प्रेमू भैजी तक की धै लगाने में है।’ पर वो नजदीक कहीं हो तो प्रत्युत्तर दे पाये। उसका तो जाना-पहचाना रास्ता हुआ। सरपट चल दिया होगा। आप सीटी बजाओ, नीचे सगर के रास्ते में तो आपकी सीटी काम नहीं आयी, क्या पता यहां जगंल में काम आ जाय। प्रेम सिंह सुन लेगा तो हमें आवाज जरूर देगा। कुछ तो राहत मिलेगी। भूपेन्द्र का सुझाव है। बजाने को जैसे ही तैयार हुआ कि मुझे अभी कुछ दिन पहले विख्यात शिकारी एवं मित्र लखपत सिंह रावत की कही बात तुरंत याद आयी कि ‘घने जंगल में जाते हुए कभी भी ऊंची आवाज नहीं लगानी चाहिए। जितना हो सके चुपचाप चलते जाओ। आवाज लगा कर हम किसी भी जंगली जानवर को अपनी स्थिति और उससे अपनी दूरी को बताने और समझने का मौका देते हैं। जिससे वह अटैक करने की अनुकूल स्थिति बना लेता है।’ और यह वक्त तो रात का है, थोड़ी भी आवाज करना इस समय खतरे को और संगीन करना हुआ। साथियोें ने यह बात मानी। अब मोबाइल टार्च की रोषनी में हम चुपचाप आगे बढ़ रहे हैं।
चढ़ाई और मोड़ का अंत होते तो दिखता नहीं है। पर रास्ते के ऊपरी ओर की गुर्राहट और छिड-बि़ड़ाहट जब बिल्कुल पास और तेज होने को हुयी तो हम तीनों जड़वत हो गये हैं। रास्ते के पहाड़ वाले हिस्से से एकसाथ चिपक ही गये समझो। कम्बख्त, मोबाइल की टार्च भी जल्दी बंद नहीं हो रही है। ये तो निश्चित है कि कोई बड़ा जानवर उसी ओर है, जिस रास्ते हमें जाना है। बाघ की ही गुर्राहट है। छिड़-बड़ाहट कई जगहों से आ रही है। यकीकन, बाघ एवं बाघिन जी सःपरिवार गश्त पर हैं। बहुत तेज बघ्याण (बाघ से आने वाली गंध) आ रहीे है। मैं अपने अनुभव और ज्ञान को जाहिर करने लिए बताना चाह रहा था कि यह बघ्याण है। पर आवाज हो तो बोल पांऊ। उल्टा गले में आयी बात को वहीं दफ्न करने की कोशिश में खांसी जो होने को हो रही है। टोपमार कर (घुटनों के अंदर तक मुंह छिपाना) तीनों ऐसे बुत्त बने हैं कि जैसे बाघ नहीं देखेगें तो वह हमें नहीं खायेंगे। कौन समझाये कि, हमको देखना भी बाघ परिवार को ही है और जो भी करना उन्हीं को करना है। हमको तो बस होना है। पुंग वाले भाई ने बताया था कि इधर जंगली जानवर शाम के वक्त रास्तों के आस-पास ही रहते हैं। यदि छेड़ा न जाय और बिल्कुल पास न हो तो वे आदमियों पर अमूमन हमला नहीं करते। पर यहां तो जान पर जान बन आयी है। अब तो हमारे इष्ट देवी-देवता ही रक्षा कर सकते हैं। अपने बैगों को आगे की ओर ये सोच किया कि जैसे, इसी से बचाव हो जायेगा हमारा। लगभग 15 मिनट हो गये हैं। बाघ की आवाज अब सामने की ओर से घीरे-धीरे दूर जाती लग रही है। सांस पर सांस आयी, अब तक तो सांसों की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही थी।

आगे चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। अब अंधेरे गीले रास्ते में तेजी से पड़ते हमारे कदमों की चप-चप आवाज ही साथ चल रही है। बोलती तो हमारी बाघ की गुुर्राहट से कब की बंद हो चुकी है। ‘डर के आगे जीत है’, भूपेन्द्र ने धीरे से बोला। सीताराम ने तुरंत जोर से लगभग चिल्लाकर प्रत्युत्तर दिया ‘भुला, जीत नहीं रास्ते में पालतू जानवरों का गोबर ही गोबर पड़ा है और इसका मतलब है कि हम बस्ती के आस-पास पहुंच चुके हैं’। अचानक रास्ते के दायें-बायें से घंटियों की घीमी आवाज के साथ चमकती हुयी कई स्थिर आखें नजर आयी। सब हमें ही देख रही हैं। ‘अयं ! अब ये क्या’, भूपेन्द्र बड़बड़ाया। तुरंत अदांजा लग गया कि ये पालतू जानवर हैं। डर काहे का। भैंस, गाय, बैल और खच्चरों का मिला-जुला समूह अपनी-अपनी जुगाली में मस्त है। अब तो बाघ से बचकर शेर जैसी हिम्मत हममें आ गयी है। भूपेन्द्र मजाक में जानवरों की ओर इशारा करके कहता है कि ‘कितना और दूर है मोलिखर्क’। ‘अरे, पूछना क्या है, पालतू जानवर दिख गये इसका मतलब है कि मोलिखर्क बिल्कुल पास ही है।’ सीताराम का इस पर जबाब है। और सच में एक मोड़ ऊपर जाने के बाद सामने की जलती लाइट ने मोलिखर्क होने का संदेश हमें दे ही दिया है।
मोलिखर्क ठीक 8 बजे रात पहुंचे है। प्रेम सिंह को आये 1 घंटा हो गया है। प्रेम सिंह का कहना है कि ‘वो लोग धीरे-धीरे आये हैं। हम ही लोगों ने देर कर दी।’ बाघ की बात बताई तो कहने लगा ‘वो हम रोज ही देखते हैं। डरने की कोई बात नहीं।’ आपके लिए कोई बात नहीं होगी, पर भाई, हमारी तो पूरी जीवन कहानी ही खत्म हो गयी थी। प्रेम सिंह के इस छानी से रेस्टहाउस बनी जगह में तीन पार्टीशन हैं। किनारे वाले में रुद्रनाथ से वापस आने वाले यात्री बेसुध सोये पड़े हैं। बीच वाले में हम हैं। उसके बगल के भाग मेें चूल्हे पास प्रेम सिंह के साथ आयी महिलायें खाना बना रही हैं। वे उसी के परिवार की हैं और कल उन्हें भी रुद्रनाथ जाना है। प्रेम सिंह बताते हैं कि मोलिखर्क में वे पुश्तैनी रूप में छानी बना कर हर साल 8 महीने रहते हैं। खर्क मुख्यतया पानी के निकट वाले वे क्षेत्र होते हैं जहां से जंगल में चरने के लिए छोड़े गये जानवरों की देखभाल की जाती है। मई से अक्टूबर तक रुद्रनाथ जाने-आने वाले यात्रियों के लिए इस छानी का उपयोग व्यावसायिक स्तर पर किया जाता है।

