नब्ज पर “हाथ” रखा तो “वो” बुरा मान गये ..
योगेश भट्ट
राज्य सचिवालय के अनुभागों में बाहरी व्यक्तियों और पत्रकारों के प्रवेश पर रोक क्या लगी मानो किसी ‘दुखती नब्ज’ पर हाथ रख दिया गया हो । मुख्यसचिव के इस आदेश के बाद हंगामा बरपा है ।आश्चर्य यह है कि राजकाज की व्यवस्था से जुडा आदेश मूलत: सचिवालय के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिये है, लेकिन प्रतिक्रिया मीडिया बिरदारी से आ रही है । मीडिया की आजादी खतरे में बतायी जा रही है, सरकार पर सवाल उठने लगे हैं । ऐसा तूफान मचा है कि मानो आपातकाल लगा दिया गया हो, विपक्ष तो यही कह भी रहा है ।
आरोप है कि सरकार अपने कारनामो को छिपाने के लिये मीडिया पर बंदिश लगा रही है। सवाल यह है कि क्या मीडिया पर सरकार वाकई बंदिश लगा रही है, क्या इससे वाकई मीडिया की आजादी खतरे में है । यह जानने के लिये जरूरी यह है कि उस आदेश पर गौर किया जाए जिसे मीडिया की स्वायत्ता के लिये खतरा बताया जा रहा है । दरअसल 27 दिसंबर 2017 को मुख्यसचिव उत्पल कुमार सिंह ने अपर मुख्य सचिव, सचिव व प्रभारी सचिवों को एक गोपनीय आदेश जारी किया । जिसमें राजकाज में आवश्यक गोपनियता भंग होने पर चिंता जतायी गयी , खासकर मंत्रिमंडल में आने वाले विषयों के बैठक से पहले ही प्रकाशित होने को गंभीरता से लिया गया । मुख्यसचिव ने महत्वपूर्ण विषयों पर खासकर मंत्रीमडल में आने वाले विषयों की गोपनियता बनाये रखने के लिये व्यवस्था संबंधी यह गोपनीय आदेश जारी किया ।
इस आदेश में अधिकारी कर्मचारियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की गयी है, उसी में यह भी स्पष्ट किया गया है कि सचिवालय के अनुभागों में अनाधिकृत बाहरी व्यक्तियों और पत्रकारों का प्रवेश वर्जित रहेगा। मुख्यसचिव की ओर से की गयी यह व्यवस्था कोई नयी नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के जमाने से सेकेट्रियेट मैनुअल में पहले से विद्यमान है । आखिर क्या गलत है इस अादेश में , यह बात अलग है कि उत्तराखंड में इस पर अमल के बजाय इसकी धज्जियां उडायी जाती रही हैं। इस मैनुअल के मुताबिक अनुभागों में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों को कार्यालय में आगंतुकों से मिलने व बात करने की इजाजत तक नहीं है। कार्य के दौरान अनुभागों में बाहरी व्यक्तियों का आवागमन पूर्णत: वर्जित है । बहुत आवश्यक हो तो अनुभाग के अधिकारी कर्मचारी सिर्फ रिशेप्सन पर ही आगंतुक से मुलाकात कर सकते हैं। सच यह है कि सरकार का इस आदेश से सीधे कोई सरोकार नहीं है, यह राजकाज की व्यवस्था से जुड़ा प्रशासनिक आदेश है।
सही मायनों में यह आदेश राज्य सचिवालय की कार्य संस्कृति व व्यवस्था से जुड़ा आदेश है, जिसे शुरुआती दौर से ही पूरी सख्ती से अमल में लाया जाना जरूरी था। यह उस बिगड़ी कार्य संस्कृति से जुड़ा आदेश है जिसका जिक्र हर जिम्मेदार करता तो रहा लेकिन जिम्मेदारी से बचता रहा है। कौन आज इस हकीकत से वाकिफ नहीं है कि सचिवालय आज किस्म किस्म के “दलालों” का गढ़ बना हुआ है । मुख्यमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार इस हकीकत से वाकिफ है कि प्रदेश के सिस्टम को खोखला कर चुके “दलाल” ठेकदार, पत्रकार, और नेता की शक्ल में हर रोज सचिवालय में मंडराते नजर आते हैं । राज्य का सिस्टम और यह “दलाल” अब एक दूसरे के आदी हो चले हैं, दोनो के हित एक दूसरे से सधते चले आ रहे हैं । यही एक कारण है कि सचिवालय में कोई जिम्मेदार और जवाबदेह सिस्टम बनने ही नहीं दिया गया, आज पूरे सिस्टम पर सियासत और षडयंत्र हावी हैं। जब जब सिस्टम बनाने की कोशिश हुई तब तब ऐसा माहौल बना दिया गया कि ज़िम्मेदारों के कदम ठिठक गए।
