रवाईं घाटी का “तिलाड़ी कांड” था जलियावाला बाग़ हत्याकांड की ही तरह !

- जलियावाला बाग़ हत्याकांड की तरह ही था रवाईं का ”तिलाड़ी”काण्ड
- 11 बार टिहरी लोकसभा के लोगों ने राजपरिवार को सरमाथे बिठाया
- ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी : डेविड कैमरॉन
- टिहरी के राजाओं को पूर्वजों के द्वारा किये गए जघन्य कृत्य पर नहीं पश्चाताप
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी जिसमें जनरल डायर नामक एक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें 400 से अधिक व्यक्ति मरे और 2000 से अधिक घायल हुए।अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।
यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था। माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी। 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। विजिटर्स बुक में उन्होंनें लिखा कि “ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।”
अब बात करते हैं टिहरी लोकसभा सीट की 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ और वर्ष 1952 में स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहला लोकसभा चुनाव हुआ था। इस दौरान टिहरी रियासत की महारानी कमलेन्दुमति शाह ने लोकसभा चुनाव लड़ा और विजयी होकर देश की संसद तक पहुंची। टिहरी रियासत के आखिरी राजा मानवेंद्र शाह यहां से 8 बार चुनाव जीते थे। उनकी मां कमलेंदुमति शाह पहला आम चुनाव जीतकर यहां से लोकसभा में पहुंची थीं।अभी तक इस लोकसभा सीट के लिए 2 बार उपचुनाव हुए हैं। कुल 18 बार हुए चुनावों में 11 बार राजपरिवार ने यहां से जीत हासिल की है।
मानवेंद्र शाह ने 3 बार कांग्रेस के टिकट पर और 5 बार भाजपा के टिकट पर यहां से चुनाव जीते थे। क्षेत्र के मतदाताओं ने जहां 11 बार राजपरिवार को सरमाथे बिठाया वहीं 2 बार उन्हें हार का स्वाद भी चखाया। पहली बार 1971 के चुनाव में कांग्रेस के परिपूर्णानंद पैन्यूली ने राजपरिवार को पटकनी दी थी। दूसरी बार 2007 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विजय बहुगुणा ने मानवेंद्र शाह के पुत्र मनुजेंद्र शाह को हराया। राजपरिवार 1971 से 1991 तक चुनावी समर से दूर रहा। इस दौरान त्रेपन सिंह नेगी ने 2 बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। पहली बार वे 1977 में जनता पार्टी और फिर 1980 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे थे। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री ब्रह्मदत्त भी यहां से 2 बार सांसद बने। उन्हें 1984 तथा 1989 में कांग्रेस के टिकट जीत मिली।
देश में राजशाही खत्म होने के बावजूद टिहरी लोकसभा सीट पर पूर्व राजपरिवार का दबदबा बरकार है और इस बार राजपरिवार की प्रतिष्ठा 12वीं बार दांव पर है। लेकिन आज तक राज परिवार के किसी भी सदस्य ने जालियाँवाला बाग हत्याकांड की तर्ज रवाईं में हुए ”तिलाड़ी काण्ड”पर माफ़ी नहीं मांगी है, 30 मई 1930 को उत्तराखंड के इतिहास में एक रक्तरंजित तारीख है। इसी दिन 1930 में तत्कालीन टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह ने रंवाई के तिलाड़ी के मैदान में एक और जलियांवाला बाग काण्ड रच डाला था ।
महारानी माला राज्य लक्ष्मी बीते कई लोकसभा चुनाव के दौरान इस इलाके में लोगों से वोट मांगने आती-जाती रहीं हैं,लेकिन उन्होंने आज तक ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन की तरह बड़ा दिल दिखाते हुए वहां की जनता से अपने पूर्वजों के द्वारा किये गए जघन्य कृत्य पर माफ़ी तो दूर एक शब्द भी दुःख या पश्चाताप का नहीं बोला।
अब आते हैं टिहरी के राजा के वहां की जनता से किये गए क्रूर फरमानों की। अब तक उपलब्ध साहित्य के अनुसार वर्ष 1916 की नवीन कर व्यवस्था के सूत्रधार डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी ने नया वन बंदोबस्त किया जिसमें निम्न प्रकार की व्यवस्था की..