2 सितम्बर, 2017
सुबह के 7 बजे हैं और मोलिखर्क में बारिश की रुण-झुण जारी है। परन्तु मेरे लिए बेहद खुशी की बात ये है कि वर्षों बाद रात को फसोरकर (बेसुध) बचपन वाली नींद आयी। वो ऐसे कि, प्रेम सिहं की टीन वाली छत की छानी में रात को ठीक सोते वक्त 50 साल पहले अपने जोशीमठ वाले घर की याद जो आ गयी थी। तब जोशीमठ में ज्यादातर घर टीन की छत के हुआ करते थे। उस दौर में जोशीमठ में साल भर खूब लम्बी-लम्बी बारिशें हुआ करती थी। कई दिनों और रातों तक झूड़ी (लगातार धीमी गति की बारिश) लगी रहती थी। घरों की टीन की छत पर पड़ने वाली बारिश की एकसार दणमण-दणमण संगीतमय आवाज में सोने के हम बच्चे आदी हुआ करते थे। जिस रात बारिश नहीं होती थी, उसकी टीन की छत पर पड़ने वाली आवाज के बिना नींद भी अच्छी नहीं आती थी। कल रात अवचेतन मन में छुपी उस आदत को सजीव होने का मौका जो मिल गया था। खैर, ये तो बीते जमाने की बात है। इस समय का मूल प्रश्न यह है कि मोलिखर्क से पनार 3 किमी. और वहां से रुद्रनाथ 7 किमी. है। याने मोलिखर्क से 10 किमी. हुआ रुद्रनाथ। तय हुआ कि रुद्रनाथ दर्शन करके वापस यहीं मोलीखर्क आ जायेंगे। कल 8 किमी. चले थे, आज जाना-आना 20 किमी. है। है तो मुश्किल पर आज पीठ पर समान नहीं होगा और दिन पूरा है। ‘दिक्कत क्या है, बस मौसम का मोशन ठीक हो जाना चाहिए’ भूपेन्द्र का आज का यह पहला वक्तव्य है। पनार से आगे पित्रधार तक 4 किमी. की चढ़ाई और उसके बाद 6 किमी. की हल्की चढ़ाई वाला ठीक-ठाक रास्ता है। प्रेमसिंह की परिजन महिलायें हमारी गाइड़ हैं क्योंकि उनका रुद्रनाथ लगभग हर साल जाना होता है। अब साथ चलने वाले ‘हम पांच’ हैं। हमारी यात्रा की नयी साथी फागुनी देवी और देवेश्वरी देवी का जाना-पहचाना इलाका है। मोलिखर्क से चलने से पहले अपनी छानी के ठीक सामने परिवार के इष्टदेवता ‘बूढ़देवा’ के मंदिर में उन्होने पूजा-अर्चना की है। पत्थरों को बस समेट कर उसके अंदर ‘बूढ़देवा’ को प्रतिष्ठापित किया गया है। देवेश्वरी बताती हैं कि ‘जंगल में जहां भी खर्क में छानी बनती है वहां सबसे पहले ‘बूढ़देवा’ का मंदिर स्थापित किया जाता है। ‘बूढ़देवा’ प्रेत-आत्माओं से रक्षा करने वाले और धन्य-धान्य के देवता हैं। हमारे पशु उन्हीं की कृपा से यहां सुरक्षित और स्वस्थ रहते हैं।’

मोलिखर्क के ऊपरी जंगल से गुजरते हुए पचासों पालतू जानवरों की घंटियों की आवाज से लग ही नहीं रहा है कि हम किसी वीरान जंगल से गुजर रहे हैं। नीचे की ओर अपने दो खच्चरों के साथ आते व्यक्ति ने फागुनी को बताया कि उसके खच्चर पनार के जंगल में 2 महीने बाद आज मिल पाये हैं। ऐसा अक्सर होता है, लोगों के जानवर चरते-चरते अनजान जगह चले जाते हैं, फिर उनको खोजने में महीने भी लग जाते हैं। फागुनी बताती हैं कि ‘इस पूरे इलाके में घर के जो जानवर खेती-बाड़ी या फिर दूध देने से छूटते हैं तो उन सबको जंगलों में हांक दिया जाता है। हमारे पालतू पशु इस पूरे इलाके से परिचित हैं, इसलिए उनकी विशेष निगरानी नहीं करनी होती है। सामान्यतया जंगली जानवर उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। वे एक-दूसरे को भली-भांति जानते जो हैं। जब भी खेती-बाड़ी या अन्य के लिए हमें अपने जानवरों की जरूरत होती है तो उन्हें जंगल से घर ला जाते हैं।’ लगभग 2 किमी. चलने के बाद ल्वींटी खर्क जगह में चाय पीने रुके। चारों ओर से रिगांल और तिमूर के जंगल से घिरे क्वींटी में चार छानियां है, जिनके आस-पास भेड़-बकरियों की लम्बी कतारें हैं। घोडे-खच्चर भी हैं। पूछा ‘ल्वींटी’ नाम क्यों है। चाय वाले भाई का हाजिर जबाब मिला कि ‘साहब ‘ल्वीं’ का तो पता नहीं पर ‘टी’ यहां सभी यात्री पीते हैं। इसीलिए ल्वींटी नाम पड़ा होगा इस जगह का।’

