नौकरशाही के दबाव में लोकायुक्त कानून को ठेंगा!
- “न खाऊंगा और न खाने दूंगा” के नारे का क्या हुआ हश्र !
- भ्रष्टाचार जड़ से खत्म करने के मतदाताओं से किए गए वायदे का क्या हुआ हश्र !
उमाकांत लखेड़ा
बात एक माह पुरानी ही चुकी है लेकिन समसामयिक भी है कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिए गए अपने भाषण में उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए स्थायी आयोग गठित करने की मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की घोषणा से वे सारे लोग हतप्रभ हैं जो 17 बरस से इस प्रदेश में भ्रष्टाचार करने वाले नौकरशाहों और राजनेताओं को सजा दिलाने के लिए एक सशक्त लोकायुक्त की बाट जोह रहे थे।
लोगों को हैरत इस बात पर ज्यादा हुई कि मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी शासन के लिए जनता से सहयोग की अपील के साथ ही “भ्रष्टाचार से आजादी और नशे से आजादी” जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया। इन पांच महीनों में सरकार के मुखिया के मुंह से भ्रष्टाचार के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की थोथी बातें सुन सुनकर मतदाता ही नहीं भाजपा के समर्थक भी ऊब चुके हैं। मार्च 2017 में बनी भाजपा सरकार के घोषणा पत्र में वायदा किया गया था कि 100 दिन के भीतर लोकायुक्त गठित करके राज्य को भ्रष्टाचार मुक्त करने का बीड़ा उठाया जाएगा। सरकार बने छह माह पूरे होने को हैं। लोकायुक्त गठन पर मुख्यमंत्री और उनकी पूरी पार्टी जनता की आंखों में धूल झोंक रही है। यहां बताते चलें कि भाजपा ने उत्तराखंड में सत्ता में आने के पहले अपने घोषणापत्र में लिखा था :-
” कांग्रेस के शासन (हरीश रावत सरकार) में अगर देवभूमि में कुछ बचा है तो वह सिर्फ भ्रष्टाचार। खनन माफिया, भूमाफिया और शराब माफिया के चलते आज उत्तराखंड अंदर ही अंदर खोखला हो गया है। भाजपा इस भ्रष्टाचार रूपी दानव को नष्ट करने और प्रदेश में भ्रष्टाचार मुक्त शासन और स्वच्छ प्रशासन देने का संकल्प लेती है।”
भाजपा का घोषणापत्र आगे कहता है कि ‘‘प्रदेश में मुख्यमंत्री, मंत्री व अन्य जन प्रतिनिधियों, शासन प्रशासन के उच्च अधिकारियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के प्रकरणों की सुनवाई के लिए पिछली भाजपा सरकार द्वारा बनाए गए लोकायुक्त कानून को प्रभावी तरीके से लागू कर 100 दिन के भीतर लोकायुक्त की नियुक्ति की जाएगी।‘‘
त्रिवेंद्र सरकार सरकार ने कार्यभार ग्रहण करने के बाद विधानसभा के पहले ही सत्र में जोश में आकर घोषणा की थी कि सरकार लोकायुक्त नियुक्त करके भ्रष्टाचार के खात्मे के अपने वायदे को सबसे पहले पूरा करेगी। उस वायदे की 24 घंटे बाद ही हवा निकल गई। अचानक इस विधेयक को विधानसभा की प्रवर समिति के सुपुर्द कर दिया गया। प्रवर समिति के जरिए लोकायुक्त विधेयक के कड़े प्रावधानों के पर कतर दिए गए। उसमें निष्पक्ष जांच की प्रक्रिया में भ्रष्ट नौकरशाहों को बचाने का रास्ता तलाश लिया गया। यानी जिस लोकायुक्त कानून का सरकार बनाने के पहले व बाद में कुछ दिनों तक खूब ढोल पीटा गया, वह सब पाखंड था।
अब सरकार इस लंगड़े लोकायुक्त कानून को भी लागू नहीं कर पा रही। उसे इस राज्य की नौकरशाही ने होशियारी के साथ ठंडे बस्ते में डलवा दिया है। खुद मुख्यमंत्री इस मामले पर आए दिन अलग-अलग व परस्पर विरोधी बयान दे रहे हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि लोकायुक्त कानून पर क्या प्रगति हुई है तो मुख्यमंत्री का जवाब होता है कि भ्रष्टाचार के मामलों में उनकी सरकार इतनी सख्ती से कार्रवाई करेगी कि लोकायुक्त कानून लाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। भले आदमी यह क्यों नहीं कहते कि भ्रष्टाचारियों को बचाना ही अब उनकी सरकार का असली मकसद रह गया है।
बात भष्टाचार की जांच के लिए मुख्यमंत्री की ओर से दिए गए स्थायी आयोग बनाने की बात से आरंभ करें तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड में मजबूत लोकायुक्त गठन कर भ्रष्टाचारियों को सख्त सजा के जिस संवैधानिक प्रावधान को पूरा करने के लिए भाजपा ने उत्तराखंड की जनता से वोट मांगा था, मुख्यमंत्री ने अपनी ही पार्टी के उस वायदे की भ्रूण हत्या कर दी है। आम लोगों की खुशफहमी अब दूर होती जा रही है कि उत्तराखंड में भाजपा व कांग्रेस के शासन काल के घपले-घोटालों पर दोषी नेताओं व ताकतवर नौकरशाहों की जांच तो दूर उनका बाल बांका भी नहीं होने जा रहा। अब हर कोई जानने लगा है कि कुर्सी संभालते ही 24 घंटे बाद ही सरकार पलटी मार गई। अपनी ही घोषणा पर लीपापोती करते हुए हाथ पीछे खींच दिए कि पहले प्रवर समिति उत्तराखंड लोकायुक्त कानून के प्रावधानों की समीक्षा करेगी। इन सारी बातों ने प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी सरकार के प्रति मतदाताओं के भरोसे को बुरी तरह हिला दिया।
