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संगीता ने उत्तराखंड की लोकगायिकी में बनाई अपनी जगह

  • लोकगायन को अपनी कला का माध्यम बनाया तो उसे सराहा गया

वेद विलास उनियाल 

अगर हम यह कहने में संकोच नहीं करते कि सुचित्रा सेन सुंदर थी, वहिदा रहमान, मधुबाला साधना सुंदर थीं या ऐश्वया या आलिया सुंदर हैं तो फिर पहाड़ की लोक गायिका संगीता ढोॆडियाल की सुंदरता को कहने में क्या हर्ज है, क्या संकोच ।

संगीता लोकनृत्य से लोकगायन की ओर आई। कह नहीं सकते कि अपनी सुंदरता के कारण वह लोकनृत्यों में या समूह नृत्यों में अपनी कितनी जगह बना पाती लेकिन यह देखा गया कि जब उसने लोकगायन को अपनी कला का माध्यम बनाया तो उसे सराहा गया। उसके प्रशंसक दून मुंबई से होते हुए मस्कट तक बन गए। इस तरह कि आयोजकों के लिए संगीता को बुलाया जाना एक रिवाज सा हो गया। समय के साथ संगीता एक व्यस्त कलाकार गायिका के रूप में जानी गईं।

संगीता का गायन कबोतरी देवी जैसा साधना वाला नहीं , न ही उसमें रेखा धस्माना की तरह गायिकी की उडान हैं। लेकिन उसकी अपनी एक मंचीय शैली है कि उसके नाम पर एक कार्यक्रम चल देता है। उसकी मंचों की प्रस्तुति सफल रहती है। जिस दौर में अनुराधा निराला, बसंती बिष्ट, मीना राणा कल्पना चौहान, माया उपाध्याय, रेशमा जैसी बेहतर लोकगायिकाओं के अपने लोकप्रिय मंच रहे हों , उस समय अपनी एक जगह बनाना आसान नहीं था।

कुछ लोग बहुत आसानी से कह देते हैं कि संगीता की सुंदरता है जो दर्शक श्रोताओं को भा जाती है। बेशक ऐसा होता भी हो। लेकिन कितने समय तक। फिल्म जगत में न जाने कितनी सुंदर बालाएं आईं और चली गईं । लेकिन बेहद सुंदर कहीं जानी वाली कुछ ही अभिनेत्रियां हैं जो दशकों तक सिने पर्दे में छाई रहीं। संगीता के सौंदर्य को ही इसका श्रेय देना उसकी कला , मेहनत, एकाग्रता को कम करके आंकना होगा। कहीं न कहीं उसका परिश्रम भी है जो उसके मंचों को सफल बनाता आया है । वह डेढ दशक से कला मंचों को सजा रही है।

संगीता के अपने गीत नहीं हैं। शायद ढोल दमो बजी गैन गीत से पहले उसका कोई अपना गीत हो। लेकिन उसने अपने पहाडी समाज से मिले गीतों को ही सीखा उन्हें मंच में प्रस्तुत किया। अपने हाव भाव शैली से उसने जिस तरह मंचों में प्रस्तुति दी उसे लोगों ने सराहा। पहाडी समाज यह जरूर कहेगा कि मंच लूटने के लिए उसने कभी सस्ते या चलताऊ गीतों का इस्तेमाल नहीं किया। वह ठीक ठाक गीतों को लेकर आती रही। उसके गाए गीतों में हमें भले ठेठ पहाडी पन और लोकजीवन के बहुत गूढ गीत न मिले हों लेकिन उसकी कोशिशों में कई पहाडी शामें सुंदर सजीली दिखी है। वह अपने आसपास सुने गए गीतों को लाई। उसके मुंबई दिल्ली हर जगह के लोकमंच अच्छे लगे हैं।

कोई सुंदर है तो यह अभिशाप नहीं , ईश्वरीय देन है। उस पर अगर उसमें कला का गुण भी है तो जिंदगी का सुंदर पहलू है। साथ ही अगर वह अपने निश्चित क्षमताओं में निरंतर मेहनत करके अपनी कोई जगह बना ले तो उसे सराहना मिलनी चाहिए। कला मंचों में सफलता का अगर सुंदरता ही मापदंड होता तो हर सौंदर्य मंच पर ही जगमगाता। कला में सौंदर्य का समावेश एक सुंदर पक्ष है लेकिन कला केवल सौंदर्य पर ही नहीं टिकी। बल्कि गायन जैसी विधाओं में तो सौंदर्य के अंक बहुत कम होंगे, नृत्य अभिनय में काफी हद तक । और देखा गया कि बिना खास सौंदर्य के साधकों की कला बहुत ऊंचे पहुंची है।

एक बहुत सामान्य परिवार से उठ कर संगीता ने उत्तराखंड की लोकगायिकी में अपनी जगह बनाई है। उसकी उपलब्धि और चर्चाओं के बीच शहर के कुछ आभूषण विक्रेताओं ने उससे पूछे बिना उसे माडल बना दिया। नाक में नथुली पहने और पहाडी परिधान में संगीता की तस्वीरें पर्यटन विभाग ने भी इस्तेमाल की है।

संगीता को समाज से जो सराहना मिली उत्साह मिला उसके बाद उन जैसे कलाकारों को समाज के ही किसी बडे प्रयोजन से भी जुडना चाहिए। कला केवल आए दिन के स्टेज शो और धन कमाने का माध्यम बन कर न रह जाए। इस प्रदेश ने दुख उठाए हैं। यहां की नारियों की व्यथा हैं।

युवाओं के पलायन ने गांवों को उदास होते देखा है। सैन्य जीवन की पृष्ठभूमि वाले प्रदेश में शहीदों की यादें हैं। ऐसे में जिस कला मंच को उत्तराखंड में सबसे ज्यादा इज्जत मिली है उसकी हर सेलिब्रिटी को सामाजिक योगदान में भी आगे आना चाहिए। साथ ही नई पीढी को भी सीखने सीखाने के दायित्व का भी निर्वाह किसी न किसी स्तर पर होना चाहिए।

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devbhoomimedia

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