शिलापट में दी गईं अधिकांश जानकारियां अपुष्ट,भ्रामक एवं वास्तविक तथ्यों के हैं विपरीत
प्रयाग पांडे
नैनीताल । छायाकार श्री अमित साह जी के सौजन्य से आज मुझे इस शिलापट की तस्वीर प्राप्त हुई। नैनीताल के ‘अतीत की जानकारी’ प्रदान करने के निमित्त नैनी झील के समीप यह शिलापट लगाया गया है। बताया गया कि यह शिलापट पुरातात्विक महत्व के भवनों के जीर्णोद्धार एवं संरक्षण के निमित्त पर्यटन विभाग के प्रोजेक्ट “ADB टूरिज्म” के अंतर्गत चल रहे कार्यों के तहत लगाया गया है। अफ़सोस कि इस शिलापट में दी गईं अधिकांश जानकारियां अपुष्ट,भ्रामक एवं वास्तविक तथ्यों के विपरीत हैं।उदाहरणार्थ:-
(1)शिलापट में लिखा गया है कि तीन ऋषि “अपराधों के प्रायश्चित के लिए यहाँ आए थे।” जबकि मानसखंड में कहा गया है कि अत्रि,पुलह और पुलस्त्य ऋषि कठोर तप करने हेतु गर्गाचल की यात्रा पर निकले थे,उन्होंने थोड़ी देर के लिए यहाँ विश्राम किया।
(2)शिलापट में लिखा है कि “नैनीताल में पहला ब्रिटिश व्यक्ति 1823 में जी.डब्ल्यू. ट्रेल के रूप में आया।” इस बात के कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं हैं कि ट्रेल किस वर्ष नैनीताल आए या यहाँ से गुजरे। जॉर्ज विलियम ट्रेल,कुमाऊँ के दूसरे कमिश्नर थे।1817 से 1829 के दौरान किए भूमि बंदोबस्त के दौरान संभवतः उन्होंने नैनीताल को देखा हो या यहाँ से गुजरे हों।ट्रेल ने 1823 में अपने दस्तावेजों में लिखा है कि “उन्होंने छः खाता जिले के विभिन्न क्षेत्रों में बेहद गजब की झीलें ढूंढी हैं,इनमें नैनीताल,भीमताल और नौकुचियाताल शामिल है।” ट्रेल के 1823 में नैनीताल आने का कहीं कोई जिक्र नहीं है।संभव है कि ट्रेल से पहले भी कोई ब्रिटिश नागरिक यहाँ आए हों।लेकिन निर्विवाद सत्य यह है कि नैनीताल को एक स्वास्थ्यवर्धक पहाड़ी नगर के रूप में बसाने और विकसित करने की परिकल्पना करने वाले पीटर बैरन पहले यूरोपीय नागरिक थे। पीटर बैरन, उनके साथी जे.एच. बैटन एवं कैप्टन वेलर 18 नवंबर,1841 को पहली मर्तबा बमुश्किल नैनीताल पहुँचे, उन्होंने ही तत्कालीन ब्रिटिश शासकों को नैनीताल को एक आदर्श नगर के रूप में विकसित करने के लिए प्रेरित किया।इस दृष्टि से पीटर बैरन नैनीताल नगर के परिकल्पनाकर्ता अथवा योजनाकार थे।हालाँकि अधिकांश इतिहासकार नैनीताल की खोज का श्रेय पीटर बैरन को ही देते हैं।आश्चर्यजनक रूप से इस शिलापट में बैरन का कोई उल्लेख नहीं है।
(3)शिलापट में लिखा गया है कि “यहाँ 1841 में तत्कालीन आयुक्त (कुमाऊँ) जी.टी. लुसिंगटन द्वारा नगरीकरण का प्रारंभ किया गया।” यह बात तथ्यों से परे है।वास्तविकता यह है कि नैनीताल को सरकारी दस्तावेजों में 1842 में अधिसूचित किया गया था।करीब आधे दर्जन से अधिक लोगों ने यहाँ मकान बनाने के लिए भूमि आवंटन हेतु आवेदन कर दिया था।हाँ, खुद लुसिंगटन ने एक छोटा-सा घर बनाना प्रारंभ कर दिया था।उन्होंने कुछ आउट हाउस बना भी लिए थे।जब नैनीताल को एक नगर के रूप में विकसित करने की अधिसूचना 1842 में निर्गत हुई तो लुसिंगटन द्वारा 1841 में नगरीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ होना कैसे संभव है?
(4)इस शिलापट में लिखा गया है कि “1862 में यह उत्तर पश्चिमी राज्यों के ग्रीष्मकालीन वास के रूप में प्रयुक्त होने लगा तथा 1892-93 में जिला घोषित हो गया।” जबकि सच्चाई यह है कि 1862 में नैनीताल को “उत्तर पश्चिमी राज्यों के ग्रीष्मकालीन वास” नहीं बल्कि नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया गया।जबकि 15 अक्टूबर,1891 को नैनीताल को अलग जिला बना दिया गया था।नैनीताल ब्रिटिश कुमाऊँ प्रोविंस का तीसरा जिला था।
काबिल -ए- गौर है कि नैनीताल का इतिहास बदलने की यह कवायद पुरातात्विक महत्व के भवन/स्थानों के संरक्षण के नाम पर हो रही है।इन भ्रामक एवं अपुष्ट जानकारियों को लेकर नगरवासियों में कोई प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि नैनीताल के इतिहास को नए नजरिए से परिभाषित करने वाली इस नायाब जानकारी के प्रकाश में आने के बाद हर साल18 नवंबर को नैनीताल का जन्मदिन (?) मनाने वालों की क्या प्रतिक्रिया होती है?
(प्रयाग पांडेय उत्तराखंड के जाने माने इतिहासकार है यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है ।)