यह अपने आप में आश्चर्य है कि मुख्यसचिव का गोपनीयता और व्यवस्था से जुड़ा एक आदेश 48 घंटे भी गोपनीय नहीं रह पाया। साफ है कि मुख्यसचिव का हालिया आदेश भी सिस्टम को ही रास नहीं आ रहा है, वरना इस आदेश के ‘लीक’ होने का सवाल ही नहीं उठता । अब सवाल यह है कि कौन है वो ताकतें जो नहीं चाहती कि राज्य सचिवालय में जिम्मदार और जवाबदेह सिस्टम तैयार हो ? कहीं ऐसा तो नहीं मीडिया की आड़ में ‘खेल’ कोई और खेल रहा हो ? इस मुद्दे पर मीडिया जिस तरह मुखर हुआ है उससे खुद मीडिया की भूमिका पर भी सवाल है । जब बात सचिवालय की कार्य संस्कृति और व्यवस्था का हो तो यह सवाल भी उठना जरूरी है कि आखिर अनुभागों में प्रवेश मीडिया के लिये क्यों जरूरी है ? मीडिया के लिये न तो वहां कोई जवाबदेह बैठता है और न ही ऐसा जिम्मेदार जिससे मिलना जरूरी है ।
सच्चाई यह है कि अनुभागों में न जा पाने का नुकसान एक खबरनवीस के लिये तो हो ही नहीं हो सकता । नुकसान तो उन्हें है जो सचिवालय की फाइलों की मूवमेंट के सौदागर हैं, नुकसान उन्हें है जो पत्रकारिता या समाजसेवा की आड़ में व्यक्तिगत हित साधने में लगे हैं । वह चाहे कोई पत्रकार हो या कोई कलाकार । दिक्कत उन्हें है जो कहीं लेंड यूज की फाइल थामे हैं या फिर किसी खनन पटटे या स्टोन क्रसर पर नजर लगाये बैठे हैं । वो परेशान हैं जो इंस्टिटयूट और कालेजों की एनओसी का ठेका लिये हैं या फिर ठेकेदारों के मुखबिर बने हुए हैं।
जनपक्षीय मीडिया का तो सही मायनों में अनुभागों से कोई सरोकार ही नहीं । क्योंकि मीडिया का काम सूचना देना और सरकार के कामकाज पर सिर्फ नजर रखना है न कि उसमें दखल देना । जहां तक मीडिया की आजादी का सवाल है तो सरकार के कामकाज की पडताल करने उसकी समीक्षा करने और सवाल उठाने पर कहां मनाही है । जब इस सब की मनाही नहीं है तो फिर आजादी पर बंदिशों का यह सवाल कैसा ? दुखद तो यह है कि मीडिया की आजादी की बात वह मीडिया कर रहा है जिसकी खुद की विश्वसनियता पर सवाल है ।
स्वायत्ता की बात वह मीडिया कर रहा है जो चाटुकारिता की तमाम हदें पार कर चुका है, जिसके सत्ताधारी पार्टी के एक नेता का नया साल अपने घर में मनाने की खबर सिर्फ इसलिये पहले पेज की खबर है क्योंकि वह बड़े नेताओं का करीबी है । आज वह मीडिया व्यवस्था को चुनौती दे रहा है, जिसके लिये यह खबर कोई अहमियत नहीं रखती कि सरकार ने निकायों के सीमा विस्तार के फैसले के पीछे जमीनों का बडा खेल हुआ। उसके लिये यह खबर भी मायने नहीं रखती कि एक आईएएस अधिकारी को सरकार ने सेफ एग्जिट क्यों दिया ।
सरकार पर सवाल उठाने वाला मीडिया शायद यह भूल रहा है कि सरकार के आगे मुख्यधारा का मीडिया बिना किसी बंदिश के नतमस्तक है । संपादकीय पृष्ठों पर मुख्यमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के नाम से छपने वाले लंबे लंबे आलेख इसका प्रमाण हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि लाखों करोडों के सरकारी विज्ञापनों के लिये मीडिया सहर्ष सरकार की हर शर्त मानने को तैयार है । इसलिये मीडिया की आजादी पर बंदिशों की बात तो पूरी तरह बेमानी है । मसला राज्य को लगे गंभीर ‘रोग’ से जुड़ा है और राज्य के भविष्य के लिये इसका तत्काल इलाज भी जरूरी है । हालांकि रोग का इलाज करने निकले उत्पल साहब अब तक यह तो महसूस कर ही चुके होंगे कि उत्तराखंड के ‘मर्ज’ की ‘दवा’ आसान नहीं है । बहरहाल डगर कठिन जरूर है लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि इलाज हुआ तो नतीजे बेहतर होंगे ।