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चार साल बाद भी ट्रालियों में झूल रही आपदा प्रभावितों की जिदंगी

केदार आपदा के चार साल …….

-एक स्थान पर कही दो-दो पुल तो कही नहीं बना एक भी पुल

-सांसद द्वारा गोद लिए गए गांव तीन साल बाद भी खुद चलने को नहीं तैयार  

राजेन्द्र जोशी 

देहरादून । केदार आपदा के उस भयावह मंजर को याद करके आज भी रूह कांप जाती है। न जाने कितने बेमौत लोग इस आपदा में मारे गये तो हजारों परिवार बेघर हो गये। आपदा को ठीक चार वर्ष का समय पूर्ण हो चुका है, लेकिन हालातों में अभी भी कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। आपदा पीड़ित जनता जैसे-तैसे अपने दिन काट रही है। इन चार वर्षों में अगर किसी की सुध नहीं ली गई है तो वह हैं, ऐसे अभागे मां-बाप जिन्होंने आपदा में अपने इकलौते बच्चों को खोया। इन बेसहारा मां-बाप का आज कोई आसरा नहीं है। वहीं चार सालों में मंदाकिनी नदी में झूलापुलों का निर्माण नहीं हो पाया है। आपदा पीड़ितों की जिदंगी ट्राली के सहारे कट रही है। न जाने ये ट्रालियां कितनी जाने अभी ओर लेंगी।

16/17 जून 2013 की केदारनाथ आपदा में रुद्रप्रयाग से लेकर सोनप्रयाग तक मंदाकिनी नदी पर केदारघाटी के सैकड़ों गांवों को जोड़ने वाले आठ झूला पुल बह गए थे। इन स्थानों पर लोनिवि ने आपदा के करीब तीन माह बाद हस्तचालित और हाइड्रोलिक ट्रॉलियां लगाई थीं, लेकिन इन ट्रॉलियों से लोगों को सुविधा कम, जख्म ज्यादा मिल रहे हैं। 27 नवंबर 2013 से छह सितंबर 2016 तक इन ट्रॉलियों से 40 से अधिक दुर्घटनाएं घट चुकी हैं।

 

केदारनाथ जल प्रलय को चार वर्ष का समय पूर्ण हो गया है। इन चार वर्षों में बहुत कुछ बदला है। सबसे बड़ा बदलाव केदारनाथ यात्रा में आया है। इस वर्ष कपाट खुलने के बाद केदारनाथ यात्रा ने अपने सारे पुराने रिकार्ड ध्वस्त कर दिये हैं। एक माह में तीन लाख तीर्थ यात्री केदारपुरी पहुंचे, इससे बड़ी सौगात कुछ और नहीं हो सकती है। अभी भी यात्रा पर आने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, जो कि आने वाले वर्षों के लिये भी शुभ संकेत से कम नहीं  हैं। आपदा के बाद कुछ नहीं बदला है तो वह है झूलापुलों की स्थिति। चार सालों में कई स्थानों पर झूलापुलों का निर्माण नहीं हो पाया है। जनता ट्रालियों की रस्सी खींचकर आज भी मंदाकिनी नदी की लहरों को पार करने को मजबूर है। कहीं तो एक स्थान पर करोड़ों रूपये खर्च करके दो-दो झूलापुल बनाये गये हैं, लेकिन कई स्थानों पर करोड़ों खर्च होने के बाद भी झूलापुल के पिल्लर तक नहीं लग पाये हैं। बरसात समाप्त होने के बाद जनता की आवाजाही के लिये विभाग द्वारा अस्थाई झूलापुल लगाये जाते हैं, लेकिन जैसे ही बरसात शुरू होने के बाद मंदाकिनी नदी का जल स्तर बढ़ता है, इन अस्थाई पुलों का निकाला जाता है या फिर नदी के तेज बहाव में बह जाते हैं। जिसके बाद जनता की आवाजाही दोबारा ट्रालियों के सहारे शुरू हो जाती है।

