जर्नलिज्म का रियल टाइम
टेक्नोलॉजी के बिना जर्नलिज्म नहीं हो सकती
राजेश पांडेय
टेक्नोलॉजी के बिना जर्नलिज्म नहीं हो सकती। टेक्नोल़ॉजी ने दूसरे दिन का इंतजार कराने वाली जर्नलिज्म को रियल टाइम रिपोर्टिंग (आरटीआर) तक पहुंचा दिया,जिसमें केवल क्लिक की देर है। अगर अखबार के दफ्तर में सर्वर कुछ मिनट के लिए डाउन हो जाए तो बेचैनी बढ़ जाती है।
उस अखबार की एडिटोरियल टीम और आईटी डिपार्टमेंट में ईमेल पर ईमेल का खेल तब तक चलता है, जब तक कि सर्वर पर फाइलें संतुष्टि के स्तर तक तेजी से डाउनलोड .या अपलोड न होने लग जाएं। रिपोर्टर से कहा जाए कि एक दिन के लिए ही सही अपने से फोन को दूर रखना या फोन से व्हाट्सएप हटा दो। एक दिन ईमेल के इनबॉक्स को मत देखना। दूसरे दिन उस रिपोर्टर की स्थिति क्या होगी, एक या दो या फिर उसकी बीट की अधिकतर खबरें मिस होंगी।
1996 की बात है, मैं जिस अखबार में काम करता था, उसके देहरादून स्थित दफ्तर में फोटो भेजने के लिए स्कैनर इंस्टाल किया गया। मैंने स्कैनर पहली बार देखा था। हम सभी बहुत खुश थे, क्योंकि अब देर शाम के फोटो भी दूसरे दिन के अखबार में दिखेंगे। इससे पहले अपराह्न दो बजे से पहले के ही फोटो मेरठ के अखबारों में दिख पाते थे।
सबसे ज्यादा राहत मिली फोटो जर्नलिस्ट्स को, जो ब्लैक एंड व्हाइट फोटो दफ्तर में ही बने डार्करूम में खुद ही डेवलप करते थे। कलर फोटो के लिए रील फोटो स्टूडियो भेजते थे। यह सब करने के लिए उनको बहुत फुर्ती दिखानी पड़ती थी। स्कैनर की बदौलत मेरठ वाला अखबार देहरादून के स्थानीय अखबारों को टक्कर देने लगा।
उस समय मीडिया को सूचना या बयान के लिए विज्ञप्तियों का दौर चरम पर था। बतौर ट्रेनी मेरा काम विज्ञप्तियों को इकट्ठा करना, उनकी छंटाई करना, कम महत्व की या कार्यक्रमों की विज्ञप्तियों को खबर की शक्ल लेना, उनमें दर्ज एक-एक नाम को लिखना था। इसके लिए मुझे राइटिंग पैड दिया गया था। खबरों को उनके महत्व के हिसाब से बड़ा या छोटा किया जाता था। हमने उन लोगों को भी चिह्नित किया था, जो रोजाना विज्ञप्तियां जारी करते थे। उनके लिए व्यवस्था थी कि सप्ताह में एक दिन स्थान दिया जाए।
एक-एक लाइन की चेकिंग के बाद ही खबरों को कंप्यूटर सेक्शन में टाइपिंग के लिए भेजा जाता था, जहां से खबरें सीधे मेरठ भेजी जाती थीं। वहां डेस्क पर खबरों का एक बार फिर संपादन होता था। विज्ञप्तियों के बंडल बहुत संभाल कर स्टोर रूम में रखे जाते थे। इस पूरी व्यवस्था में मोबाइल फोन कहीं नहीं था। व्हाट्सएप का नाम किसी ने भी नहीं सुना था। ईमेल और गूगल पर सर्च की मैंने तो कभी कल्पना नहीं की थी। मैं केवल दफ्तर के लैंडलाइन तक सीमित था। बाद में फैक्स पर भी विज्ञप्तियां आने लगीं।
गढ़वाल के पर्वतीय जिलों के रिपोर्टर मुख्यालयों को फैक्स या फिर डाक गाड़ी से खबरें भेजते थे। पर्वतीय जिलों की खबरें ऋषिकेश में इकट्ठी होती थीं, जहां कंप्यूटर पर टाइप होकर मेरठ भेजी जाती थीं। ऋषिकेश में संपादन के बाद ही खबरों को मेरठ भेजा जाता था। ऐसे में कई खबरें छप ही नहीं पाती थीं।
वर्तमान में गढ़वाल के हर दफ्तर में सीएमएस (कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम) इंस्टाल है। सोशल मीडिया के जरिये फोटो और वीडियो मिनट से पहले पूरी दुनिया में लाइव होते हैं। रियल टाइम रिपोटिंग मीडिया की सबसे बड़ी ताकत है और पूरी जद्दोजहद इसी को लेकर है।