मोलिखर्क से ल्वींटी तक तो रास्ता लंदा-लंदा (हल्की चढ़ाई वाला) है। ल्वींटी के बाद एकदम खड़ी चढ़ाई और फिर घार ही घार का रास्ता है। घीरे-धीरे जंगलों का घनापन और पेडों की ऊंचाई भी कमत्तर होती जा रही है। जंगलों के बीच-बीच में हरी घास के छोटे-छोटे ढ़लवा मैदान हैं। उनमें जंगलों की ओर छोड़े गये पचासों पालतू जानवर (घोडे़-खच्चर, गाय-बैल) मजे से चर रहे हैं। अपने आदिमजात मालिकों की हुकूमत से दूर प्रकृत्ति एवं अपने हमजात साथियों के साथ स्वछंद सहचरी का उनका यह स्वर्णिम समय है। भेड़-बकरियां भी हैं पर वे चलताऊ रास्ते के आस-पास ही हैं। उनकी देखरेख के लिए तीन-चार झबरा कुत्ते भेड-बकरियों के चारों ओर कहीं दुबके पड़े होगें। आखें चाहे उनकी बंद होगी पर अपनी ड्यूटी पर चैकस और चौकन्नें होंगे। मजाल क्या है कि कोई उनके मालिक की भेड़-बकरियों पर हमला तो क्या उनको बेवजह छेड़ ही दे। मोनाल पक्षी अपनी लचकती स्वाभाविक चाल में सामने पानी के पास बेखौफ टहल रहा है। एक बात समझ में नहीं आती कि मोनाल अक्सर अकेला ही क्यों दिखाई देता है। रवीन्द्र नाथ टैगोर जी की ‘एकला चलो रे’ की नीति का पक्का अनुयायी लगता है, मोनाल। दूसरी ओर जंगली मुर्गियां झुंड के झुंड में तीसरे-चौथे मोड़ों पर आपस में चहकती और दौड़ती ऐसे नजर आ रही हैं कि बस बैठने की कहां फुरसत, ढ़ेरों काम जो करने हैं उन्हें आज। हमारे लिए तो ये जंगल है और उनके लिए घनी बस्ती का डेरा है। भूपेन्द्र का कहना है कि ‘आप इन्हें मुर्गियां ही क्यों कह रहे हो, मुर्गे भी तो होंगे इनमें।’ अब इसको क्या जबाब दूं ?

पहाड़ की धार पर पनार (समुद्रतल से 11 हजार फीट ऊंचाई) के पास पहुंचे तो लगा एक नयी दुनिया के द्वार खुल रहे हैं। नीचे की ओर सफेद बादलों का लहराता समुद्र तो आसमान में दौड़ते बादलों की आवाजाही और बीच में जहां तक नजर जाती हरा-भरा पनार बुग्याल (ऐल्पाइन मेडोज) है। पहाड़ के एक छोर पर हल्की ढ़लान के साथ पसरे बुग्याल में जगह-जगह रंग-बिरगें फूल हवा के साथ पूरी मस्ती में झूम रहे हैं। दुविधा यह कि नजरें कहां-कहां, कितना और कब तक देखें। पनार के इंट्री पांइट पर ही ‘बूढ़देवा’ और ‘भैरव’ का मंदिर है। रास्ते के बायीं ओर की सबसे ऊंची धार पर किसी उत्साही यात्री ने राष्ट्रध्वज को एक लम्बे डंडे में जोकि जमीन में मजबूती से गड़ा है पर फहराया होगा। अचानक लहराता तिरंगा देखकर अचरज के साथ आंनद का भाव आना स्वाभाविक है। साथ आयी महिलायें पनार के मंदिरों में पूजा कर रही हैं। घर से लाये ककड़ी, अखरोट, मुंगरी (मक्का), चावल, पिठाई फूल-पत्ती आदि को वो देवताओं को सर्मपित करती हैं। मेरा मन है कि वो देवताओं को भोग लगाने के बाद उनको (विशेषकर अखरोट) हमें प्रसाद स्वरूप खाने को दे देती तो सुबह की भूख से तस्त्र मन को राहत के साथ आनंद आ जाता। पर मन की बात मन में ही रह गयी, कहने की हिम्मत नहीं हुयी। देवश्वरी ने कहा कि ‘ये सब देवता के नाम के हैं। जब ये पेड़ या बेल पर रहते हैं तभी इन्हें देवता का हिस्सा मान लेते हैं। और जब भी समय मिलता है तो घर का कोई आकर इनको यहां चढ़ा देते हैं।’ अब मैं सोच रहा हूं कि अब तो अखरोट खाने की सारी संभावनायें धूमिल हो गयी हैं।