संगम, सिल्ली, कालीमठ को छोड़कर कही भी पुलों का निर्माण नहीं हो पाया है। विजयनगर और चन्द्रापुरी में झूलापुल की सबसे अधिक जरूरत है, लेकिन यहां मात्र झूलापुलों के पिल्लर ही खड़े हो पाये हैं। चन्द्रापुरी और विजयनगर में कई लोग बेमौत ट्रालियों का शिकार हो चुके हैं, लेकिन सुध लेने वाला कोई नहीं है। दोनों स्थानों पर पुल निर्माण की मांग को लेकर कई बार उग्र आंदोलन और केदारनाथ हाईवे को भी जनता जाम कर चुकी है, लेकिन पुल निर्माण के नाम पर मात्र कोरे आश्वासन ही मिलते आये हैं। फिर बरसात का सीजन शुरू हो गया है। मंदाकिनी नदी पर जनता की आवाजाही के लिये लगाये गये पैदल अस्थाई पुलों को नदी का जल स्तर बढ़ने के बाद निकाल दिया गया है। छोटे-छोटे स्कूली नौनिहाल और आपदा पीड़ित ट्राली के सहारे आवाजाही कर रहे हैं। अब न जाने कितनी और बेगुनाहों की जानें  इस वर्ष भी इन ट्रालियों के सहारे उफनाती मन्दाकिनी में समा जाएंगी।

दिवली भणिग्राम की बदहाल सड़क

अब बात सांसद आदर्श गांव दिवली भणिग्राम की करें तो सांसद द्वारा गोद लिए गए ये गांव मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के बाद भी अभी गोद में ही हैं ये गांव अभी पैदल भी नहीं चलने लगा है जब आपदा प्रभावित इस गांव की यह स्थिति है तो और गांवों की सूरत और सीरत क्या होगी यह अपने आप में विचारणीय है। इसकी सूरत बदलने के लिये हजारों  दावें और घोषणाएं की गई। शुरूआती दौर में अनेक योजनाएं बनी। अधिकारियों ने प्रत्येक महीने गांव के चक्कर पे चक्कर काटे, लेकिन बाद में सब कुछ शून्य हो गया। गांव को गुप्तकाशी से  जोड़ने वाला मोटरमार्ग आज भी बदहाल स्थिति में है। ग्रामीणों को रोजगार के साधन मुहैया नहीं करवाये गये। आपदा में इस गांव के कई लोग मारे गये थे, तभी इस गांव को गोद लिया गया था, लेकिन समय के साथ-साथ ग्रामीणों की सुध लेना भूल गये। यही हाल आपदा पीड़ित बड़ाूस गांव के हैं। इतना ही नहीं गांव को गोद लेने वाले सांसद ही गांव को गोद लेने के बाद कई महीनों से गांव तो क्या पूरे इलाके में कहीं दिखायीं नहीं दिए।

केदारघाटी के ऊखीमठ ब्लाक स्थित देवलीभणी ग्राम में आज भी आपदा पीड़ितों की आंखों में आंसू हैं। यह वही गांव है, जहां सर्वाधिक 54 लोगों को त्रासदी लील गई थी। 33 महिलाओं का सिंदूर उजड़ गया और कई मांओं की गोद सूनी हो गई थी। लेकिन, इन चार सालों में जिम्मेदारों का ध्यान सिर्फ यात्रा को व्यवस्थित करने पर ही रहा। नतीजा, आपदा पीडि़त चार साल बाद भी कुछ संस्थाओं के रहमोकरम पर जीने को मजबूर हैं।
देवलीभणी ग्राम के अधिकांश लोग केदारधाम में पुरोहिताई का कार्य करते थे। आपदा ने उनकी जिंदगी ही नहीं छीनी, परिवारों को भी चौराहे पर ला खड़ा कर दिया। लगभग 150 परिवारों वाले इस गांव में यूं तो हर परिवार आपदा पीडि़त है, लेकिन 54 परिवारों का तो आपदा ने सहारा भी छीन लिया।

हैरत देखिए कि धीरे-धीरे सरकार भी गांव को भूल गई। हालांकि, स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से गांव में कंप्यूटर, सिलाई-बुनाई का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, लेकिन इससे महिलाएं घर की जरूरतें ही पूरा कर पाती हैं। ऐसे में यह प्रशिक्षण रोजगार से नहीं जुड़ पाया।

पति को खो चुकी 38 वर्षीय रीता देवी कहती हैं, आपदा ने उनके परिवार को अनाथ कर दिया, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। रोजगार के लिए सिलाई का प्रशिक्षण लिया था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कुछ संस्थाओं की ओर से प्रतिमाह जो धनराशि दी जाती है, उसी से जैसे-तैसे घर की गुजर चल रही है।

