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पलायन. “समस्या” नहीं अभिशाप !

योगेश भट्ट 

‘उत्तराखंड से पलायन करने वाले अस्सी फीसदी लोग ‘स्लम’ में रह रहे हैं’,यह कहना था आरएसएस के सह सर कार्यवाहक डाक्टर कृष्ण गोपाल का । यह बयान उन्होंने अभी कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह की मौजूदगी में दिया । उस वक्त आश्चर्यजनक रूप से मुख्यमंत्री ने भी इस बयान पर सहमति जताई । इसमें कितनी सत्यता है वह खुद ही जानें लेकिन बयान चिंताजनक है।

दरअसल उत्तराखंड में पलायन पर चिंतन और विमर्श इन दिनों ‘फैशन’ में है । पलायन पर यह ‘विमर्श’ भले ही देहरादून से दिल्ली और मुंबई होते हुए विदेशों तक जा पहुंच चुका है, लेकिन उत्तराखंड के हालात जस के तस हैं । सरकार ने तो पलायन आयोग तक गठित कर दिया है । यह आयोग उत्तराखंड में पलायन के कारण और उपाय तलाशने के लिए दिल्ली, मुंबई के साथ ही विदेशी संस्थानों से स्कालर तलाश रहा है ।

है न हास्यास्पद !उत्तराखंड के साथ इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि जो खुद पलायनवादी हैं, वे पहाड़ से पलायन पर कोरी चिंता जता रहे हैं। दुर्भाग्य देखिए, एक करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में तकरीबन 40 लाख लोग बाहर रह रहे हैं । लेकिन राज्य बनने के बाद हालात सुधरने के बजाय और बिगड़े हैं, तब से अब तक 3000 से ज्यादा गांवों में ताले लटक चुके हैं। इसके बाद भी मौजूदा सरकार आयोग के गठन को ही अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है ।

सवाल यह है कि क्या पलायन इतनी बड़ी समस्या है कि जिसका हल ढूंढने के लिये सरकार को आयोग का गठन करना पड़ा ? और क्या गारंटी है कि आयोग इसका उचित सामधान सुझा पाएगा और सरकार उस पर अमल करेगी ? और अब तो खुद आयोग व आयोग गठित करने वाली सरकार दोनो ही कटघरे में हैं । पलायन आयोग खुद पलायन कर चुका है, पौड़ी में कार्यालय न मिलने का बहाना बनाकर आयोग ने देहरादून में दफ्तर जमा लिया है। यह तब है जबकि आयोग के उपाध्यक्ष डाक्टर एसएस नेगी खुद पौड़ी के मूल निवासी हैं। देहरादून से उन्होंने पालयन के कारणों की पड़ताल, रोकने के उपाय और नीति तैयार करने के लिये प्रोफेशनल की भर्ती प्रक्रिया भी शुरू कर दी है ।

आश्चर्यजनक यह है कि एक अस्पष्ट विज्ञापन में पलायन आयोग ने सिर्फ IIT, IIM, DLRI,FMS,IRMA, DELHI SCHOOL OF ECONOMICS, IIFM,TISS,JNU,XISS,XIMB, NLS, NALSAR, DELHI SCHOOL OF SOCIAL SCIENCES या अन्य किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थान के ही स्नात्कोत्तर युवाओं को ही आमंत्रित किया है । हालांकि इस पर हल्ला हुआ तो बाद में उत्तराखंड के एक मात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय गढ़वाल विश्वविद्यालय को भी फिलहाल इसमें शामिल कर लिया गया। अब बताइए जिस आयोग की नजर में राज्य के विश्वविद्यालय और संस्थानों की कोई अहमियत न हो, वह राज्य में पलायन रोकने की नीति क्या तैयार करेगा ? जहां तक सवाल पहाड़ से होने वाले पलायन के सर्वे और आंकड़े जुटाने का है, तो वह कौन बेहतर जुटा पाएगा ? कोई स्थानीय या फिर दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू या कहीं विदेश से पढ़कर आने वाला छात्र ?

