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प्रभाष जोशी ने नए युवाओं को लिखने के लिए प्रेरित किया

वेद विलास उनियाल 

प्रभाष जोशी जी पर लेख स्मरण तो लिखे ही गए हैं लेकिन अब दीपक पाचपौरजी ने उन पर थिसिस लिख कर एक बेहतरीन काम किया है। जनसत्ता परिवार के हमारे अग्रज प्रभाषजी के जनसत्ता अखबार में लिखे स्तंभ कागद कारे पर दीपकजी ने अपनी थिसिस लिखी है। यह खासकर पत्रकारिता जगत के लिए काफी महत्व रखता है। पढने लिखने का रुझान रखने वाले इस थिसिस का जरूर अवलोकन करेंगे। छत्तीसगढ के रहने वाले दीपक पाचपौरजी एक अच्छे पत्रकार हैं। घूमने का दुनिया को समझने का उनका अपना गहरा शौक है। जनसत्ता परिवार में जुड़ने के बाद धीरेंद्रजी और दीपकजी ही थे जिनसे हम बहुत जल्दी हमारे मन का संकोच जाता रहा।

कागद कारे के लेख विभिन्न पहलुओं पर लिखे गए हैं। राजनीति, समसामयिक विषय , खेल, आपसी रिश्ते, संगीत कई विषयों पर प्रभाषजी ने जब भी लिखा बहुत अच्छा लिया। चाहे कुमार गंधर्वजी के निधन पर भावपूर्ण लेख हो या कपिल के विकेटों का रिकार्ड, या राजेनीति के तेवर -पैंतरे हर बिषय पर उन्होंने लिखा, उसे रुझान से पढा गया।

प्रभाषजी का व्यक्तित्व विराट इसलिए भर नहीं था कि वो अच्छे पत्रकार और लेखक थे। अपने लेखन से ही नहीं बव्कि अपने व्यव्हार सहजता और शालीनता के लिए भी यादों में हैं। उन्होंने संपादकीय दर्प कभी नहीं पाला, बल्कि नए युवाओं को भी लिखने के लिए प्रेरित किया। हमारा सौभाग्य था कि जनसत्ता परिवार में हमें श्री राहुलदेव , प्रदीपजी जैसे संपादक मिले।
सतीश पेंडणेकरजी , धीरेंद्र अस्थानाजी, रविजी, गोडबोलेजी, दीपकजी अनिलजी द्विजेंद्रजी विद्योत्माजी, भारतीजी श्रीनारायण तिवारीजी राकेश श्रीमाल, ऋषिकेश राजोरियाजी जैसे अग्रज मिले। साथ के अपने समय उम्र के के अच्छे लोग मिले। दस सालों में कहीं कोई बहस नहीं , कोई लडाई नहीं, कोई तकरार नहीं। जनसत्ता परिवार में काम का सच्चा मूल्यांकन होता रहा।

प्रभाषजी ने जनसत्ता परिवार को एक परंपरा संस्कार दिए। यह उनका व्यक्तित्व था कि नब्बे के दशक में मेरे जैसे नए लड़के के लेखों को उन्होंने संपादकीय पेज पर भी प्रकाशित किया। यहां तक कि नब्बे के दशक के जिस ऐतिहासिक भाजपा सम्मेलन में लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव जीतने की स्थिति में बाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने की घोषणा की थी, उस पर भेजे गए मेरे लेख को उन्होंने जनसत्ता के संपादकीय पेज पर जगह दी थी। यह मेरी अति योग्यता नहीं बल्कि प्रेरित करने की एक शैली थी। वो खुद लिखने से ज्यादा विश्वास नए पत्रकार बनाने पर करते थे।

प्रभाषजी ने हमेशा सबको आगे बढने के लिए प्रेरित किया था। प्रभाषजी या राहुजजी जैसे संपादकों ने क्षेत्र जातीय , गुटबाजी , मठाधीशी, केबिनबाजी कुनबापरस्ती को दरकिनार कर हम सबको आगे बढने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने किसी तरह का भेदभाव नहीं किया। उस माहौल को हम कभी भूल नहीं सकते। उन लोगों को हम कभी भूल नहीं सकते। इसलिए हमारे शहर बदलते रहे, अखबार बदलते रहे, लेकिन जब भी जनसत्ता परिवार जैसा शब्द आया तो हम भावुक हो जाते हैं। रविजी हर साल जनसत्ता परिवार मिलन के आयोजन के लिए पुकार लगाते हैं तो तुरंत हवाई जहाज का टिकट लेकर मुंबई चले आते हैं। बस हसरत यही दो पल अपनो से मिल लें। जीवन में और क्या है।
परिवार यूं ही नहीं बनते। नकली आडंबर से परिवार नहीं बनते। उसके लिए गहरे संस्कार चाहिए सहज आत्मीयता चाहिए। हमें वो अपने उन अग्रजों से मिली।
दीपकजी ने पूरे लगन से इस थिसिस को लिखा है। इसे पढने की उत्सुक्ता है। वैसे प्रभाषजी की कागद कारे पर एक किताब आई है। लेकिन थिसिज समालोतनाओं के साथ होगी। कहीं न कहीं यह एक किताब का आकार भी लेगी।

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