जनता अब नहीं करेगी आंदोलनों पर विश्वास..!

सतीश लखेड़ा
अन्ना आंदोलन में दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर सड़कों तक ऐतिहासिक जन समुद्र उमड़ पड़ा था, विद्यार्थी, प्रोफेशनल्स, एनआरआई का सैलाब था। मीडिया और सोशल मीडिया की पहुंच ने देश के हर नागरिक को आंदोलन से जोड़ दिया था। वातावरण पूर्णतः परम्परागत राजनीति से अलग था। जनता इस आंदोलन में देश के नये नेतृत्व को उभरता देख रही थी। लहराते तिरंगे, अनुशासित जनसैलाब, भारतमाता के जयघोष के नारे पूरे देश के अन्तर्मन को प्रभावित कर रहे थे, निःसंदेह जिन्होंने आजादी की लड़ाई का वातावरण नहीं जिया होगा वे इस वातावरण में उस भाव का निकटता से अनुभव कर रहे थे।
देश की आजादी के तुरन्त बाद मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा स्थापित मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सोच, नेहरू के कश्मीर प्रेम, उग्र राष्ट्रवादियों की उपेक्षा, सरदार पटेल की स्वीकारोक्ति को बढ़ने से रोकने के षड्यंत्र आदि ने संवेदनशील सेनानियों को मुख्यधारा की राजनीति से अलग होने को मजबूर कर दिया और देश का एक बड़ा वर्ग जो नये भारत के निर्माण में उपयोगी हो सकता था पटल से ही अदृश्य हो गया उनका स्थान चाटुकारों, दरबारियों और अंग्रेजपरस्त सिंडिकेट ने ले लिया। जिसका दुष्प्रभाव हम भोग रहे हैं। आजादी इतनी भर मिली कि गोरे अंग्रेज चले गये। आजादी के तीन दशक बाद जेपी आंदोलन का भी ऐसा ही हश्र हुआ।
नेहरू इंदिरा के विकल्प के रूप में देश के समक्ष जब समाजवादी सोच सामने आयी तब इंदिरा गांधी की लोकतंत्र विरोधी नीति के खिलाफ जनमानस मुखर था। जनता ने समाजवादी मॉडल और विचार को हाथोंहाथ लिया जो शीघ्र ही एक बड़ा आन्दोलन बन गया। देश को एक आह्वान पर जोड़ने वाले समाजवादी नेता खुद आपस मे नहीं जुड़ पाये और पूरा आन्दोलन अहंकार या कहें राजनीतिक नासमझी की भेंट चढ़ गया। उस आंदोलन के महत्वपूर्ण नाम मधु लिमये ने तो समाजवादी आंदोलन पर बढ़ते कांग्रेसी प्रभाव से व्यथित होकर सक्रिय राजनीति ही छोड़ दी, उन्होंने मोरारजी मन्त्रिमण्डल में शामिल होने से भी मना कर दिया, आजादी की लड़ाई के बाद यह दूसरा आंदोलन था जो पूरे देश को प्रभावित करने के बाद भी वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पँहुचा।
समाजवादी आंदोलन के साढ़े तीन दशक बाद दिल्ली के रामलीला मैदान से स्वच्छ, पारदर्शी और वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले अन्ना हजारे के नेतृत्व में खड़ा हुआ आंदोलन जनता को सम्मोहित सा कर गया था। अन्ना के साथ गैरराजनैतिक नौजवानों का समूह जोश से लबालब था। भ्रष्टाचार विरोध के अतिरिक्त इस टीम के पास देश के लिये कोई रोडमैप, एजेंडा और विजन भले न था मगर पूरे देश का इस आंदोलन के लिए आदर और विश्वास था।
कालान्तर में अन्ना से केजरीवाल के मतभेद, करोड़ों के चन्दे पर विवाद, केजरीवाल पर तानाशाही के आरोपों के चलते योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, प्रोफेसर आनन्द को बाहर का रास्ता दिखाना, अंजली दमानिया द्वारा उठाये गम्भीर सवाल, कुमार विश्वास पर अमानतुल्ला के आरोप सुर्खियां बन गये। बारह हजार की थाली से लेकर कपिल मिश्रा तक के आरोप तक की यात्रा मात्र केजरीवाल के राजनैतिक भविष्य का विमर्श नहीं है ये अन्ना के नेतृत्व में रामलीला मैदान के आंदोलन का दाह संस्कार भी है क्या अब जनता को बड़े उद्देश्यों के लिये लामबंद किया जा सकेगा..? यक्ष प्रश्न है कि क्या फिर किसी जनहित राष्ट्रहित के विषय पर जनता को इस स्तर पर एकजुट किया जा सकेगा…?
लेखक श्री सतीश लखेड़ा, एक वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता व स्वतंत्र लेखक हैं। लखनऊ से उच्चशिक्षा लेने के बाद पहले तो पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे। तत्पश्चात 2002 से स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रहे हैं। यह उत्तराखण्ड में भाजपा के मीडिया प्रभारी, प्रदेश प्रवक्ता व मुख्यमंत्री के निजी मीडिया सलाहकार रह चुके हैं।