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आध्यात्म की दृष्टि से श्री कृष्णजन्म का गूढ़ अर्थ

कमल किशोर डुकलान
 प्राचीन काल से हमारी कहानियों का सौंदर्य यह है कि वे कभी भी किसी विशेष स्थान या विशेष समय पर नहीं बनाई गई हैं। रामायण या महाभारत काल की जितनी भी घटनाएं हैं वे घटित घटनाएं मात्र नहीं हैं। अगर देखा जाए तो ये घटनाएं हमारे जीवन में रोज घटती हैं। जिनका सार शाश्वत है।
श्री कृष्ण लीला में हमें श्री कृष्ण के जन्म से लेकर उनकी लीलाओं का कहानी रुप में सामान्य स्मरण तो सबको होगा ही। आज कृष्ण जन्मोत्सव है और श्री कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर आध्यात्मिकता की दृष्टि से श्री कृष्ण जन्म कहानी का गूढ अर्थ को समझना आवश्यक है। हमारे जीवन में प्रतिदिन घटित होती हैं और जिनका सार शाश्वत सत्य है।
कृष्ण जन्म की कहानी में देवकी शरीर तथा वासुदेव जीवन शक्ति अर्थात प्राण का प्रतीक है। कहां जाता है कि जब किसी में शरीर प्राण धारण होता है,तो वहां आनंद अर्थात श्री कृष्ण का जन्म होता है। लेकिन दूसरी ओर (कंस) रुपी अहंकार मनुष्य के आनंद को समाप्त करने का प्रयास करता है। देवकी के विवाह के अवसर पर जब कंस देवकी को विदा करने जा रहा था उसी समय कंस के लिए अशुभ आकाशवाणी होने के बाद देवकी का भाई कंस यहां यह दर्शाता है कि शरीर के साथ-साथ अहंकार का भी अस्तित्व है। एक प्रसन्न एवं आनंदचित्त व्यक्ति कभी किसी के लिए समस्याएं नहीं खड़ी करता है,परन्तु दुखी और भावनात्मक रूप से घायल व्यक्ति अक्सर दूसरों को घायल करते हैं,या उनकी राह में अवरोध पैदा करते हैं। जिस व्यक्ति को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है, वह अपने अहंकार के कारण दूसरों के साथ भी अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है।
अहंकार का सबसे बड़ा शत्रु आनंद है। जहाँ आनंद और प्रेम है वहां अहंकार टिक नहीं सकता,उसे झुकना ही पड़ता है। समाज में एक बहुत ही उच्च स्थान पर विराजमान व्यक्ति को भी अपने छोटे बच्चे के सामने झुकना पड़ जाता है। जब बच्चा बीमार हो, तो कितना भी मजबूत व्यक्ति हो,वह अपने को थोडा असहाय महसूस करने ही लगता है। प्रेम,सादगी और आनंद के साथ सामना होने पर अहंकार स्वतः ही ओझल होने लगता है। इस कहानी में श्री कृष्ण आनंद के प्रतीक,सादगी के सार एवं प्रेम के स्रोत हैं।
कंस के लिए आकाशवाणी होने के बाद कंस द्वारा देवकी और वासुदेव को कारावास में डालना इस बात का सूचक है कि जब अहंकार बढ जाता है तब शरीर एक जेल की तरह हो जाता है ऐसे समय में भगवान श्री कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं,जेल के पहरेदार वह इन्द्रियां है जो अहंकार की रक्षा कर रही हैं क्योंकि जब वह जागता है तो बहिर्मुखी हो जाता है। श्री कृष्ण का जन्म होने पर जेल की पहरेदार रुपी इन्द्रियाओं का अंतर्मुखी होना ही हमारे भीतर के आंतरिक आनंद का उदय होना है।
श्री कृष्ण की बाल लीलाओं में भगवान श्री कृष्ण माखनचोर के रूप में भी जाने जाते हैं। दूध पोषणता का सार है और दूध का एक परिष्कृत रूप दही है। जब दही का मंथन होता है,तो मक्खन बनता है और मक्खन ऊपर तैरता है। मक्खन भारी नहीं बल्कि हल्का और पौष्टिक भी होता है। जब हमारी बुद्धि का मंथन होता है, तब यह मक्खन की तरह हो जाती है। उस समय मन में ज्ञान का उदय होता है, और व्यक्ति अपने स्व में स्थापित हो जाता है। दुनिया में रहकर भी वह अलिप्त रहता है,उसका मन दुनिया की बातों से / व्यवहार से निराश नहीं होता।श्री कृष्ण की माखनचोरी इस कहानी में प्रेम की महिमा के चित्रण का प्रतीक है। बचपन में श्री कृष्ण का माखन चुराने में इतना आकर्षण और कौशल है कि वह सबसे संयमशील व्यक्ति का भी मन चुरा लेते हैं।
श्री कृष्ण के सिर पर मोर पंखी मुकुट इस बात का प्रतीक है कि एक राजा अपनी पूरी प्रजा के लिए किस प्रकार ज़िम्मेदार होता है। वह ताज के रूप में इन जिम्मेदारियों का बोझ अपने सिर पर धारण करता है। लेकिन श्री कृष्ण अपनी सभी जिम्मेदारी एक खेल की तरह बड़ी सहजता से पूरी करते हैं-जैसे किसी माँ को अपने बच्चों की देखभाल कभी बोझ नहीं लगती। श्री कृष्ण को भी अपनी जिम्मेदारियां बोझ नहीं लगतीं हैं और वे विविध रंगों भरी इन जिम्मेदारियों को बड़ी सहजता से एक मोरपंख के रूप में अपने मुकुट पर धारण किये हुए हैं।
श्री कृष्ण हम सबके भीतर एक आकर्षक और आनंदमय धारा के रुप में विराजमान हैं। जब मन में कोई बेचैनी,चिंता या इच्छा न हो तब ही हम गहरा विश्राम पा सकते हैं भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को मथुरा वासियों में एक गहरे विश्राम में ही मथुरा में श्री कृष्ण का जन्म हुआ। श्री कृष्ण जन्माष्टमी का आशय ही यही है कि समाज में खुशी की एक लहर लाने का समय है -यही श्री जन्माष्टमी का भी संदेश है। हमारा हर पर्व उत्सव गंभीरता के साथ आनंदपूर्ण बनें।

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