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उत्तराखंड में देवीय आपदाओं की प्रवृत्ति एवं प्रकृति

सौ-सवा-सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से लगातार पड़ा है जूझना 

कमल किशोर डुकलान

प्राचीन समय से ही प्राकृतिक आपदा आम बात 

यदि सौ-सवा-सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ा है। इनमें कुछ प्रमुख आपदाएं और उनसे हुई तबाही के ब्योरे देखे जा सकते हैं –

1894 में गौणा झील का टूटना।
1916 में पिथौरागढ़ जिले में भूकंप, नीलकंठ में भूस्खलन।
1991 में उत्तरकाशी में विनाशकारी भूकंप, पिंडर घाटी में भूस्खलन से 246 लोगों की मौत, उखीमठ क्षेत्र में भूस्खलन से कई गांव तबाह, 70 लोगों की मौत।
1998 में पिथौरागढ़ में मालपा क्षेत्र में बादल फटने से करीब तीन सौ लोगों की मौत।
1999 में चमोली में भूकंप।
2002 में बूढ़ाकेदार में बादल फटने से तबाही।
2004 में टिहरी बांध में टनल धसने से 28 लोगों की मौत।
2005 में गोविंदघाट की तबाही।
2010 में कपकोट बागेश्वर में भूस्खलन।

2013 में आई प्राकृतिक आपदा से तो उत्तराखंड उबरने की कोशिश ही कर रहा है। उत्तराखंड को कई दशक पीछे ले जाने वाली यह आपदा भीषण बारिश, बाढ़ और भूस्खलन का नतीजा थी, जिसमे हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हुए और न जाने कितने भवन ध्वस्त हो गए। गांव के गांव भूगोल से गायब हो गए।

उत्तराखंड की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में वरदान रही है। प्राकृतिक आपदाओं के तौर पर भूकंप,बाढ़, भूस्खलन,बादल फटने,वनाग्नि,हिमखंडो के गिरने की घटनाओं के रुप में प्राकृतिक आपदाएं भी झेलनी पड़ रही है। प्रकृति को छेड़ने और विकास के लिए उसके अति दोहन की प्रवृत्ति ने उत्तराखंड के जनजीवन को प्रभावित तो किया ही है। पलायन और रोजगार,स्वास्थ्य,शिक्षा के लिए यहां के लोगों की गावों से निकलने की एक बड़ी वजह मूलभूत सुविधाओं का प्रकृति पर प्रकोप भी रहा है। बेशक प्रकृति के प्रकोप को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन आपदाओं के समय बचाव, संरक्षण,पुनर्वास,राहत कार्य के लिए जो प्रभावी ढ़ांचा होना चाहिए था,उसमें काफी शिथिलता दिखती है।जबकि राज्य बनने के बाद आपदा प्रबंधन पर सबसे ज्यादा सजगता होनी चाहिए थी। जून 2013 में उत्तरकाशी और केदारनाथ में हुई त्रासदी और फरवरी 2021की चमोली में आई आपदा ने यही साबित किया कि प्राकृतिक आपदाओं के बाद की स्थितियों ले निपटने में तंत्र बहुत कमजोर दिखता है।

उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप को समझने के लिए अतीत के अनेकों उदाहरण हैं। गोरखाओं ने 1790 में कुमाऊं के चंद राजाओं को हराकर इस क्षेत्र को जीत था। इसके कुछ समय बाद सन् 1804 में अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गढ़वाल पर भी अपना अधिकार कर लिया। इन युद्धों के बारे में कहा जाता है कि पहाड़ी शासकों की अपनी कमजोरियों के साथ-साथ विनाशकारी भूकंप भी बहुत बड़ी वजह थी। गढ़वाल का अधिकांश इलाके में उस समय आए भूकंप से तहस-नहस हुआ था। ऐसे में गोरखाओं को आक्रमण करने का अच्छा अवसर मिल गया।प्राचीन समय से ही प्राकृतिक आपदा आम बात रही है। पिछले सौ-सवा-सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ा है।जिसमें हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हुए और न जाने कितने भवन ध्वस्त हो गए।एक प्रकार से गांव के गांव हमारे भूगोल से गायब हो गए।