इसी तरह 28 वर्षीय पूनम देवी कहती हैं कि सरकार ने अहेतुक धनराशि के साथ ही पांच लाख रुपये की मदद तो की, लेकिन स्वरोजगार का कोई जरिया मुहैया नहीं कराया। ऐसे में बच्चों के भविष्य की चिंता खाए जा रही है।

कांग्रेस के निर्वतमान जिलाध्यक्ष सुमंत तिवारी का कहना है कि आपदा के बाद केदारनाथ और केदारघाटी की व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का अहम योगदान है। पूर्व मुख्यमंत्री के प्रयासों की बदौलत आज केदारनाथ यात्रा पटरी पर लौटी है। उन्होंने कहा कि सांसद आदर्श गांव दिवली भणिग्राम के लिये कई घोषणाएं हुई थी, लेकिन धरातल पर एक भी घोषणा नहीं उतरी। जहां तक पुलों का सवाल है, कई पुल बन चुके हैं तो कई का निर्माण कार्य चल रहा है।

अलकनंदा घाटी में बेस पांडुकेश्वर अब भी नहीं सुरक्षित 

आपदा के चार साल गुजर जाने के बाद भी पांडुकेश्वर में अलकनंदा किनारे बाढ़ सुरक्षा कार्य अधूरे पड़े हैं। भूस्खलन से जर्जर कई आवासीय भवन अब भी हवा में झूल रहे हैं। पांडुकेश्वर में अलकनंदा साइट बाढ़ सुरक्षा कार्य न होने से नदी का रुख गांव की ओर है। हर वर्ष इधर बरसात शुरू होती है, तो उधर लोगों के दिलों की धड़कने आपदा की आशंका में तेज हो जाती हैं।

इन स्थितियों के बीच, आपदा की मार झेलने वालों में सरकारी सिस्टम के प्रति नाराजगी है। आपदा प्रभावित अंशुमान भंडारी की सुनिए। बकौल भंडारी-जून 2013 की आपदा में उनका लॉज भूस्खलन की चपेट में आ गया था। आज तक लॉज के नीचे से सुरक्षा दीवार का निर्माण कार्य नहीं हुआ है। आपदा प्रभावित दीवान मेहता, प्रेम भट्ट और मोहन लाल की पीड़ा भी मिलती जुलती है। उनका कहना है कि अलकनंदा साइट बाढ़ सुरक्षा कार्य अभी तक नहीं हुए हैं, जिससे उनके घरों को खतरा बना हुआ है।

आपदा प्रभावितों का कहना है कि वर्ष 2016 में गोविंदघाट पहुंचे तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को भी बाढ़ सुरक्षा कार्य शुरू कराने को लेकर ज्ञापन सौंपा था। बाढ़ सुरक्षा कार्य सिंचाई विभाग को करना था, लेकिन अब तक कार्य शुरू नहीं हुए हैं। 

इधर, जिला आपदा अधिकारी नंद किशोर जोशी का कहना है कि पांडुकेश्वर और गोविंदघाट में आपदा प्रभावितों को नियमानुसार मुआवजा दिया जा चुका है। पांडुकेश्वर में बाढ़ सुरक्षा कार्य के लिए सिंचाई विभाग को बजट मिला था। यहां अलकनंदा साइट बाढ़ सुरक्षा कार्य हुए भी हैं। यदि दोबारा बजट मिला तो पांडुकेश्वर से गोविंदघाट तक बाढ़ सुरक्षा कार्य किए जाएंगे।

जब यहां का खौफनाक मंजर देख फट गयी थी आँखें 

15 जून 2013 को तेज बारिश शुरू हो गई थी, फिर आई थी वो खौफनाक तारीख। 16 जून को केदारनाथ त्रासदी के चार साल पूरे हो जाएंगे। ये ही वो वक्त था, जब प्रकृति ने उत्तराखंड पर जमकर कहर बरपाया था। 