खैर दोष आयोग का नहीं बल्कि सरकार का है जो संवेदनशील मसलों पर जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन नियुक्तियों में भी कोई खेल ही हो । वैसे भी उत्तराखंड में इस तरह के आयोग, परिषद, बोर्ड निगम, परियोजनाएं बड़े अफसरों और नेताओं के नाते रिश्तेदार करीबियों को रोजगार के लिये ही बनते रहे हैं । सवाल तो आयोग के उपाध्यक्ष की नियुक्ति पर भी उठता है, आखिर उनके चयन या नियुक्ति का आधार क्या था ? उनके नाम के पीछे नेगी होना और भारतीय वन सेवा में उच्च पद से सेवानिवृत्त होने के अलावा उनकी क्या विशेषज्ञता है ? सिर्फ नाम के पीछे नेगी या भट्ट होना या फिर किसी बड़े ओहदे से रिटायर होना ही पहाड़ की विशेज्ञता तो नहीं हो सकता ।

वैसे भी वह वर्ल्ड बैंक के वानिकी सलाहकार हैं, और वर्ल्ड बैंक की नीति पहाड़ के लिए किसी से छिपी नहीं है। बहरहाल पलायन अगर समस्या है तो उसके आंकड़े जुटाने के लिये सर्वे या आयोग की जरूरत नहीं थी । आंकड़े मौजूद हैं ,राज्य में कुल 16793 गांव है जिनमें से 3000 गांव खाली हो चुके हैं, 1000 से अधिक गांव ऐसे हैं जिनमें सौ से कम लोग निवास कर रहे हैँ, 5000 गांव सड़क सुविधा से वंचित हैं । अभी तक 32 लाख लोग राज्य से अलग-अलग कारणों से पलायन कर चुके हैं और प्रदेश के 2 लाख 80 हजार घरों में ताले लटके हैं ।

यह भी स्पष्ट है कि पलायन गांवों से शहरों की ओर हो रहा है । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 35 फीसदी पलायन राज्य से बाहर हुआ है, बाकी राज्य के अंदर ही गावों से छोटे शहरों और बड़े नगरों की ओर पलायन हो रहा है। पलायन करने वालों में 31 फीसदी लोग शिक्षा के लिए और 13 फीसदी लोग नौकरी के लिए पहाड़ छोड़ रहे हैं । तकरीबन 29 फीसदी पलायन शादी के कारण है। जिलों के लिहाज से अन्य जिलों की अपेक्षा पौड़ी और अल्मोड़ा से पलायन अधिक हुआ है। अल्मोड़ा में 36401 और पौड़ी में 35654 घर खाली हो चुके हैं। यह है पलायन की तस्वीर । तस्वीर चिंताजनक जरूर है लेकिन इस तस्वीर का पहलू संघ के सह सर कार्यवाहक के बयान की पुष्टि कतई नहीं करता।

अब बात यह है कि पलायन अगर समस्या है तो उसका समाधान भी है, कौन नहीं जानता कि पहाड़ में आज भी सिर्फ मूल भूत जरूरतें ही मजबूरी के पलायन को रोकने का एकमात्र उपाय है। लेकिन सरकारें बस इतना भी करने में नाकाम रही हैं, इसके लिये कसूरवार हैं हमारी सरकारी नीतियां । लेकिन सच यह है कि उत्तराखंड के लिए।पलायन अब समस्या नहीं बल्कि अभिशाप है । गांवों में जो घर खंडहर हो चुके हैं अधिकांश उन लोगों के हैं जो नगरों और महानगरों में बेहतर जीवन जी रहे हैं।

समस्या यह है कि जो लोग गांवों में बचे हैं उनको लेकर सरकार और सिस्टम कतई संवेदनशील नहीं हैं । जो घर वापस लौट चुके हैं या कोशिश कर रहे हैं सरकार की ओर से उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं । कुछ एक स्थान जहां कृषि या औद्यानिकी या यूं कहें समृद्धि है, उन्हें छोड़कर अधिकांश स्थानों पर लोग सिर्फ मजबूरी में टिके हैं । बहुत ज्यादा दूर कि बात नहीं है इसी साल 17 जनवरी को पौड़ी निवासी अजय भदुला दून पहुंचे। उन्होंने परिवार समेत आत्मदाह की चेतावनी दी हुई थी।