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए स्थायी आयोग किस चिड़िया का नाम है, किसी को नहीं मालूम।बीते 17 बरस से जनता उत्तराखंड को वाकई एक भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश बनने का सपना देख रही है। उत्तराखंड के लोगों को मुख्यमंत्री की नीयत पर पूरा भरोसा है। कई लोगों का यह भी सुझाव है कि मुख्यमंत्री को सबसे पहले अपने कार्यालय को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहिए। वजह यह कि मुख्यमंत्री ने अपने उप मुख्यसचिव जैसे ताकतवर पद पर ऐसे व्यक्ति ओम प्रकाश को आसीन कर रखा है जिन पर कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। पूरे राज्य से लेकर दिल्ली में स्थानीय आयुक्त पद पर ऐसे लोगों को बेहद संवेदनशील पदों पर बिठाया गया हैं जिनका अतीत भ्रष्टाचार के काले कारनामों से कलंकित है। यहां तक कि उत्तराखंड के राज्यपाल तक ने कुछेक अधिकारियों को दोषी करार दिया लेकिन वे सब मजे में हैं।
मुख्यमंत्री की अपनी पार्टी और संघ परिवार के असरदार लोग निजी बातचीत में खुलकर शिकायत कर रहे हैं कि ऐसे बदनाम अधिकारियों की सलाह पर काम करने वाले मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार से कैसे लड़ सकेंगे ? उत्तराखंड में भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों को बचाने में मुख्यमंत्री कार्यालय सबसे ज्यादा सक्रियता दिखा रहा है ऐसी आम चर्चा है। एक हैरतअंगेज मामला खूब गरमाया हुआ है। उत्तराखंड पेयजल निगम के प्रबंध निदेशक भजन सिंह पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामले लंबित हैं। हाल में भजन सिंह का एक स्टिंग ऑॅपरेशन अचानक चर्चा में आया। पेयजल मंत्री प्रकाश पंत ने इस बदनाम एमडी भजन सिंह पर कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। इस बात की जानकारी उन्होंने बाकायदा मीडिया को दी। पांच दिन बीतने के बाद मुख्यमंत्री का बयान आता है कि उन्हें एमडी पेयजल निगम पर कार्रवाई के बाबत मंत्री प्रकाश पंत से कोई पत्र नहीं मिला। इस पर खत लिखने वाले मंत्री की उल्टे किरकरी हो गई। सवाल यह है कि अगर मुख्यमंत्री अपनी कैबिनेट में सबसे वरिष्ठ मंत्री के इतने अहम पत्र पर जानबूझकर अनभिज्ञता प्रकट करेंगे तो गांव-गांव में भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता कैसे इस सरकार में न्याय की उम्मीद करेगी।
दूसरी ओर उधमंसिंहनगर में एनएच-74 के निर्माण कार्य व जमीन के बदले भूस्वामियों को मुआवजा बांटने के प्रकरण में 300 करोड़ रूपए के भारी सरकारी बजट की खुली लूट हो गई। यह मामला भी त्रिंवेद्र सरकार के राज में ही सामने आया। कमिश्नर सैंथिल पांडियन ने दोषी सरकारी अधिकारियों पर तत्काल एफआईआर दर्ज करवा दी। मुख्यमंत्री ने इसे गंभीर मामला बताते हुए सीबीआई जांच करवाने की सिफारिश कर डाली। चार महीने भी बीत गए। कोई जांच तो दूर पत्ता तक नहीं हिला। राज्य सरकार की नियत पर सवाल खड़े हो चुके हैं। क्या भ्रष्टाचार करने वालों से सरकार में बैठे लोगों का पर्दे के पीछे कोई समझौता हो चुका है। अगर नहीं हुआ तो भ्रष्टाचार करने वालों और उनके पीछे सफेद पोश लोगों व पूर्व कांग्रेस सरकार में बैठे लोगों पर कार्रवाई में इतनी हीलाहवाली क्यों हो रही है।
300 करोड़ रूपए का यह घोटाला उस पर्वतीय राज्य में हो रहा है जिसके पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। एनएच घोटाले में कृषि भूमि को गैर कृषि भूमि बताकर मुआवजे को अधिकारियों ने माफिया की मिलीभगत से डकार लिया। आश्चर्य इस बात का है कि एनएचआई के चेयरमैन युद्धवीर सिंह ने उत्तराखंड के मुख्यसचिव एम रामास्वामी को 26 मई 2017 को पत्र लिखकर दो टूक कह दिया कि इसमें एनएचएआई अधिकारियों को न घसीटा जाए।
ज्ञात रहे कि केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय के उस पत्र को भी जानबूझकर देहरादून में अखबारों को लीक करवाया कि राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं की सीबीआई जांच हुई तो इससे अधिकारियों के मनोबल पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। अगर यही मानदंड हैं तो फिर “न खाऊंगा और न खाने दूंगा” के नारे का क्या हश्र होगा। प्रश्न यह है कि कोई सरकार इस तर्क की आड़ लेकर सरकार के शीर्ष में बैठ लोगों व अधिकारियों के भ्रष्टाचार व व्यभिचार को खुला सरंक्षण देने का दुस्साहस करेगी तो फिर भ्रष्टाचार जड़ से खत्म करने के मतदाताओं से किए गए वायदे का क्या हश्र होगा। जनता भले ही वक्त आने पर जवाब देगी लेकिन जाहिर है तब तक बहुत देर हो चुकेगी।”