- बेशर्म और बे-हया सिस्टम को फिर भी नहीं आई लाज़
- उत्तराखंड की बदहाल स्वास्थ्य सुविधा पर आंसू बहाती सूबे की नारी
- कभी सड़क तो कभी पेड़ ने नीचे और कभी गाड़ी में और अब झूला पुल पर जना बच्चा
देहरादून : उत्तराखंड में मानवता को शर्मसार करने की साथ ही सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था पर चोट करने के लिए इस तरह की कई ख़बरें तब सुर्खियाँ बन जाती है जब किसी माँ या बहन को कभी गाड़ी में तो कभी सड़कों पर तो कभी किसी पेड़ के नीचे और कभी किसी पुल पर बच्चा जनने को मजबूर होना पड़ता है। लेकिन हमारे सरकारी सिस्टम का न तो कभी दिल ही पसीजा और न कभी उन नेताओं का जो जनता की सेवा का व्रत लेने की कसमें खाकर जिन्हें हम खुद ही चुनकर विधानसभा तक भेजते हैं।
यह हतप्रभ कर देने वाली घटना बीते दिन मंगलवार की है और प्रदेश की अस्थायी राजधानी देहरादून जनपद के चकराता तहसील ब्लाक कालसी के त्यूनी की है। बनिता देवी पत्नी दनेश दास उम्र 24 साल थुनारा गांव आराकोट तहसील मोरी को प्रसव पीड़ा के चलते त्यूनी अस्पताल भर्ती करने के लिए लाया गया, लेकिन अस्पताल में चिकित्सक नहीं मिला, वहां मौजूद नर्स ने भी बिना मरीज को देखे ही ”कहीं और ले जाने की सलाह” देते हुए अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ दिया। उसे उस महिला पर जरा भी दया नहीं आई और न ही उसकी दशा देखकर उसका दिल ही पसीजा।
दर्द से कराहती प्रसूता ने बहुत मिन्नतें की “मैं चल नहीं सकती मुझे प्रसव का तेज दर्द हो रहा मुझे जल्दी भर्ती कर दो” लेकिन अस्पताल मे कोई चिकित्सक नहीं है यह कह कर उसे वहां से चलता कर दिया गया। मजबूरी में पैदल ही अस्पताल से चल दी और रास्ते में ही एक झूला पुल पर बनीता ने बच्चे को जन्म दे दिया ।हालांकि जच्चा और बच्चा दोनों स्वास्थ्य है। लेकिन इस घटना के बाद एक बार फिर स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठने लगे है।प्रसव के बाद भी अस्पताल ने प्रसूता को अस्पताल में भर्ती नहीं कराया। इस घटना ने अस्पतालों और सरकारी दावों की बखिया उधेड़ कर तो रखी और साथ ही मानवता को भी हिला कर रखते हुए तार-तार कर दिया।
इस सम्बंध मे जब सीएमओ से फोन पर सम्पर्क किया तो उनका भी जवाब बहुत ही गैर जिम्मेदाराना था कि कोई डाक्टर त्यूनी जाने को तैयार नहीं बेशक वो नौकरी छोड़ने को तैयार है, उन्होने कहा की वहाँ डाक्टरों का सम्मान नहीं होता और हर मामले मे राजनीति होती है । शासन को कई बार लिखा गया है लेकिन त्यूनी जाने को डाक्टर राजी नहीं है ।
गौरतलब हो कि एक तरफ इंस्टीट्यूटशनल डिलीवरी सरकार का घोषित राष्ट्रीय कार्यक्रम है। आशा से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक का खर्च उठाने के लिए हर साल करोड़ों रुपये ठिकाने लगाये जाते हैं। मगर दूसरी तरफ अस्पताल नहीं, डाक्टर नहीं, कहीं ये हैं भी तो बैड नहीं, दवा नहीं, लाईट नहीं। आधार कार्ड बीपीएल कार्ड लाओ। अगर ये हैं भी तो डाक्टरों का एक डरावना और लुटेरा डायलॉग हालत खराब है जच्चा बच्चा में से एक ही बचेगा कुछ खर्चा लगेगा। खर्च नहीं तो कह देते हैं हमारे पास व्यवस्था नहीं। मीलों पैदल चलकर अस्पताल पहुंचने के बाद स्वास्थ विभाग का ऐसा रवैया जान निकाल कर रख देता है। इससे भी अच्छा हम उत्तरप्रदेश में ही ठीक थे उस दौरान कम से कम हर अस्पताल में डाक्टर तो मिल ही जाता था।