लॉक डाउन प्रकृति के लिये साबित हो रहा है एक ‘नेचुरल डायलिसिस’
ब्लेक कार्बन के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने से ग्लेशियरों को नया जीवन मिलेगा
मनमीत कोविड-19 महामारी के चलते दुनिया के लगभग हर देशों में तमाम गतिविधियो को लॉकडाउन किया गया है। इस लॉकडाउन का मानव समाज पर नाकारात्मक आर्थिक प्रभाव भले ही पड़ रहा हो, लेकिन प्रकृति के लिये ये एक ‘नेचुरल डायलिसिस’ साबित हो रहा है। हिमालय के हजारों ग्लेशियर जो ब्लेक कार्बन प्रदूषण से दुगनी तेजी से पिघल रहे थे, उन ग्लेशियरों तक ब्लेक कार्बन का पहुंचना न्यूनतम स्तर पर पहुच गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्लेक कार्बन के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने से ग्लेशियरों को नया जीवन मिलेगा। बल्कि ग्लेशियर आधारित नदियों में साल भर एक सामान जल स्तर भी रहेगा।
वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने तीन साल पूर्व एक शोध में दावा किया था कि हिमालयी ग्लेशियरों में स्थित ब्लैक कार्बन का एक बड़ा कारण, यूरोप से तत्व आधारित गैसों के प्रदूषण का वेस्टर्न डिस्टबेंर्स (पश्चिमी विक्षोभ) के साथ यहां तक पहुंचना है। पहले ये माना जाता था कि हिमालयी जंगलों में लगने वाली आग के चलते ग्लेशियरों में ब्लैक कार्बन पहुंचता है। हालांकि उत्तरी भारत से आना वाला प्रदूषण भी ब्लैक कार्बन का कारण मनता रहा है। उत्तरी भारत का ब्लैक कार्बन भी पश्चिमी विक्षोभ के साथ ही हिमालय तक ट्रांसपोर्ट होता है। इस शोध के लिये वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा पीएस नेगी के नेतृत्व में गौमुख से पहले 3600 मीटर की ऊंचाई में स्थित चीड़बासा में उपकरण लगाये गये। जिससे कुछ साल बाद जो नतीजे मिले वो चौंकाने वाले थे। वरिष्ठ वैज्ञानिक डा पीएस नेगी बताते हैं कि शोध में पता चला कि जनवरी में ब्लैक कार्बन भारत से नहीं, बल्कि यूरोप के देशों से पश्चिमी विक्षोभ के साथ आ रहा है। उसी के साथ ये गैस भी हवाओं के साथ आती थी। लेकिन पिछले कुछ समय से जो रीडिंग आ रही है। उस पर शोध किया जा रहा है। प्रारंभिक रूप से लॉकडाउन जब से शुरू हुआ है। तब से हवाओं के साथ यूरोप से हिमालय तक प्रदूषण का ट्रांसपोर्ट न्यूनतम स्तर पर पहंच गया है। जिससे ब्लैक कार्बन का बनना भी न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। अभी इसकी कितना पैमाना है। इस पर शोध जारी है। लेकिन शोध के जो नतीजे होंगे, वो बहुत हिमालय की सेहत का अच्छा रिपोर्ट कार्ड देगा। ऐसी संभावना है।
हिमालय में पहुँच रहा है दो तरह का प्रदूषण
इस समय हिमालय में दो तरह का प्रदूषण पहुंच रहा है। एक है बायो मास प्रदूषण (कार्बन डाइऑक्साइड) और दूसरा है एलिमेंट पोल्यूशन (तत्व आधारित प्रदूषण) जो कार्बन मोनोऑक्साइड उत्पन्न करता है। ये दोनों ही तरह के प्रदूषण ब्लैक कार्बन बनाते हैं जो ग्लेशियर के लिये खतरनाक होते हैं। वरिष्ठ भू वैज्ञानिक डा पीएस नेगी बताते हैं कि, यूरोप से केवल तत्व आधारित प्रदूषण ही हिमालय तक पहुंच रहा है। इसको हम अंतर्राष्ट्रीय फोरम पर रखकर विरोध जता चुके हैं। अब क्योंकि यूरोप में वाहन बेहद कम चल रहे हैं। इसलिये प्रदूषण जो हो भी रहा है, वो भूमध्य सागर तक नहीं पहुंच रहा है। जहां से पश्चिमी विक्षोभ के साथ हिमालय तक नहीं पहुंच पा रहा है।
ब्लैक कार्बन से पचास मीटर पीछे खिसकी विंटर लाइन
ब्लैक कार्बन से सबसे बड़ा खतरा ग्लेशियरों को ही नहीं, विंटर लाइन को भी है। ब्लैक कार्बन और ग्लोबल वार्मिंग के चलते ये विंटर लाइन पचास मीटर तक पीछे खिसक गई थी। जिसका असर जल वायु पर पड़ रहा था। हिमालय रेंज में पिछले कुछ सालों में हुए शोध में सामने आया है कि ‘स्नो लाइन’ (हिमरेखा) लगभग पचास मीटर पीछे खिसक गई है। इसका मुख्य वजह ब्लेक कार्बन के कारण हुई ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब उच्च हिमालय और मध्य हिमालय में सितंबर से दिसंबर तक होने वाला हिमपात शिफ्ट होकर जनवरी से मध्य मार्च तक चला गया है। जनवरी से मध्य मार्च तक पड़ी बर्फ अप्रैल और मई में गर्मी आते ही पिघल जा रही है। जिससे न केवल स्नो लाइन तेज गति से पीछे खिसक रही है, बल्कि इससे स्नोलाइन के ईद गिर्द रहने वाले जनवरों और वनस्पतियों के लिए भी गंभीर खतरा पैदा होगा।
सेब की दो प्रजातियाँ हो सकती है रिचार्ज
पहले से ग्लोबल वार्मिंग के कारण सेब की सबसे बेहतरीन प्रजाति ‘गोल्डन डिलीसियस’ और ‘रेड डिलीसियस’ खत्म होने के कागार पर पहुंच गई थी। वहीं स्नो लाइन के पचास मीटर और नीचे खिसकने से काश्तकारों के सामने बड़ी मुसीबत आ गई थी। सेब की सबसे उम्दा प्रजाति गोल्डन डिलीसियस और रेड डिलीसियस के बगीचे स्नो लाइन के खत्म होने के बाद से ही शुरू होते है। उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में सत्तर फीसदी तक दोनों प्रजाती की क्वालिटी घट गई है। ऐसा, मध्य हिमालय में परमनेंट स्नो लाइन (स्थाई हिम रेखा) के काफी पीछे चले जाने से हुआ है। सेबों की पैदावार की ख़राब क्वालिटी होने से उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू कश्मीर के सीमांत काश्तकारों ने तो सेब के बजाए अन्य विकल्पों पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। लेकिन अगर अगले कुछ माह तक हिमालय श्रंखलाओं तक ब्लैक कार्बन नहीं पहुंचता है तो सेबों की सेहत सुधर सकती है।