– 1. चूल्हा कर, आलू उपज पर कर
2. जंगल में घास काटने पर शुल्क
3—चार बकरी से ज्यादा पर 4 आना कर प्रति बकरी
4. दो गाय व 1 जोड़ी बैल के ऊपर प्रति पशु 1 रुपया सालान पुच्छी कर
5. काट कुराली या झूम प्रणाली तथा मौण पर प्रतिबंध
6. शराब बनाने पर प्रतिबंध
7. वनों पर व्यापक प्रतिबंध
इस प्रकार रवांई जौनपुर की दैनिक जरुरतों व परंपराओं पर राजा के कर्मियों ने कुठाराघात किया, जनता ने जब छूट मांगी तो उन्हे पशुओं को गिरा कर मारने का बेतुका सुझाव दिया गया। बरा बेगार से भी परेशान जनता, सयाणों ने 1929 में तिलाड़ी में व फिर गुंदियाटगांव में प्रांत पंचायत समिति के चुनाव में बैठक कर राजा से मिलने का निर्णय लिया गया। 1930 में रवांई के प्रतिनिधि जब नरेंद्रनगर में गये तो उनका अपमान किया गया व दरबार में आने पर थोकदारों को भेंट स्वरुप मिलने वाले बकरे से भी वंचित कर दिया गया फलतः जनता के साथ साथ थोकदार भी रुष्ट हो गये, और रवांई का विख्यात ढंडक शुरु हो गया। राजा के यूरोप भ्रमण पर जाने पर जनता की सुनवाई नही होने पर चांदाडोखरी में आजाद पंचायत का गठन किया गया एवं कंसेरु के दयाराम जी को नेता चुना गया इंदरसिंह, बैजराम आदि समिति के सदस्य बने बैठकों के लिए 5 स्थल चयनित किए गए —
1. चांदाडोखरी, लाखामंडल
2. तिलाड़ी, बड़कोट
3. थापला, राजगढ़ी
4. सरुका, कंडियाल गांव
5. टटाउ
राजगढ़ी टिहरी के राजा कीर्तिशाह की मृत्यु के समय उनके पुत्र श्री नरेन्द्र शाह बहुत छोटे थे। नरेन्द्र शाह कभी पढ़ने के लिए नैनीताल तो कभी घूमने फिरने के लिए यरोप चले जाया करते थे। उस समय टिहरी रियासत को एक तरह से वजीर श्री हरिकृष्ण रतूडी जी व दीवान श्री भवानी दत्त उनियाल जी ही चलाते थे। दोनों विद्वान एवं न्यायप्रिय थे और राजा का दोनों पर पूरा भरोसा था। उधर अंग्रेज अपनी कुटिल नीति चला रहे थे, वे चाहते थे कि कुछ ऐसा किया जाए कि राज तो राजा का रहे पर उसकी बागडोर अंग्रेजो के हाथ में ही रहे। लेकिन भला एैसे कैसे हो सकता था, यह तभी संभव था जब कोई अंग्रेजो का पिट्ठू सत्ता के शीर्ष के निकट हो। पर जब तक वजीर के पद पर श्री हरिकृष्ण रतूडी जी व दीवान के पद पर श्री भवानी दत्त उनियाल जी से जैसे प्रखर व्यक्ति बैठे हो तो यह काम आसान नहीं था। इधर एक षडयंत्र के तहत अंग्रेजों ने श्री भवानी दत्त उनियाल जी को दीवान के पद से हटाकर उस पर अंग्रेजों का पिट्ठू चक्रधर जुयाल को बिठा दिया। अब अंग्रेज किसको हटाकर किसको व क्यों बिठाते थे ये बात भारत का अनपढ आदमी भी अच्छी तरह से जानता है ।