वर्तमान की बात करते हैं। अब विज्ञप्तियां ईमेल या फिर व्हाट्सएप पर हैं। खबरों को कॉपी करके सीधा सीएमएस (कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम) पर पेस्ट कीजिए। ईमेल और व्हाट्सएप पर कंटेंट यूनीकोड में होता है, जो सीएमएस के मुफीद है,इसलिए फॉंट कनवर्ट करने का भी झंझट नहीं है।
सिस्टम पर ही हेडिंग दीजिए और करेक्शन करके सीधे डेस्क के हवाले कीजिए। यहां तेजी से काम हो रहा है, खबरों की संख्या भी बढ़ गई पर सीखने का मौका गायब हो गया। स्पीड के चक्कर में यहां किसी के पास न तो सीखने का समय है और किसी के पास सिखाने का। जो आता है या जो नहीं भी आता, सब कुछ डेस्क के हवाले कर दो।
1996 में फोन से पहले कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को अखबारों ने पेजर उपलब्ध कराए थे, जिनके नंबर तीन डिजीट में होते थे। फील्ड में रहने के दौरान किसी रिपोर्टर को कोई सूचना देनी है तो लैंडलाइन फोन के माध्यम से पेजर पर मैसेज भिजवा दो। पेजर वर्तमान के मैसेंजर की भूमिका में था। पेजर का समय चला गया तो महंगी कॉल दरों वाले मोबाइल कुछेक पत्रकारों की पहुंच में थे। मोबाइल ने पत्रकारिता में बड़ा बदलाव किया। सूचनाएं तेजी से मिलने लगीं।
इतना जरूर था कि फोटोग्राफर और रिपोर्टर को मौके पर जाना पड़ता था। रिपोर्टर तो बाद में पहुंचकर पूछताछ करके घटना को कवर कर सकते थे, पर फोटोग्राफर के लिए कोई चांस नहीं होता था। अब हर जेब में कैमरा है और फोटो, वीडियो को कहीं भी, कभी भी भेजने की सुविधा भी।
1997 में मेरठ वाले अखबार देहरादून से प्रकाशित होने लगे। अब तो देर रात तक की कवरेज सुबह के अखबार में दिखने लगी। हालांकि काफी समय तक डेस्क मेरठ में ही थीं। देहरादून सिटी संस्करण छपने तक संपादकीय टीम के वरिष्ठ रिपोर्टर की ड्यूटी प्रेस में होती थी, ताकि रिपोर्टर की भेजी सूचना को लिखा जा सके। उस समय तक अधिकतर रिपोर्टर के पास मोबाइल फोन नहीं थे। उनको पीसीओ से खबरें लिखानी पड़ती थीं।
एक और मजेदार बात यह कि प्रिंटिंग देहरादून में शुरू हो गई और रिपोर्टर्स से अपनी खबरों को खुद टाइप करने के लिए कहा गया। कंप्यूटर रूम अलग था, जिसमें जूता पहनकर प्रवेश की अनुमति नहीं थी। उस समय यह मिथक था कि जूतों की धूल कंप्यूटर को खराब कर देगी। इसके पास आप आलपिन तक नहीं ले जा सकते। सभी रिपोर्टर राइटिंग पैड से हटकर टाइपिंग पर आ गए।
1999 में हिमाचल प्रदेश में अखबार का पदार्पण था। उस समय अन्य कई अखबारों के पत्रकारों को खबरें भेजने के लिए पोस्ट आफिस से फैक्स करने पड़ते थे। मुझे याद है एक फैक्स के 35 रुपये चार्ज होते थे। यह सुविधा शाम पांच बजे के बाद नहीं थी। कुछ अखबार वाले लोक संपर्क अधिकारी के दफ्तर से भी इस सुविधा का लाभ उठा लेते थे। शाम को मैंने मंडी जिले के पोस्ट आफिस में फैक्स भेजने के लिए पत्रकारों को लाइन में खड़े देखा। सिस्टम इंस्टाल होने से पहले ,मैं भी खबरों को पोस्टआफिस वाली लाइन में लगकर चंडीगढ़ भेजता था।
खैर, मैं जिस अखबार में काम करता था, उसने कंप्यूटर,मॉडम, लैंडलाइन फोन, स्कैनर की सुविधा उपलब्ध करा दी थी। मंडी जिले में हमारे दफ्तर को देखने के लिए एडिशनल डिप्टी कमिश्नर अपने स्टाफ के साथ आए थे। उन्होंने मुझसे समाचार भेजने के पूरी तकनीक को समझा था। हमारे पास मोबाइल फोन नहीं था। हमारे दफ्तर का फोन का प्रतिमाह का बिल लगभग नौ हजार रुपये था। दफ्तर में फोन लगवाने के लिए बड़ी मुश्किलें झेली थीं। तकनीकी के प्रयोग से हम खबरों और फोटो में सबसे आगे थे, इसलिए एक नया अखबार सबको पीछे छोड़ता गया।