जिधर से हम आयें हैं उस पहाड़ी के ठीक पीछे वाले हिस्से की ओर एक लम्बी पंगडडी दिखाई दे रही है। यह रास्ता पनार से पांचवा केदार कल्पनाथ/कल्पेश्वर (समुद्रतल से ऊंचाई 6 हजार फीट) की ओर का है। पनार से कल्पेश्वर का ट्रैक 28 किमी. का है। मेन रास्ते के दांयी ओर थोड़ा हटकर छानी वाली दुकान है जिसे दिलबर सिंह भंडारी चलाते हैं। सीताराम ने नाश्ते के लिए पहाड़ी मूला की थिंच्वाणी और रोटी का आर्डर दिया है। पहाड़ी घी, जख्या और भुनी लाल मिर्च का तड़का भी लगेगा, बल। घर के दूध की चाय तो मिलने वाली ही हुयी। नाश्ता जल्दी बन जाय इसलिए फागुनी और देवश्वरी ने रोटी बनाने का जिम्मा खुद ले लिया है। दुकानदार भंडारी उन्हीं के घर-गांव के हैं। तब दुकान क्या घर का जैसा ही हुआ। दिलबर सिंह भंडारी की दुकान के ही बगल में बंद हालत में एक पक्का भवन है। उस पर पोंचिग हट, वन विभाग लिखा है। इस क्षेत्र में जंगलों की देखरेख और निगरानी के लिए यह है। देखकर ही लगता है कि महीनों से इस भवन को नहीं खोला गया है। साफ जाहिर है कि कर्मचारी यहां आते ही नहीं है। भंडारी बताते हैं कि सालों पहले सेना का एक कैम्प पनार में स्थाई तौर पर रहता था जो कि अब नहीं है। उन्हीं के द्वारा यह बनाया गया था। सेना के यहां से चले जाने के बाद इस भवन को वन विभाग को दे दिया गया है। सामने ही एक बड़ी डेस्टबिन कूड़े-कचरे से भरी है। इस कूडे का निपटान कैसे और कब होगा किसी को पता नहीं है। भूपेन्द्र का कहना है कि ‘कल हम सगर से चले थे, पनार तक पूरे 12 किमी. के टैªक में तिनका मात्र के सरकारी प्रयास/सुविधायें/कर्मचारी नजर नहीं आये। पैदल रास्ते में माइलस्टोन तक कहीं नहीं है। कोई बीमार या दुर्घटना हो जाय तो भगवान ही मालिक है। फिर इलाज के बारे सोचना ही क्यों है। सरकार का पर्यटन/तीर्थाटन विकास तमाम विज्ञापनों में ही दिखता है, यहां तो सरकार लापता है। जो कुछ है बस स्थानीय लोगों का किया हुआ कमाल है।’

पनार बुग्याल के ऊपरी छोर वाले रास्ते पर अब हम चल रहे हैं। पनार चोटी के गले पर हार की तरह दूर तक लहराता हुआ यह रास्ता, रुद्रनाथ की ओर घनघोर कुहरा लगे होने की वजह से, घीरे-धीरे गुम होता नज़र आ रहा है। गनीमत यह है कि बारिश फिलहाल पनार की ओर आराम फरमा रही है। आगे के रास्ते के दोनों ओर छोटे-बड़े पत्थरों के बुत कोहरे में दूर से किसी आदमी के होने का भ्रम देते हैं। लगता है कि कोई थक कर बैठा होगा। पहले पहल तो ऐसा ही समझ के उनमें से किसी एक को पूछने को हुआ कि ‘भाई आगे रास्ता कैसा है।’ परन्तु अपनी बेवकूफी अपने तक ही सीमित रही। कुछ पत्थर लोगों ने जगह-जगह पर खुद भी खड़े किये हैं। कहीं पर उनके ढ़ेर बनाये गये हैं। उनके आस-पास कपड़े की चीर, झंडा, पिठाई और फूल-पत्तियां उनकी विशिष्ट उपस्थिति की सूचक है। फागुनी बताती है कि ‘ये मनौती के पत्थर है। किसी पत्थर के पास जाकर उससे चुपचाप अपने मन की मुराद कही जाती है। फिर उसको सम्मान के साथ किसी सुरक्षित जगह पर रखा जाता है। मुराद पूरी होने के बाद यहां आकर पुनः उस पत्थर को पूजा जाता है।’
‘आपका जन्म फागुन के महीने हुआ होगा’ मैने कहा। ‘हां भै (भाई) साब, इसी तरह मेरी बहिनों का नाम भी चैता (चैत) और सौणी (सावन) है। मेरा पोता भी आने की जिद्द कर रहा था, पर कहां लाती उसे, फिर मौसम ऐसा खराब हुआ है। अब पोते को खुश करने में बौत टैम लगेगा। शादी हो गयी थी मेरी जब में 13 साल की थी। अब हो गये होगें शादी को 35-36 साल, गिना तो हमने कभी नहीं। गिनते कहां से, पढ़ा-लिखा तो हमने है नहीं। बस, खेती-बाड़ी और घर-परिवार में ही बीत गया जीवन। पर भै साब, पैले का टैम अच्छा था। कष्ट भौत थे, गरीबी भी थी, पर लोगों में प्रेम-भाव उससे ज्यादा था। गांव की सारी सुविधायें और खेती-बाड़ी संजैती (सामुहिक) थी। आज गांव-समाज में सुविधायें तो बड़ी हैं पर उनका स्वरूप व्यक्तिगत ज्यादा हो गया है। संजैती खेती अब रही नहीं, तब अकेला परिवार कैसे करेगा खेती-किसानी। सै (सच) बोलूं भै साब, आज का आदमी अपने अंदर ही दुबक गया है।’ मैं रुककर, साथियों को आगे बढ़ने दे रहा हूं। मेरा घ्यान उन पेडों की तरफ है, जहां से किसी पक्षी की एकाकी आवाज आ रही है। घ्यान आया हिलांस है वो। पहाड़ का गितांग (गीत गाने वाला) पक्षी। पहाड़ के खुदेड़ (कारुणिक) गीतों में हिलांस खूब आया है। फागुनी की बातें हिंलास के एकाकीपन को लिए पहाड़ी महिलाओं के खुदेड़ गीत जैसे ही तो हैं।