दरअसल श्री भवानी दत्त उनियाल जी ने उस समय उत्तर प्रदेश असेंबली के चुनाव हेतु बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जी को सहयोग दिया था वे मुकुन्दीलाल जी को रियासत का न्यायाधीश भी बनाना चाहते थे जो की अंग्रेजों को पसंद नहीं था। तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट पौड़ी ने कुमाऊं के कमिश्नर मिस्टर विन्डम को इस सम्बन्ध का एक पत्र लिखा था कि कैसे श्री भवानी दत्त उनियाल जी, बेरिस्टर मुकुन्दीलाल की सहायता कर रहे हैं। उन्होंने दीवान श्री भवानी दत्त् उनियाल जी पर लगाम लगाने हेत् अपने पिट्ठू चक्रधर जुयाल को पहले होम मेम्बर बनवाया और फिर बाद में दीवान।
चक्रधर जुयाल ने इस बात् का पूरा फायदा उठाया। राजा के यूरोप प्रस्थान पर दीवान चक्रधर जुयाल ने हठधर्मिता को अपनाकर आंदोलनकारियों को उग्र कर दिया। संभवतः पूर्व में अनेक प्रमुख लोग तथा राजकर्मी जो आंदोलन से अंशतः जुड़े थे वह भी ढंडकी बन गये। सुनाली, रामासिरांई के निवासी पटवारी शिव सिंह कोटली के पत्र व अन्य बातें स्पष्ट करती हैं कि जब जनता ने सयाणों व थोकदारों को आंदोलन से न जुड़ने पर घर, संपत्ति जलाने की चेतावनी दी तो रवांई के सारे वर्ग एक हो गये व परिणामस्वरुप 5 अप्रैल 1930 को निम्न 8 लोगों को नेता मानकर डिप्टी कलेक्टर को कारवाई के आदेश मिले
1. हीरा सिंह, नगाणगांव
2. शिव सिंह, डख्याटगांव
3. पटवारी शिव सिंह, सुनाली
4. स्वरुपराम, नगाणगांव
5. मालगुजार लुदरसिंह, बड़कोट
6. दयाराम, कंसेरु
7. मोरसिंह, स्यालना
8. श्यामसिंह,
भाटिया अधिकारियों ने आंदोलन समाप्त करने का प्रयास किया परंतु कोई सफलता न देख लोकप्रिय भूतपूर्व वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को मध्यस्थता हेतु रवांई भेजा गया, रतूड़ी जी के आश्वासनों के बाद भी चक्रधर जुयाल ने समझौते को मानने की बजाय अन्य कठोर कदम उठाये। हीरा सिंह को रवांई जौनपुर की जनता ने 5 सरकार व बैजराम का 3 सरकार की उपाधि दी। जब एक ओर समझौते की बातचीत चल रही थी तो दूसरी ओर रवांई के अन्तर्गत राजगढ़ी के एसडीएम सुरेन्द्रदत्त के न्यायालय में आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर राज्य के वनों को हानि पहुंचाने के अपराध में अभियोग चलाया जा रहा था। यह अभियोग राज्य की ओर से वनविभाग के डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया था।
एसडीएम ने आंदोलन के प्रमुख नेता दयाराम, रुद्रसिंह, रामप्रसाद और जमनसिंह को दोषी पाया और उन्हें कारावास का दण्ड सुनाया। पटवारी और पुलिस के साथ एसडीएम एवं डीएफओ 20 मई 1930 को आंदोलन के उन नेताओं जिन्हें सजा सुना दी गयी थी, को लेकर राजगढ़ी से टिहरी की ओर प्रस्थान कर गये। डंडाल गांव के नजदीक पहुंचे ही थे कि आंदोलनकारियों ने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए हमला कर दिया। दोनों ओर से जमकर गोलीबारी हुई।
डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी की रिवाल्वर से निकली गोली से ज्ञानसिंह मारा गया। जूनासिंह एवं अजीतसिंह भी मारे गये। बहुत से घायल हो गये। एसडीएम भी गोली लगने से घायल हुआ। पदमदत्त रतूड़ी जिसके पास रिवालर था, भाग गया और पुलिस वाले भी भाग गये। एसडीएम सुरेन्द्रदत्त को आंदोलनकारियों ने बन्दी बना लिया। अपने साथियों को छुड़ाकर आदोलनकारी राजतर ले गये। समाचार पाकर दीवान चक्रधर जुयाल ने रवांई के निवासियों को ऐसा पाठ पढ़ाने की सोची, जिसे वे कभी भूल न सकें।
राजा यूरोप की यात्रा में गया हुआ था। दीवान ने संयुक्त प्रदेश के गवर्नर से आंदोलन के दमन करने के लिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो शस्त्रों का प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त कर ली। टिहरी राज्य की सेना का अध्यक्ष कर्नल सुन्दरसिंह जब प्रजा पर गोलियां चलाने के लिए प्रस्तुत न हुआ तो दीवान ने उसे हटाकर नत्थूसिंह सजवाण को राज्य की सेना का सर्वोच्च अफसर बनाकर ढंढकियों का दमन करने के लिए भेजा।
दीवान चक्रधर जुयाल कितना क्रूर व जालिम था, यह 30 मई 1930 को रंवाई के बडकोट में हुई शर्मनाक तिलाड़ी काण्ड के बाद सारी दुनियां को पता चल गई। क्रूर चक्रधर ने फरमान जारी कर दिया था कि लोगों को जंगल कर देना होगा। रवांई क्षेत्र के लोगों ने इसका विरोध किया। अब जंगल ही तो हमारा जीवन है। हम लकड़ी, घास कहां से लाएंगे। हमारे पशु क्या खाएंगे। लोग शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे थे कि इस अंग्रेज के पिट्ठू ने निरीह जनता पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। टिहरी रियासत के सैनिकों के द्वारा इन निहत्थे रवांल्टों (रंवाई क्षेत्र की जनता) पर तिलाड़ी के मैदान पर घेरकर अन्धाधुन्ध गोलियां चलाई गईं, एक-दो नहीं दो सौ से ज्यादा लोगों की जाने चली गई।
दो लोगों को तो इस शैतान ने अपनी पिस्तोल से ही मारा। कई लोग जमुनाजी में डूब गए। जमुना का रंग उनके खून से लाल हो गया। सारा देश कांप गया पर इस नृंसश व्यक्ति पर कोई असर नहीं पड़ा और उसने राजा को गलत जानकारी दी कि जनता राजा का विद्रोह कर रही थी, इसलिए मुझे गोली चलवानी पड़ी। इस शर्मनाक तिलाड़ी काण्ड हेतु पत्रकार श्री विश्वम्भर दत्त चंदोला जी एवं दीवान श्री भवानी दत्त उनियाल जी सहित 68 निर्दोष जनता को आरोपित किया गया था।
रवांई जौनपुर के’तिलाड़ी कांड’ में की गई क्रूरता पर बने इस लोकगीत से पता चलता है कि रवाईं घाटी में हुए इस हत्याकांड को रवाईं घाटी का जलियांवाला बाग काण्ड और क्रूर शैतान चक्रधर जुयाल को डायर क्यों कहा जाता है-
‘ऐसी गढ़ी पैंसी, मु ना मा्रया चक्रधर मेरी एकत्या भैंसी,
तिमला को लाबू, मु ना मा्रया चक्रधर मेरा बुड्या बाबू,
भंग कू घोट, कन कटु चक्रधर रैफलु को चोट,
लुआगढ़ी टूटी, कुई मरगाई चक्रधर कुई गंगा पड़ौ छुटी..’
स्व. श्री विद्यासागर नौटियाल जी की पुस्तक यमुना के बागी बेटे में इस बात का विस्तृत विवरण दिया गया है। यह पुस्तक “तिलाड़ी गोलीकाण्ड” के घटनाक्रम और चश्मदीदों के बयानों पर आधारित है।