वह सन 1898 में बसे अपने गांव में सड़क न पहुंचने से नाराज हैं । उनका आरोप था कि वन महकमा जबरन तंग करता है । बड़े रिसार्ट और अमीरों पर वन महकमा मेहरबान रहता है और गांवों को कायदे कानून पढ़ाए जाते हैं। पुलिस ने देहरादून पहुंचने पर उस युवक को गिरफ्तार कर लिया । घटना छोटी है लेकिन पलायन के लिए इसी तरह की छोटी-छोटी घटनाएं बड़ी जिम्मेदार हैं, लेकिन सरकार यह नहीं समझती ।
सरकारी नीतियों के केंद्र औ उसके विकास माडल में पलायन की समस्या कभी रही ही नहीं। विकास का जो माडल सरकारों ने तैयार किया है वह पहाड़ को रास नहीं आता । शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार की दिक्कत तो है ही, पहाड़ में पलायन के लिये अभिशाप है आपदा, वन कानून, भू-कानून, पेयजल, बिखरी हुई जोत, बंजर कृषि भूमि । कोई कुछ करना भी चाहे तो तमाम दिक्कतें सामने हैं और अब तो मानव और पशु संघर्ष भी होने लगा है, जंगली जानवरों का आतंक बढ़ने लगा है। इससे भी बढ़कर अभिशाप है देहरादून राजधानी, जो पहाड़ का दर्द महसूस ही नहीं कर पाती।

काश, सरकारें आयोग बनाने के बजाय हिमाचल से सीख ले पाती, जहां के पहले ही मुख्यमंत्री डाक्टर परमार ने राज्य गठन के बाद देशभर में फैले हिमाचल के लोगों से घर वापस लौटने की अपील की। जहां आज भी राजनेता और नौकरशाह अपने मूल स्थान पर घर बनाते हैं, रिटायरमेंट के बाद अपने घरों को लौटते हैं । उत्तराखंड में इसके उलट सरकार, राजनेताओं और नौकरशाहों की सोच हमेशा से पलायनवादी रही है । उत्तराखंड में नेताओं और अफसरों का जोर तो मैदानी इलाकों और देश के अन्य शहरों में होटल, रिसार्ट, फार्म हाउस, कांपलैक्स, बंगले और यूनिवर्सिटी कालेज खड़ी करने में रहा है ।

पलायन आयोग को चाहिए कि वह यह आंकड़ा भी निकाले कि बीते डेढ़ दशक में कितने लोग अपनी जड़ों की ओर लौटे, कितने नेताओं , कितने जनप्रतिनिधियों, और उत्तराखंड मूल के कितने आईएएस, पीसीएस और अन्य सेवाओं के अधिकारियों ने अपने पैतृक या मूल स्थान में घरों को आबाद किया ? उत्तराखंड में पलायन की तस्वीर से जुड़ा एक अहम पहलू और भी है, जिस पर चर्चा फिर कभी ।

फिलहाल तो अहम सवाल यह है कि सरकार और उसका आयोग राज्य को पलायन के अभिशाप से मुक्ति दिला पाएगा ? पलायन आयोग की गतिविधियों से साफ है कि यह सिर्फ ढ़ोंग है । वैसे भी आयोगों की रिपोर्टों पर उत्तराखंड में कुछ होता नहीं , इनके हश्र से हर कोई बखूबी वाकिफ है। प्रशासनिक सुधार आयोग, राजधानी निर्माण आयोग और तमाम घोटालों पर जांच आयोगों की रिपोर्टों का क्या हुआ ? हां इतना जरूर है कि अभी तक किसी भी आयोग ने जन भावनाओं को आहत नहीं किया, उनके साथ खिलवाड़ नहीं किया लेकिन पलायन आयोग लगातार ऐसा कर रहा है ।

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