फागुनी बताती है कि कुछ साल पहले तक वो गांव की महिलाओं के साथ कभी-कभार पनार तक (16 किमी. जाना-आना) घास लेने आती थी। अपने गांव से सुबह का नाष्ता लेकर वे देर शाम ही वापस घर पहुंच पाती थी। देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करने, जड़ी-बूटी एवं जंगली फल-फूलों को लेने के लिए इलाके के सभी गांवों के लोग पनार तक अक्सर आते-जाते रहते हैं। फागुनी देवी बोलती जा रही है और बस बोलती ही जा रही है। इसके बावजूद, चढ़ाई के इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते में उसका चलना ऐसे ही है, जैसे आराम से अपने घर-आंगन में चल रही होगी। एक हम हैं थकान कम करने का मन होता है तो थोडा रुक कर कहते हैं ‘क्या घना जंगल है, समाने हिमालय या झरने का सीन गजब का है। कितनी शांति और ताजी हवा है यहां, शहर में ऐसा कहां मिलेगा…….। इस बहाने रुक कर अपनी सांसों को आराम देते तो जरूर हैं, पर साथ वाले से कह नहीं पाते हैं कि यार, रुका इसलिए कि थकान हो गयी है।

पित्रधार (समुद्रतल से 17 हजार फीट ऊंचाई) पर पहुंचे हैं। नंदा राजजात का कलुवा विनायक याद आ गया है। वैसी ही धार और वैसी ही चारों ओर से फर-फर चलने वाली सख्त ठंडी हवायें है। रुद्रनाथ जाने के लिए पितृधार सबसे ऊंची जगह है। यहां से इस पहाड़ का दूसरा छोर शुरू होता है। रुद्रनाथ वाले रास्ते के लिए यहां से चढ़ाई लगभग खत्म हो जाती है। आगे का रास्ता सीधा और कम उतार-चढ़ाव वाला है। पित्रों को सर्मपित इस धार में मंदिरों के कई छोटे-छोटे समूह हैं। दिवंगत परिजनों की पित्रलोड़ी (पित्र प्रतीक पत्थर) यहां जहां-तहां है। फागुनी और देवेश्वरी यहां पर पित्र पूजा में व्यस्त हो गयी हैं। देवेश्वरी बताती है कि ‘इस पूरे इलाके का यह सबसे प्रसिद्व पित्र पूजा स्थल है। लोग अपने परिवार के पित्रों के प्रतीक पत्थरों को यहां चढ़ाते हैं।’

पितृधार से आगे पंचगंगा का खूबसूरत ढ़लवा मैदान है। रास्ते के बांयी ओर बड़े और समतल सिलोटे/चबूतरानुमा कई पत्थरों के समूह बिखरे हैं। देवश्वरी का कहना है कि ‘ये पत्थर नमक पीसने के काम आते हैं। इन्हीं पत्थरों में जंगल की ओर चरने को छोड़े गए पालतू जानवरों को नमक खिलाया जाता है। जब भी इन जानवरों को अपने षरीर में नमक की कमी महसूस होती है तो वे इन पत्थरों के पास आ जाते हैं।’ एक छोटे धारे पर पंचगंगा लिखा है। इस स्थल पर निकलने वाली पांच पानी की धाराओं का यह मिलन स्थल है। पास ही चाय की दुकान है, पर दुकानदार जी अपने जानवरों की खोज में सामने की धार में खड़े है। आवाज दी पर उन सज्जन ने वहीं से ऊंची आवाज में कहा कि उसे देर लगेगी, आप चाहें तो अपने आप चाय बना लीजिये। अब हमारा स्वयं चाय बनाना तो ठीक नहीं है, बेेहतर है आगे चलते बनो। पंचगगा से आगे लगता है जैसे फूलों की घाटी में चल रहे हों। फलुकंडी, तोन्नासैंण के बाद आया है देवदर्शनी। देवेश्वरी और फागुनी को रास्ते की प्रत्येक वनस्पति के बारे में जानकारी है। वनस्पतियों के नाम, खिलने का समय और उपयोग उनको जुबानी याद है। अदभुत है उनका परिवेश प्रदत ज्ञान और हुनर। वो चलते हुए बताती जाती हैं कि ‘ये पूरा क्षेत्र औषधियों का भंडार है। पर करें क्या न उनका सही उपयोग और न ही उनका संरक्षण हम कर पायें हैं। कई वनस्पतियां जिनको हमने कुछ साल पहले देखा था वो अब है ही नहीं।’

देवदर्शनी से रुद्रनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं। देवदर्शनी से मात्र 1 किमी. दूरी पर भगवान रुद्रनाथ का मंदिर है। साफ मौसम में विशाल पत्थरों की ओट में चमकते हुए मंदिर का आलोक अदभुत दिखाई देता है। थोड़ा आगे जाने पर लोगों की चहल-पहल है। सुबह आने वाले यात्री वापस जा चुके हैं। शाम को आने वालों में हम 5 यात्री सबसे पहले पंहुचे हैं। प्रातःकालीन पूजा के बाद मंदिर के दर्शन शाम 4 बजे के बाद होगें। अभी शाम के 3 बजे हैं। आराम करने और भात-दाल खाने का अच्छा मौका मिल गया है। घीरे-धीरे और यात्रियों का आना शुरू हो गया है। मेरे मित्र डाॅ. प्रेमप्रकाश पुरोहित, गोपेश्वर से परिवार और दोस्तों के साथ अभी आये हैं। उनसे रुद्रनाथ में मिलना एक सुखद संयोग है। शाम को आने वाले सभी यात्री रात को रुद्रनाथ में रुकेगें परन्तु हमें तो वापस जाना है। अपना झोला-तुमड़ा (यात्रा का सामान) मोलिखर्क में जो छोड़ आये है हम।