उत्तराखंड में समय-समय पर आई आपदाएं इस बात का प्रतीक हैं,कि यह क्षेत्र काफी संवेदनशील है। इन परिस्थितियों के लिए कुछ तो दैवीय आपदा जिम्मेदार है,और कुछ आपदाओं से होने वाले नुकसान के पीछे बहुत कुछ जीवन जीने की बदलती शैली, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनो का अंधादुंध दोहन,अवैध खनन,बहुमंजिली इमारतों का विस्तार जैसे कारण भी जिम्मेदार हैं। अगर देखें तो मानव की सुख सुविधाओं के लिए पहाड़ को छलनी करने का परिणाम है कि पूर्व में यदा-कदा होने वाली आपदाएं अब आए दिन घट रही हैं। प्रत्येक बर्षा ऋतु में पहाड़ी क्षेत्र में जाने का भय बना रहता है।जहां-तहां प्रकृति का तांडव दिख रहा है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पिछले सौ साल में पचास से ज्यादा विनाशकारी भूस्खलन आए हैं।

प्राकृतिक आपदा कहर तो बरपाती है,साथ ही उस क्षेत्र का विकास भी अवरुद्द हो जाता है।भूस्खलन,बाढ़ आदि के कारण कई तरह की रुकावटें आती हैं,जिससे उस क्षेत्र के पूरे जन-जीवन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में निर्माण कार्यों पर बहुत ध्यान दिए जाने की जरूरत है।खनन,नदी घाटियों के कुछ किनारे कुछ निश्चित सीमा तक निर्माण कार्य रोकने,वनीकरण को बढ़ावा देने,कृषि की समुचित प्रणाली,वनस्पतियों की सुरक्षा, बड़ी विकास परियोजना की समीक्षा पर काफी गंभीरता बरती जानी जरूरी है। समय-समय पर आ रही दैवीय आपदाओं के कहर और विकास के नाम पर अति दोहन के बावजूद राज्य का सरकारी तंत्र आपदा प्रबंधन को संवेदनशील होने की आवश्यकता है।

राज्य की जिम्मेदार एजेंसियां बहुत तत्पर नहीं दिखीं। यह भी अजब है कि देहरादून में, जो संवेदनशील जोन चार में है, 22 हजार से ज्यादा अवैध निर्माण चिन्हित हुए हैं। बताया जाता है कि मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के पास कई भवनों का रिकॉर्ड नहीं है। जर्जर इमारतों के खतरे अलग हैं। इसी तरह नदी घाटियों से अवैध खनन के खिलाफ आंदोलन होते रहे हैं। उत्तरकाशी, श्रीनगर जैसे शहर उजड़ रहे हैं। नदी इन शहरों के हिस्सों को काटती जा रही है। बहुमंजिली इमारतों का जाल उस उत्तराखंड में बिछ रहा है, जिसके अस्तित्व को लेकर पर्यावरणविद और भूविज्ञानी डरे हुए हैं। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में हमारा तंत्र किस प्रकार कमजोर है, उसकी झलक केदारनाथ त्रासदी में स्पष्ट हो गई। इससे पहले भी उत्तरकाशी, मालपा, बूढ़ाकेदार और उखीमठ की घटनाएं हमारे लिए सबक बन सकती थीं। लेकिन उनसे सीखा नहीं गया। इन घटनाओं से निपटने में प्रबंध तंत्र सक्षम नहीं था।

