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जरा अपने ‘गिरेबान’ में भी झांको ‘सरकार’

अध्यापकों की जवाबदेही तय हो तो मिल सकते हैं अच्छे परिणाम 

योगेश भट्ट 

नया शैक्षिक सत्र शुरू होते ही एक बार फिर प्राइवेट स्कूलों क मनमानी के विरोध का दौर शुरू हो गया है। अविभावकों के गुस्से को देखते हुए अब सरकार भी इन प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसने की बात कह रही है। शिक्षा मंत्री ने बाकायदा ऐलान भी कर दिया है कि प्राइवेट स्कूलों की फीस से लेकर पाठ्यक्रम तक सरकार तय करेगी। शिक्षामंत्री के इस ऐलान से बहुत से लोगों को ‘फीलगुड’ का आभास भी होने लगा है।

लेकिन हकीकत यह है कि प्राइवेट स्कूलों के खिलाफ सरकार के ऐसे तेवर कोई पहली बार नहीं दिख रहे। हर साल मार्च-अप्रैल के महीने जब नए शिक्षण सत्र की तैयारी हो रही होती है, तो सरकार प्राइवेट स्कूलों की मनामानी पर नकेल कसने की बात कहती है। कुछ दिनों तक प्राइवेट स्कूलों को जमकर ‘आंख’ दिखाई जाती है, और जैसे ही एडमिशन प्रक्रिया खत्म होती है सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। दरअसल हर साल होने वाला यह रस्मी विरोध प्राइवेट स्कूलों पर दबाव डालने के उपक्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। इस दबाव की आड़ में इन प्राइवेट स्कूलों में कुछ नेताओं अफसरों पत्रकारों तथा अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों के करीबियों के एडमिशन हो जाते हैं, जिसके बाद इनकी मनमानी कोई मुद्दा नहीं रह जाती।

दरअसल सच यह है कि प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसने का यह दिखावा सरकार का अपनी जिम्मेदारी से बचने का बेहद चालाक तरीका है। प्राइवेट स्कूलों की फीस तय करने की बात कह कर सरकार भले ही खुद को जनता की हैतैषी दिखाने की कोशिश कर रही है, लेकिन सवाल यह है कि उसका खुद का सरकारी एजुकेशन सिस्टम किस हाल में है? लंबा-चौड़ा सरकारी सिस्टम होने के बाद भी आज आलम यह है कि प्रदेश के अधिकतर लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं बल्कि प्राइवेट स्कूलों में पढा रहे हैं।

बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आज सरकारी स्कूलों में सिर्फ उन लोगों के बच्चे पढ रहे हैं जो प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं भर सकते। प्रदेश में वर्तमान में प्राइमरी से लेकर इंटर स्तर तक के सोलह हजार के करीब सरकारी स्कूल हैं। इस स्कूलों में से कुछ हजार स्कूलों को छोड़ दें तो बाकियों की स्थिति बेहद खराब है। कहीं अध्यापक नहीं हैं, कहीं बच्चे नहीं हैं, कहीं इमारत नहीं हैं, कहीं शौचालय नहीं है, कहीं पीने का पानी नहीं है, कहीं बैठने के लिए फर्नीचर नहीं है और कहीं खड़े होने के लिए एक अदद छोटा सा मैदान तक नहीं है।

जबकि खर्च की बात करें तो प्रदेश के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा ही शिक्षा पर खर्च होता है। साल 2016 में स्कूली शिक्षा के लिए 6238 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया था। इस हिसाब से देखें तो प्रदेश में सरकारी शिक्षा व्यवस्था का कायापलट हो जाना चाहिए था। लेकिन इतने खर्चे के बाद भी सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं।

अफसोस की बात है कि इस पर ध्यान देने के बजाय सरकार प्राइवेट स्कूलों पर लगाम कसने का दिखावा कर रही है। हालांकि प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर हर हाल में रोक लगनी चाहिए, लेकिन सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती कि उसकी पहली प्राथमिकता और पहला कर्तव्य सरकारी एजुकेशन सिस्टम को सुदृढ करना है।

आज शिक्षा विभाग की स्थित ऐसी है कि यह शिक्षा विभाग न होकर ट्रांसफर पोस्टिंग विभाग बन कर रह गया है। शिक्षकों से लेकर अधिकारियों और मंत्रियों तक सबका एक सूत्रीय एजेंडा ट्रांसफर पोस्टिंग कराना ही रह गया है। किसी का भी ध्यान इस तरफ नहीं है कि प्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता में दिनों दिन गिरावट आ रही है। जबकि हर साल आने वाली तमाम रिपोर्टों में इसको लेकर चिंता जताई जाती रहती है। दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो सरकारी स्कूलों के मुकाबले वहां पढा रहे अध्यापकों को बहुत कम वेतन और सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन जब बात रिजल्ट की आती है तो प्राइवेट स्कूलों हर बार सरकारी स्कूलों पर भारी पड़ते हैं।

इसकी एकमात्र वजह है, प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों की मैनेजमेंट के प्रति ‘जवाबदेही।’ जिस दिन सरकार अपने अध्यापकों की जवाबदेही तय कर देगी, उस दिन वे भी अच्छा परिणाम देना शुरू कर देंगे। सरकारी स्कूल यदि अच्छा परिणाम देने लगेंगे तो जाहिर है लोग अपने बच्चों को वहां पढाने भी लगेंगे। और जिस दिन से ऐसा होने लगेगा, उसी दिन से प्राइवेट स्कूलों की मनमानी भी खत्म होने लगेगी।

devbhoomimedia

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