ठीक सांय 4 बजे मंदिर की घंटियों ने भगवान रुद्रनाथ दर्शन के लिए यात्रियों का आवाह्न किया है। मंदिर परिसर नारद कुंड से शुरू होता है। रास्ते के ऊपरी ओर घर्मशालाओं की एक नजदीकी कतार है। मंदिर प्रवेशद्वार पर ही पुजारी जी की कुटी हेै, जिसके बाहरी दरवाजे के पास ‘रुद्रनाथ की समुद्रतल से ऊंचाई 3554 मीटर’ लिखी है। मुख्य मंदिर गुफा के रूप में दक्षिणाभिमुखी है। मंदिर प्रवेश में 2 नंदी यज्ञ मंडप हैं। मंदिर के गर्भगृह में चट्टान पर भगवान शिव की रौद्र मुखाकृत्ति मुख्य मूर्ति है। साथ में विष्णु एवं शिव परिवार की दुर्लभ मूर्तियां हैं। शिव के रौद्र रूप के कारण ही यह स्थल रुद्रनाथ कहलाया। मुख्य मंदिर के दांयी ओर वणद्यौ (वन देवता) का मंदिर है जिसमें कई शिवलिंग मौजूद हैं। वणद्यौ मंदिर के दांयी ओर 7 पूर्वामुखी मंदिरों की श्रृंखला विशाल चट्टान के ऊपरी ओर को जा रही है। इनमें एक मंदिर दुमंजिला है। सभी मंदिरों का बाहरी आवरण ताम्रवर्ण (तांबे का रंग) पत्थरों से बना है।

रुद्रनाथ के पुजारी गोपेश्वर के भट्ट और तिवारी लोग हैं। अभी मंदिर परिसर मेें केवल ‘हम पांच’ यात्री हैं। ऐसा मुश्किल संयोग होता है कि किसी पौराणिक मंदिर में दर्शन के साथ पुजारी जी धैर्य और रुचि से उस मंदिर और स्थान का महात्मय भी भक्तगणों को बताते चलें। यह संयोग एवं सौभाग्य हमें मिल रहा है। बताया गया कि रुद्रनाथ मंदिर हिंवाल नामक पर्वत में विराजमान है। रुद्र शब्द रौद्र से अभिप्रेरित है। शिव का रौद्र रूप उनके मुख के माध्यम से रुद्रनाथ में प्रकट हुआ है। सामान्यतया शिवजी की पूजा लिंग स्वरूप की जाती है, रुद्रनाथ ही एक ऐसा पौराणिक तीर्थ है, जहां महादेव मुखारविंद में हैं। लोक विश्वास है कि अन्य केदार मंदिरों की तरह रुद्रनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा किया गया। रुद्रनाथ पंचकेदार में चतुर्थ केदार माना जाता है। यहां की एक चट्टान मेें कई तलवारें एक साथ फसांई गयी हैं। यह मान्यता है कि ये तलवारें पांडवों की रही होंगी। कहा जाता है कि, महाभारत युद्ध के बाद पांडवों को यह भय सताता रहा कि वे पित्र हत्यारे हैं, इसलिए उन्हें स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। पित्र दोष से मुक्ति के लिए उनसे कहा गया कि शिव ही उनके इस दोष का निवारण कर सकते हैं। अतः शिवजी की खोज में पांडव गढ़वाल हिमालय की ओर आये। परन्तु शिव उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। अतःशिव की तलाष में पांडवों ने जिन 5 स्थानों में शिव को खोजा वे केदार कहे गये। गढवाल में स्थित इन पंच केदार ( क्रमश: केदारनाथ, मध्यमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पनाथ) में पांडवों ने शिव मंदिरों का निर्माण किया था।

रुद्रनाथ को रुद्रमहालय कहा गया गया है। यही कारण है कि रुद्रनाथ के आस-पास कई अन्य मंदिरों और जलकुडों की उपस्थिति है। नारायण मूर्ति, शिव प्रतिमा, उमा-महेश प्रतिमा, ज्योर्तिलिंग, त्रिषिख कार्तिकेय, गणेश विग्रह, दुर्गा, वैतरणी कुण्ड, सारस्वत कुण्ड, सूर्य कुण्ड, भीम गदा, नारद कुण्ड, स्वर्गद्वारी आदि इनमेें प्रमुख हैं। रुद्रमहालय ऐड़ी और आंछरियों (मृत प्रेत आत्मायें) का भी प्रिय स्थान है। हमें बताया गया कि पनार से रुद्रनाथ तक अनेकों खड़े पत्थरों को इन ऐड़ी अथवा आंछरियों के प्रतीक मान कर देवी एवं देवता के रूप में पूजे जाने की प्रथा है। रुद्रनाथ के पास स्थित वैतरणी कुण्ड में अपने पूर्वजों/पित्र आत्माओं को पिंडदान एवं तर्पण देने का सर्वाधिक पुण्य स्थान माना गया है। रुद्रनाथ मंदिर का प्रबंधन गोपेश्वर मंदिर से संचालित होता है। रुद्रनाथ जी की पूजा जेठ से कार्तिक माह तक की जाती है। शीतकाल में यहां के कपाट बंद होने पर रुद्रनाथजी गोपीनाथ मंदिर, गोपेश्वर में विराजमान रहते हैं।

हम रुद्रनाथ से वापसी की ओर हैं। मौसम का मिजाज फिर बिगड़ने लगा है। शाम के 5 बजे हैं और हमें 10 किमी. चलकर मोलिखर्क पहुंचना ही है। हमारी गाइड फागुनी ने कहा कि ‘भै साब, तुम लोग तो भौत धीर-धीरे चलोगे, इसलिए आप आते रहना, हम तेज चल कर टैम से मोलिर्खक पहुंच जायेगें।’ ‘यही बेहतर है आप लोग जल्दी चलो, हम लोग भी जरूर पहुंचेगे मोलिखर्क चाहे देर रात ही क्यों न हो जाय।’ सीताराम बहुगुणा उनसे जोर देकर कहते हैं। बात आगे की यह है कि पंचगंगा पहुंचने तक ही हमें निपट रात हो गयी है। अब आगे मोबाइल की लाइट के सहारे जाना है। मोबाइल 3 हैं, पर भरोसा नहीं कब कौन बंद हो जाय। इसलिए रोशनी की किफायत और मोबाइल की सुरक्षा बहुत जरूरी है। तय हुआ कि एक ही मोबाइल की लाइट में चलेगें। लाइट वाला बीच में जो आगे-पीछे वाले का ध्यान भी रखेगा। रात को ट्रैकिंग का एक फायदा ये जरूर है कि ध्यान बस चलने में रहता है। रास्ते की इधर-उधर की दुरुहता और विकटता ज्यादा दिखती नहीं है। पर यहां तो पित्रधार के पित्र (प्रेतात्मा/ऐड़ी/आंछरी) और घनघोर जंगल के रैवासी/रहवासी (जंगली जानवर) हम तीनों के मन-मस्तिष्क में विचरण कर ड़राते ही जा रहे हैं। परन्तु उसके कारण फायदा यह है कि चलने की गति कम नहीं वरन बढ़ती जा रही है। कोशिश यह है कि रास्ते के पहाड़ की तरफ वाले हिस्से की ओर से ही चलें। रास्ते से नीचे देखना तो क्या सोचना भी इस समय खतरे से खाली नहीं है।

