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‘सांपनाथ’ पर रोक और ‘नागनाथ’ को रेड कारपेट !.

योगेश भट्ट 

इन दिनों सरकार यूपी राजकीय निर्माण निगम का विकल्प तलाश रही है। लेकिन प्रदेश की कार्यदायी संस्थाओं पर तो मानो इस सरकार को भी भरोसा नहीं ।जो संकेत मिल रहे हैं उनसे जाहिर है कि त्रिवेंद्र राज में सरकार की मेहरबानी यूपी निर्माण निगम की तरह एनबीसीसी (नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन) पर बरसेगी। अभी तक उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम से प्रदेश के राजनेताओं और नौकरशाहों का मोह किसी से छिपा नहीं है।

पिछले डेढ़ दशक में उत्तराखंड में हजारों करोड़ रूपये के काम यूपी निर्माण निगम को दिये गये। जिसमें प्रदेश में शौचालय से लेकर बड़ी परियोजना की डीपीआर बनाने और उनके निर्माण तक के ठेके शामिल हैं । इस निगम से अफसरों के प्रेम का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वेबसाइट बनाने तक का काम भी निगम को मिला।

अहम बात यह है कि यूपी निर्माण निगम पर यह मेहरबानी प्रदेश की आधा दर्जन से अधिक कार्यदायी संस्थाओं को दरकिनार कर की गई। आज सिस्टम खुद इस बात को मानता है कि निर्माण निगम ने प्रदेश में अंधेरगर्दी के सारे रिकार्ड तोड़े। इस पर यकीन तब हुआ जब प्रदेश में निर्माण निगम के एक अधिकारी और ठेकेदार की सैकड़ों करोड़ रूपये की संपत्ति का खुलासा हुआ।

दरअसल यूपी निर्माण निगम के साथ यहां के नेता और अफसर इसलिए सहज रहे क्योंकि निगम, सरकार और अधिकारियों के बीच जो खेल चलता रहा उसका कभी खुलासा ही नहीं हुआ। प्रदेश से बाहर की संस्था होने के कारण आडिट में भी यह खेल सामने नहीं आया। मोटे आकलन के मुताबिक यूपी निर्माण निगम को दिए गए कार्यों में कुल राशि में से 50 प्रतिशत से अधिक का खेल होता रहा है। ऐसा नहीं है कि निर्माण निगम को कभी विरोध न हुआ हो। इसके द्वारा किए गए कामों की गुणवत्ता पर हमेशा सवाल उठते रहे। इसके चलते एक-दो बार इसे कार्यदायी संस्थाओं की सूची से हटाया भी गया, लेकिन बाद में फिर शामिल भी कर लिया गया। कुल मिलाकर इस बात में कोई दोराय नहीं है कि यूपी निर्माण निगम आज उत्तराखंड में सबसे कुख्यात संस्था है।

बहरहाल जब इनकम टैक्स के छापे में इसके अधिकारियों की पोल खुली तो सरकार ने इससे किनारा करने का निर्णय लिया। सरकार की मेहरबानी ही रही कि यूपी निर्माण निगम को सिर्फ नये काम देने पर रोक लगायी, जबकि उसके अभी तक किए गए सभी निर्माण कार्यों की जांच होनी चाहिए थी। उन अफसरों से वसूली होनी चाहिए थी जिन्होंने इस संस्था को काम दिए। उन नेताओं के नाम का खुलासा होना चाहिए था, जिनकी सिफारिश पर ये काम दिए गए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि अब तो इससे भी गंभीर बात यह है कि सरकार ने यूपी निर्माण निगम का विकल्प ढूंढ लिया है।

अपने राज्य की संस्थाओं को प्रोत्साहित करने के बजाय सरकार एनबीसीसी पर भरोसा कर रही है। उत्तराखंड राज्य अवस्थापना विकास निगम से लेकर लोक निर्माण विभाग, सिंचाई विभाग और पेयजल निगम समेत प्रदेश की तमाम अपनी निर्माण एजेंसियां है, जिनके पास कोई खास काम भी नहीं है। लेकिन सरकार इनके बजाय उस एनबीसीसी पर भरोसा कर रही है, जो उत्तराखंड में पहले ही बदनाम हो चुकी है।

बताते चलें कि उत्तराखण्ड में एनबीसीसी का आगाज प्रदेश में विजय बहुगुणा के काल में हुआ। इसे आपदा के दौरान क्षतिग्रस्त हुए पुलों के निर्माण से लेकर गैरसैंण में बने विधानसभा भवन और देहरादून में निर्मित फ्लाई ओवरों के काम दिए गए। इन सब कामों में गुणवत्ता को लेकर तमाम सवाल उठते रहे हैं। प्रदेश में इसके द्वारा बनाए गए पुल तो बनते-बनते ही टूट भी चुके हैं। एनबीसीसी के कार्यों की गुणवत्ता को लेकर जितनी शिकायतें अब तक सामने आई हैं, उस लिहाज से तो इसे प्रदेश मैं ब्लैक लिस्टेड होना चाहिए।

दरअसल सच यह है कि एनबीसीसी उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम से कमतर नहीं है। यही कारण है कि प्रदेश के कई नेता इसके मोहपाश में हैं। इन दिनों त्रिवेंद्र सरकार की एनबीसीसी से नजदीकियां बढ़ रही है। एनबीसीसी के प्रमुख की मुख्यमंत्री से मुलाकात के बाद यह सुनने में आ रहा है कि सरकार प्रदेश के हर जिले में एक नया टूरिस्ट डेस्टिनेशन विकसित करने की महत्वकांक्षी योजना को एनबीसीसी को सौंपने की तैयारी में है।

बताया तो यह जा रहा है कि अब सिर्फ औपचारिकता बाकी है। यह स्थिति तब है जब पर्यटन विभाग की एजेंसियां, गढ़वाल मंडल विकास निगम और कुमाऊं मंडल विकास निगम खुद निर्माण एजेंसियां हैं। सरकार यह भी भूल रही है कि राज्य निर्माण के वक्त राजधानी निर्माण से जुड़े तमाम छोटे-बड़े काम गढ़वाल मंडल विकास निगम ने ही संपन्न किए थे। इसके बाद भी इन सब तथ्यों को भुलाकर सरकार एनबीसीसी पर कृपा बरसा रही है, तो साफ है कि कहीं कोई नयी खिचड़ी पक रही है। ऐसा है तो फिर यह नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसा है।.

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