बस नारों में ही कहते रहिए, भ्रष्टाचार मिटाना है…
योगेश भट्ट
प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की सियासत में सबसे बड़ा मुद्दा है भ्रष्टाचार। एक दूसरे को कटघरे में खड़ा करने के लिए राजनीतिक दलों के पास इससे आसान और मुफीद मुद्दा कोई दूसरा नहीं है। लेकिन अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सियासी दलों की कलई खुलने लगी है। उत्तराखंड में तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार तक खो चुके हैं। भ्रष्टाचार हटाना तो मानो इन दलों के लिए सिर्फ नारों तक सीमित होकर रह गया है। प्रदेश में घटित कुछ हालिया घटनाक्रमों के बाद अब जनता को साफ तौर पर समझना होगा कि भ्रष्टाचार मुक्त साफ सुथरी व्यवस्था राजनेताओं को रास नहीं आती।
ढैंचा बीज घोटाला इसका हालिया बड़ा उदारहण है। बकायदा एक जांच आयोग की रिपोर्ट में यह घोटाला साबित होने के बावजूद कोई एक्शन नहीं हुआ। भाजपा सरकार के कार्यकाल में हुए इस घोटाले की जांच रिपोर्ट कांग्रेस काल में आई और आश्चर्यजनक तरीके से इस पर लीपापोती कर दी गई। इससे बड़ा आश्चर्य दूसरा क्या हो सकता है कि रिपोर्ट में घोटाले के दोषी करार दिए गए तत्कालीन मंत्री वर्तमान में प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर सुशोभित हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि मुख्यमंत्री बनने के दिन से ही वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस की बात कर रहे हैं।
दूसरा अहम मुद्दा लोकायुक्त का है। भुवन चंद्र खंडूरी के नेतृत्व वाली पिछली भाजपा सरकार खुद को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पाक साफ दिखाने के लिए विधान सभा चुनाव से चंद महीने पहले एक लोकायुक्त विधेयक सदन में लेकर आई और उसे पास भी कर दिया। सियासी लाभ लेने के लिए तब उस विधेयक में कई कड़े और लोकलुभावन प्रावधान भी किए गए। मसलन, लोकायुक्त कोई न्यायाधीश ही हो सकेगा, मुख्यमंत्री का पद भी लोकायुक्त के दायरे में आएगा, लोकायुक्त का चयन सर्च कमेटी द्वारा किया जाएगा, लोकायुक्त को किसी मामले में स्वत: संज्ञान लेने का पूरा अधिकार होगा। आदि-आदि।
विधानसभा चुनाव के बाद जब सत्ता कांग्रेस के हाथ में आई तो उसने पूरे पांच साल लोकायुक्त की नियुक्ति को लटकाए रखा। इसके बाद 100 दिन के भीतर लोकायुक्त देने का वादा करते हुए भाजपा ने इसे चुनावी वादा बनाया। भाजपा नेताओं ने तब कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों पर खूब आरोप लगाए, जिनमें से कुछ तो अब उसके मंत्रिमंडल की शोभा बढा रहे हैं। बहरहाल नाटकीय घटनाक्रम के तहत नई नवेली सरकार ने पहले सत्र में खंडूरी काल के लोकायुक्त को सदन में रखा और एन वक्त पर रोलबैक कर दिया।
उम्मीद यह की जा रही थी कि सरकार लोकायुक्त विधेयक को पास कर देगी, लेकिन उसने आश्चर्यजनक तरीके से इसे प्रवर समिति के हवाले कर दिया। इसके बाद बजट सत्र में जब फिर मौका आया तो नाटकीय घटनाक्रम के तहत अंतिम क्षणों में सरकार ने प्रवर समिति की रिपोर्ट सदन में रख दी जिसके बाद सत्र स्थगित कर दिया गया। इस कदम से सरकार खुद कटघरे में आ गई। माना जा रहा है कि सरकार विपक्ष की भूमिका को लेकर सशंकित थी। फिलहाल सत्र खत्म होने के बाद लोकायुक्त और ट्रांसफर एक्ट अगले सत्र तक के लिए लटक गए हैं।
एक बात साफ है कि इस मामले में त्रिवेंद्र सरकार पिछली कांग्रेस सरकार के ही पदचिन्हों पर है। प्रवर समिति की सिफारिश पर लोकायुक्त एक्ट का जो स्वरूप सामने आया है उसके बाद इसका होना न होना बराबर है। सच बात यह है कि सरकार जैसा लोकायुक्त लाना चाहती है वह एक तरह से ‘कठपुतली’ होगा। उसका रिमोट पूरी तरह सरकार के हाथ में होगा। अब तो लोकायुक्त के न्यायाधीश होने की बाध्यता भी नहीं है। निश्चित है कि किसी रिटायर अधिकारी का तीन साल के लिए पुनर्वास किया जाएगा।
महत्वपूर्ण यह है कि किसी मामले की जांच स्वत: संज्ञान के आधार पर नहीं बल्कि बहुमत के आधार पर होगी। इससे सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की मंशा साफ हो गई है। वैसे भी आयोगों का इस राज्य में कोई महत्व नहीं है। आयोग जैसी संस्थाएं सरकार की गुलामी और नौकरशाहों के पुनर्वास के लिए ही हैं। साफ है कि सरकार किसी भी दल की हो, उसकी चाल और चेहरा भले ही अलग हो, मगर चरित्र सबका एक ही है।