हम तीनों में चलते हुए बोलचाल न के बराबर है। पैदल चलने की कई विशेषताओं में एक यह है कि दिन की पैदल यात्रा में सहयात्री से खूब बात होती है और रात में साथ चल रहे साथी के बजाय अपने आप से। हम तीनों आपस में बोल नहीं रहे हैं, पर अपने आप से मन ही मन में बातों की कछैड़ी (कचहरी) लगी है। आशंकाओं का डर कुछ भी हो सकने का संदेश दे रहा है। और सबसे ज्यादा कल रात मोलिखर्क के पास वाले बाघ का खौफ इस रात भी साथ-साथ चल रहा है। मैने यूं ही धीरे से बोला कि ‘यहां रिक्ख (भालू) ज्यादा होते हैं और रिक्ख तो बाघ से भी खतरनाक होता है। रिक्ख भी यहां काला नहीं सफेद होता है। अब अगर सामने आ जाय तो पहले पहल तो हम उससे भूत समझकर डरेंगे और बाद में भालू। क्योंकि भूत की इमेज हमारे मन-मस्तिष्क में सफेद होती है और भालू अब तक हमने काले ही देखे हैं।’ ‘ये बताना इस समय जरूरी था। आपने तो डर और बड़ा दी है, भूपेन्द्र बुदबुदाया।’ ‘डरने से कुछ नहीं होगा। वैसे भी रुद्रनाथ मंदिर में पुजारी जी ने बतलाया था कि यह निर्जन और बीहड जंगली इलाका ऐड़ी/आंछरियों (मृत प्रेतात्मायें) के प्रभुत्व में है। और आंछरियां उनका ही हरण करती जो डर जाते हैं। दायें-बायें तो कुछ दिख नहीं रहा है। इसलिए बेहतर है वही बात की जाय जो इस समय दिल-दिमाग में चल रही है। इससे डर बढ़ेगा नहीं कम ही होगा। तुम दोनों कहो तो मैं तुम्हें आंछरियों के बारे में बताऊं।’ वे मेरी शैतानी को ताड़ गये हैं। परन्तु थोड़ी चुप्पी के बाद सीताराम ने कहा ‘बताओ’। ‘तो सुनो, असल में हमारे उत्तराखंडी समाज में यह मान्यता है कि ऐड़ी और आंछरियां छोटी उम्र या असमय मुत्यु को प्राप्त अतृप्त प्रेत आत्मायें होती हैं। ये निर्जन पर्वत शिखर, घने जगंल और पानी वाले स्थानों में अक्सर रात को घूमती हैं। आंछरियों को मंदोदरी और रावण की पुत्रियां भी माना जाता है। ये अप्सरा की तरह सुंदर होती है इसलिए इनको अप्सरा भी कहा जाता है। उत्तराखंड के लोकगीतों में सात बैणी (बहन) या नौ बैणी आंछरी का जिक्र कई बार होता है। हमारे इष्ट देवी-देवता इसी श्रेणी में भूतांगी होते हैं। वे हमारा अनिष्ट न करें इसलिए उन्हें ध्याणी (बहिन/बेटी) का संबोधन और सम्मान दिया जाता है। किसी भी पारिवारिक शुभ-काम में सर्वप्रथम इसी कारण ईष्टदेवी/देवताओं का घ्यान लगाया जाता है। और मनोती की जाती है कि ‘वह हमारे इस कार्य को बिना विघ्न-बाधा के होने दे। कार्य पूरा होने पर उनकी पूजा अवश्य की जायेगी’ बंधुओं, फिकर नाॅट, हमारी घ्याणियां भी हमको सुरक्षा देते हुए हमारे साथ-साथ अदृश्य रूप में चल रही हैं और वे इस घनघोर रात में हमें सकुशल मोलिखर्क पहुंचायेंगी।’

मेरे इस लम्बे व्याख्यान के बाद सीताराम और भूपेन्द्र का डर कितना कम या ज्यादा हुआ ये मैं इस गहरी रात में नहीं देख और महसूस कर पा रहा हूं। परन्तु उनकी लम्बी खामोशी ने और बोलने से रोक दिया है। पितृधार हम रात के 10 बजे के करीब पहुंचे हैं। दिन में रुद्रनाथ आते समय यह जगह जितनी खूबसूरत और सुविधाजनक लग रही थी, रात के वक्त उतनी ही खौफनाक है। इस जगह के आस-पास और दूर तक के दृश्य तो हर एक जैसे होंगे। परन्तु दिन के उजाले में वे हमें मन-मोहक लगे और रात को भयावह। अंतर केवल उजाला और अंधेरे का ही है। यहां पर रात्रि की हवायें दिन से तेज और सर्द हैं, साथ ही चारों ओर हवाओं के बहते शोर ने शरीर की सिरहन और डर बड़ा दी है। सीताराम को लगा कि कोई बैठा है। मैं सोच रहा हूं कि कोई साधक साधना में तो लीन नहीं है। उसके नजदीक जाने पर गुटमुटा मंदिर देखकर मन का भ्रम दूर हुआ है। दिन में यहां काफी देर बैठे थे। ‘कुछ देर यहां बैठे क्या ? मैं मजाकिया अंदाज में कहता हूं।’ ‘अरे भाई सहाब, आप भी क्या बात करते हैं, चुपचाप खिसक लो, दिन की बात और थी। साथ चल रहे दोनों मित्रों की चेतावनी है।’