केदारनाथ की महाआपदा ने यह बता दिया कि वास्तव में इन परिस्थितियों से लड़ने के लिए हमारे पास कोई सिस्टम ही नहीं है। न प्रभावी संचार तंत्र, न सरकारी संस्थाओं में समन्वय, न चौकसी, न राहत-बचाव के तरीके, न इन हालात में गांव से शहर कस्बों को जोड़ने के लिए वैकल्पिक साधन। फिर सब कुछ सेना के भरोसे ही हो रहा है। यहां तक कि जो राहत सामग्री आई उसे निश्चित जगहों तक पहुंचाने के लिए कोई सिस्टम नहीं था। केवल सरकारों को ही दोष नहीं दे सकते। पहाड़ों की बदलती जीवनशैली भी इसमे आड़े आई है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आॅस्ट्रेलियाई मॉडल पर आपदा प्रबंधन एंव न्यूनीकरण केंद्र की स्थापना की गई है। राज्य आपदा प्रतिक्रिया निधि और राज्य आपदा न्यूनीकरण निधि का भी गठन किया गया है। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में आपदा प्रबंध प्राधिकरण गठित किया गया है। राज्य में प्राकृतिक आपदाओं से निकलने के लिए संचार खोज, भूकंप रोधी भवन, जन-जागरुकता के कुछ कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

विशेष तौर पर संवेदनशील राज्य के छह जिलों, 52 विकासखंडों और पैंसठ हजार गावों में आपदा प्रबंधन समिति का गठन किया गया है। आपदा के हालात से निपटने के लिए पुलिस, चिकित्सकों, शिक्षकों, राष्ट्रीय सेवा योजना, नगर आपदा प्रबंधन समिति को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई है। आपातकालीन परिचालन केंद्र को स्थापित करने के अलावा संचार प्रयोजन से लाल टिब्बा मसूरी में रडार लगाया गया है। जिससे दस पर्वतीय जनपद को सैटेलाइट से जोड़ा गया है। आपदा प्रबंधन कोष के लिए जिलाधिकारी को पचास लाख की धनराशि उपलब्ध कराई गई है। इन तमाम योजनाओं और प्रबंधों का फायदा मिल सकता है।

लेकिन उन पहलुओं पर गौर करना होगा कि राज्य बनने के बाद आपदा प्रबंधन जैसे महत्व के विषय पर उच्च स्तरीय बैठक क्यों नही हो पाई? देहरादून में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संस्थाओं में इस बारे में समन्वय क्यों नहीं हो पाता? मौसम विभाग की सूचनाओं आशंकाओं पर तत्परता क्यों नहीं दिखाई जाती? केदारनाथ की आपदा के बाद इस पूरे सिस्टम पर बहुत गंभीरता से पहल की जरूरत है। इस दिशा में संचार सिस्टम और कनेक्टिविटी पर भी ध्यान देना होगा। आपदा के बाद की स्थितियों और उससे निपटने के लिए विदेशों के बेहतर सिस्टम से हम सीख सकते हैं।

हालांकि नीति आयोग ने हिमालय नीति पर अपनी मोहर लगा दी है और केंद्र ने पहले ही ‘हिमालय अध्ययन केंद्र’ के लिए 100 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान रखा है। लेकिन सबसे जरूरी यह है कि हिमालय के आसन्न संकट को समझते हुए व्यावहारिक कदम उठाए जाएं। दैवीय आपदाओं को बेशक रोका नहीं जा सकता,लेकिन संकट को कम जरूर किया जा सकता है। राहत व्यवस्था को चौकस बनाया जा सकता है। स्थितियों पर नियंत्रण करना के लिए प्रभावी पहल की जा सकती है। सरकार ने हाल में गंगा के किनारे एक निश्चित सीमा तक निर्माण कार्य पर रोक लगाई है। इसके अलावा भी अलग-अलग स्तर पर चौकसी बरतने के संकेत हैं। लेकिन सब कुछ बहुत तत्परता और ठोस तरीके से करना होगा। अब भी सड़कों पर बीस फुट के गहरे गड्ढे दिख रहे हैं। घाटों पर मलबा हटाने के नाम पर गंगा सफाई के बहाने अवैध खनन होता रहता है।

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