अंधेरी रात और खौफनाक मंजर, ज‌िसने भी देखा उसकी रूह कांप गई। चारों तरफ कंकाल ही कंकाल और आस पास भी कोई नहीं, ऐसा भयावन नजारा उस महाप्रलय का साक्षी था। 16/17 जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद से अब तक 645 कंकाल मिल चुके हैं। संभावना है कि यदि खोजबीन की जाए तो और कंकाल मिल सकते हैं।
आपदा के बाद गौरीकुंड, त्रियुगीनारायण और चौमासी क्षेत्र से केदारनाथ तक करीब सवा महीने चले अभियान में सेना, एसडीआरएफ व पुलिस जवानों को इन स्थानों पर 600 कंकाल मिले थे।तब सरकार ने इस अभियान को यह कहकर बंद कर दिया था कि अब पूरे क्षेत्र में कोई भी मृत नहीं हैं, लेकिन वर्ष 2015 को कपाट खुलने के एक सप्ताह बाद ही केदारनाथ में मंदाकिनी नदी किनारे दो कंकाल और मिल गए।

बाद में भी तीन कंकाल केदारपुरी में मिले थे। बीते वर्ष 8 अक्तूबर को हिटो केदार अभियान के तहत त्रियुगीनारायण-केदारनाथ ट्रेकिंग रूट पर ट्रेकर्स ने 50 से अधिक कंकाल होने की बात कही थी। 13 अक्तूबर को शासन ने भी माना कि वहां कंकाल हैं।

​​तब शासन स्तर पर 16/17 अक्तूबर को पांच टीमों के साथ चलाए गए विशेष खोजबीन अभियान के तहत 33 कंकाल और मिले। इस वर्ष 16/17 मई को पांच टीमों द्वारा केदारनाथ धाम सहित पांच अलग-अलग जगहों में दो दिवसीय अभियान चलाया गया तो 7 कंकाल और मिले। केदारनाथ नगर पंचायत के पूर्व अध्यक्ष दिनेश बगवाड़ी ने क्षेत्र में और कंकालों के मिलने की संभावना से इनकार नहीं किया।

लामबगड़ आज भी नहीं सुरक्षित 

बदरीनाथ हाईवे बैनाकुली से लामबगड़ तक बह गया था। लामबगड़ बाजार भी पूरी तरह अलकनंदा में समा गया था। बदरीनाथ हाईवे का मौजूदा समय में नवनिर्माण हो गया है, लेकिन आपदा के चार साल बाद भी लामबगड़ गांव का जन-जीवन पटरी पर नहीं लौट पाया है। लामबगड़ बाजार में करीब एक दर्जन अस्थायी दुकानें संचालित हो रही हैं, जबकि गांव के लिए जाने वाला पैदल मार्ग अभी भी बदहाल है।

इन स्थितियों के बीच, उर्गम घाटी में कल्पगंगा पर निर्मित झूला पुल जलप्रलय के दौरान बह गया था, जिसे आज तक नहीं बनाया गया है। स्थानीय लोग बल्लियों के सहारे नदी पार कर रहे हैं। वर्ष 2016 में कल्पगंगा पर 80 मीटर लंबे पैदल पुल के निर्माण की स्वीकृति सरकार ने दी थी। इसके लिए पांच करोड़ 71 लाख की धनराशि भी स्वीकृत हुई, लेकिन अब तक पुल निर्माण का कार्य अधूरा है। बदरीनाथ हाईवे पर लामबगड़ भूस्खलन जोन वर्ष 2013 से और भी खतरनाक बना हुआ है। यहां स्थायी ट्रीटमेंट कार्य शुरू तो हो गया है, लेकिन अभी इसे पूर्ण होने में करीब दो वर्ष लग जाएंगे।

भू-धंसाव के कारण दशोली विकास खंड के चमेली गांव में कई आवासीय भवन क्षतिग्रस्त हो गए थे। वर्ष 2013 में तत्कालीन राज्य सरकार ने प्रभावित परिवारों को होटलों में ठहरने के लिए किराया मुहैया कराया था। गांव के कुल 158 परिवारों में से 75 परिवारों का पुनर्वास कर दिया गया है, जबकि 83 परिवार अभी भी पुनर्वास की आस लगाए हैं।

प्रभावितों का कहना है कि प्रशासन उनके आवासीय भवनों को क्षतिग्रस्त नहीं दर्शा रहा है, जबकि उनके मकान पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं। यही स्थिति आपदा प्रभावित दुर्गापुर, बौंला गांवों की भी है। आपदा प्रभावित राकेश लाल, जगमोहन और महिपाल का कहना है कि कई बार प्रशासन से गांव के पुनर्वास की मांग की गई, लेकिन प्रभावितों की सुनी नहीं जा रही है।

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