मैं बातों का सिलसिला जारी रखने की कोशिश में कहता हूं कि घर वापस जाने पर ‘मैं तुम्हें ‘नेत्र सिंह रावत’ की यात्रा पुस्तक ‘पत्थर और पानी’ पढ़ने दूंगा’। ऐसी डरावनी रात में भी आपको किताब की सूझ रही है। यहां आगे चलना ही मुश्किल है, और फिर डर यह कि रास्ता सही है या नहीं। भूत और जंगली जानवरों का डर तो है ही’ भूपेन्द्र ने कहा। ‘अरे भाई मैं इसलिए कहा रहा हूं कि नेत्र सिंह रावत जी ने इस किताब में मुनिश्यारी से आगे मिलम ग्लेश्यिर की यात्रा संस्मरण में ठीक इसी ही हालत का जिक्र किया है। संयोग से वो भी 3 ही लोग थे, याने उनके साथ उनकी धर्मपत्नी और पोर्टर था। देर रात ऐसे ही चलते हुए उन्होनें घर्मपत्नी और पोर्टर के अनचाहे भय को कम करने के लिए भूत और जंगली जानवरों के सच्चे-झूठे किस्से सुनाकर उनकी चाल और मनःस्थिति को सामान्य करने में सफल हो गये थे। खैर, इस समय जंगली मुर्गी और मोनाल तो दिखेगें नहीं। भूत और भालू ही नजर आ सकते हैं। इसलिए उनकी बात करना ही प्रासंगिक है’। आपने तो खून ही सुखा दिया हमारा। उतनी कमजोरी थकान से नहीं आयी, जितनी आपकी बातों से। अब घर जाकर सबसे पहले ताकत का इंजेक्शन लगाना पडेगा। पर पहले घर वापस पहुंच पायें तभी तो होगा ये सब। सीताराम और भूपेन्द्र के हंसने से यह चलायमान माहौल जरा सामान्य हुआ है।

पित्रधार पार करते ही यह उम्मीद तो बन ही गयी है कि हम मोलिखर्क पहुंच ही जायेंगे। पित्रधार से रास्ता उतार का है, रात को उतार में चलना ज्यादा कष्टकारी होता है। गिरने का भय बराबर बना रहता है। इस समय हमें बार-बार लगता कि दिन में ये रास्ता ऐसा नहीं था। कहीं हम रास्ता तो नहीं भटक रहे हैं। पर भटकेगें कैसे ? रास्ता तो एक ही है, यह भरोसा भी है। नीचे की ओर हल्की लाइट दिखने पर यह अंदाज लग गया कि वह पनार में भंडारी वाली दुकान ही है। लगता तो यही है कि बस पास ही है। पर उसको पास आने मेें कई मोड़ों के चक्कर कम होते नजर नहीं आ रहे हैं।

पनार के पास पहुंचे तो वहां भेड-बकरियों की रात्रि सुरक्षा में तैनात जांबाज कुत्तों की भौंकने की आवाज ने हमें कल के बाघ से अधिक भयभीत कर दिया है। उनकी देखा-देखी में और जहां-जहां नजदीकी छानियां होगी,ं वहां से कुत्तों की सामुहिक भौंकने की आवाज आने लगी है। अब क्या करें सिवा एक जगह खड़े रहने के। पर डर यह भी कि कुत्तों के भौंकने की आवाज से नजदीकी जंगली जानवर इसी रास्ते ऊपर की ओर न दौड़ जांय। भूपेन्द्र का सुझाव है कि भाई सहाब, इस बार आपकी सीटी अवष्य काम आयेगी। और यही हुआ है, 8-10 सीटी बजाने के तुरंत बाद छानी के पास से किसी सज्जन की आवाज आयी कि ‘भै सहाब, आप लोग आराम से जाओ ये कुछ नहीं करेगें, हम यहीं पर हैं।’ उन सज्जन ने अपनी हल्की सीटियों में कुत्तों को संदेश दिया कि ये राहगीर हैं, जाने दो। ‘भेड-बकरी पालकों ने अपने कुत्तों को कई प्रकार की आवाजों और इशारों के मतलब समझाये होते हैं। मैं बताता हूं।’ पर यह सुनने की किसको पड़ी है। ‘चाय पीते जाओ भाई सहाब’, दिन वाले दुकानदार भंडारी का आग्रह है। ‘रुकें क्या ?’ मैं बोला। ‘बस, बोलो मत निकल लो’ भूपेन्द्र ने कहा। ‘घन्यवाद, फिर कभी’ इतना तो मैंने फिर बोल ही दिया। खूबसूरत पनार बुग्याल से गुजरते हुए दिन में लगा था कि क्या-क्या देखूं, अब उसी जगह से रात को डरते-डरते जाते हुए केवल रास्तों के बेड़ोल पत्थरों पर ही नजर टिकी है, ताकि उनकी ठोकरों से बचा जा सके।

गिरते-पड़ते 1 बजे रात को मोलिखर्क पहुंचे हैं तो गहरी नींद से कुछ-कुछ जागा प्रेमसिंह बड़बड़ाया कि आपकी जगह पर नये यात्री सो गये हैं और कोई जगह है नहीं, आपको भी उन्हीं के साथ सैट करता हूं। प्रेमसिंह पर गुस्सा तो बहुत आ रहा है पर उसने अभी सोने के इंतजाम के बाद खाना भी खिलाना है। ये सोच कर सीता राम बहुगुणा बोलते है कि ‘कोई बात नहीं प्रेम सिंह भाई, रात ही तो काटनी है। और खाना खाकर हम जहां-तहां पसर गये हैं। सुबह ही पता चला कौन कहां था।

यात्रा के साथी और फोटो- सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नेगी।

आप श्री अरुण कुकसाल जी से उनके मेल पर भी संपर्क कर सकते हैं….arunkuksal@gmail.com

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