वर्ष 2000 की बात होगी, मैं ऋषिकेश में तैनात था। जिस क्षेत्र में हमारा दफ्तर था, वहां पूरे दिन, पूरी रात इलेक्ट्रिसिटी नहीं थी। हमें अपने कंप्यूटर सिस्टम को लेकर उस इलाके में जाना पड़ा, जहां बिजली थी। खबरों को वहां टाइप किया गया, लेकिन वहां टेलीफोन लाइन नहीं थी। हमारे सामने टाइप खबरों और कुछ फोटो को ऋषिकेश से देहरादून भेजने की चुनौती थी। हमने तय किया कि सीपीयू को ही देहरादून भेज दिया जाए।
मैं रात करीब नौ बजे ऋषिकेश से देहरादून सीपीयू लेकर रवाना हुआ। इस तरह दूसरे दिन के अखबार में ऋषिकेश की खबरों को पढ़ा सके। वर्तमान में मीडिया के पास एडवांस सॉफ्टवेयर हैं, जो खबरों को क्लिक करते ही फोटो, वीडियो सहित पूरी दुनिया में लाइव कर देते हैं। उस समय समस्या का समाधान हो या न हो, पर उनकी बात अखबार में छप जाए, इस आस को लेकर अखबारों के दफ्तरों में बड़ी संख्या में लोगों को आते जाते देखा था। अखबारों ने भी उनको पूरा सम्मान दिया।
एक एक खबर में बीस से ज्यादा नाम तो मैंने खुद विज्ञप्तियों से उतारकर खबरों में लिखे। अक्सर कहा जाता था कि नाम मत काटना, क्योकि दूसरे दिन लोग अखबार में अपना नाम तलाशेंगे। ऐसा होता भी था कि नाम कटने का मतलब शिकायत। बदलते दौर में माध्यम और संसाधनों के बढ़ने से सूचनाओं की संख्या और प्रसारण की गति में तेजी आई है। ऐसे में खासकर प्रिंट से जुड़े पत्रकारों के सामने सूचनाओं की छंटनी का सवाल है, क्योंकि उनके पास स्पेस की कमी बड़ी दिक्कत है। ऐसी स्थिति में अखबार उन सूचनाओं या खबरों को प्राथमिकता देते हैं, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के हितों को प्रभावित करती हैं।
मीडिया मार्केंटिंग की लिस्ट को प्राथमिकता देने में भी काफी स्पेस चला जाता है। ज्यादा तव्वजो नहीं मिलने पर समाज के कई मंचों ने अपनी बात को प्रकाशित और प्रसारित कराने के लिए सोशल मीडिया को बड़ा माध्यम बनाया है। अब हर किसी ने अपना मीडिया स्थापित कर दिया है।
अब सोशल मीडिया पर पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दारोमदार आ गया है। सोशल मीडिया पर निर्भरता तो बढ़ी है पर यह सूचनाओं का विश्वस्त माध्यम नहीं है। एक सीनियर रिपोर्टर ने सोशल मीडिया पर पोस्ट एक अफवाह को अखबार की वेबसाइट पर लाइव करा दिया था। जबकि रिपोर्टर को सोशल मीडिया पर चल रही इस भ्रामक सूचना की पुष्टि करनी चाहिए थी। बाद में अखबार की वेबसाइट से खबर को हटाया गया। माना कि रियल टाइम रिपोर्टिंग में सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी का योगदान बहुत अहम है, लेकिन इसकी सूचनाओं के इस्तेमाल में अत्यधिक सावधानी और अधिकारिक सूत्रों से पुष्टि की आवश्यकता है।
टेक्नोलॉजी का एक और फायदा, अधिकतर रिपोर्टर फील्ड में रहने के दौरान ही अपनी खबरों को ऑनस्क्रीन कर लेते हैं। वॉयस टाइपिंग एप उनका काफी समय बचा रहे हैं। खबर और फोटो व्हाट्सएप से भेज दिया। दफ्तर अगर देर से भी आए तो चलेगा। गूगल सर्च से पूर्व की घटनाओं और आंकड़ों की जानकारी ली जा सकती है,यह खबरों के वैल्यू एडिशन में काफी मददगार होता है। इंटरनेट पर खबरों को डेवलेप करने के लिए आइडिया की भरमार है। अभी के लिए बस इतना ही….।