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उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के अंदर सब कुछ ठीक है इसकी पुष्टि कैसे होगी ?
आयोग और कोचिंग इंस्टीट्यूट्स का रोल लोग दबी जुबान से स्वीकार करते रहें हैं
किस संविधान में लिखा है कि राज्य से रजिस्टर्ड संस्थान से ही डिग्री होनी चाहिए और राज्य के ही अन्य मान्यता प्राप्त संस्थाओं से नहीं।
देहरादून : उत्तराखंड लोक सेवा आयोग ने APS के 122 पदों के सापेक्ष चार वर्ष पूर्व, जो विज्ञप्ति निकली थी, उसमें मुख्य परीक्षा के लिए क्वालीफाई, 2000 अभ्यर्थियों में से, 1530 अभ्यर्थियों को कंप्यूटर डिप्लोमा के अपेक्षित न होने के आधार पर मुख्य परीक्षा में, बैठने से वंचित कर दिया । लेकिन इसमें रोचक तथ्य यह है कि मुख्य परीक्षा के लिए 2000 में से 1600 अभ्यर्थी ही आवेदन कर पाए थे। कौतुहल का विषय है कि 400 अभ्यर्थी जो कि कुल आवेदनों का 20% हैं , ने आवेदन ही नही किया। प्रारंभिक परीक्षा के बाद मुख्य परीक्षा में क्वालीफाई होने के बावजूद इतने अभ्यर्थियों द्वारा APS जैसे 4800 ग्रेड पे वाले, आकर्षक पद के लिए आवेदन न करने का तथ्य भी कम आकर्षक नहीं है।
वैसे भी आयोग का आवेदन करने में विलंब होने या अन्य कारणों से दिक्कत झेल रहे अभ्यर्थियों के प्रति आयोग की असहयोग की भावना कोई नई नहीं है। 2017 में भी आयोग की मुख्य परीक्षा के लिए क्वालीफाई अभ्यर्थियों में से अनेकों अभ्यर्थियों द्वारा आवेदन भरने के अंतिम दिनों में सर्वर डाउन रहने या आयोग के ही अन्य पदों के आवेदन भरने के कारण नेटवर्क के अत्यधिक व्यस्त रहने के चलते, आवेदन पत्र न भरे जाने के तुरन्त बाद , आयोग से गुहार लगाए जाने के बाद भी, आयोग का प्रतिभाओं के साथ निष्ठुर व्यवहार सामने आया था।
उस समय भी लगभग रिकॉर्ड 800 से अधिक अभ्यर्थियों को मुख्य परीक्षा में बैठने से वंचित किया गया था। अभ्यर्थी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गए लेकिन न्यायालय ने भी आयोग से मशवरा करने की सलाह देकर वापस भेज दिया। इसमें एक रोचक मोड़ यह भी था कि मुख्य परीक्षा के आवेदनों के भरने में हाई कोर्ट के रोक लगाए जाने के कारण आयोग ने कुछ विवादित प्रकरणों के अभ्यर्थियो को लगभग 6-7 महीने बाद पुनः आवेदन भरने का अवसर दिया लेकिन जो अभ्यर्थी केवल नेटवर्क के अंतिम समय में व्यस्त रहने से छूट गए थे, उन्हें अवसर नहीं दिया गया। जबकि उन्हें कई स्रोतों से आश्वासन दिया जा रहा था कि जब आयोग 6-7 महीने बाद कुछ विवादित प्रकरण के अभ्यर्थियों को अवसर देगा तो नेटवर्क व्यस्त रहने के कारण छूटे हुए अभ्यर्थियों को भी क्यो नहीं देगा? लेकिन जो लोग छूट गए थे जाहिर है वे लोग रिमोट इलाकों में स्वतंत्र रूप से अध्धयन कर रहे थे या तो जो ओहदों में रहने वाले अभ्यर्थी रहे होंगे या कहीं सेवारत रह कर भी आयोग की परीक्षाओं की तैयारी करने वाले कर्मचारी। संभवतः कुछ कोचिंग इंस्टिट्यूटस के तालमेल से कुछ कोचिंग इंस्टिट्यूटस की मुख्यधारा से बाहर के अभ्यर्थी इसी बहाने बाहर कर दिए गये हों। देहरादून में कुछ लोग कोचिंग इंस्टीट्यूट्स का रोल लोग दबी जुबान से स्वीकार करते रहें हैं।
एक बार तो 2008 वाले PCS में आया सोशल साइंस का पेपर अगले वाले PCS की मुख्य परीक्षा में रिपीट हो गया। जिसे एक अखबार ने अपने प्रथम पृष्ठ में प्रकाशित किया था। इसमें भी कोचिंग इंस्टीट्यूट्स की रुचि का अनुमान लगाया गया था।
ध्यान देने की बात है कि उत्तराखंड के इसी लोक सेवा आयोग में सोशल साइंस के पेपर बहुत लाभदायक होने की जानकारी शुरू-शुरू में बहुत सीमित अभ्यर्थियों को रही है और शुरू-शुरू में ही कईयों ने इसको जमकर आजमाया। और एक बार तो 2008 वाले PCS में आया सोशल साइंस का पेपर अगले वाले PCS की मुख्य परीक्षा में रिपीट हो गया। जिसे एक अखबार ने अपने प्रथम पृष्ठ में प्रकाशित किया था। इसमें भी कोचिंग इंस्टीट्यूट्स की रुचि का अनुमान लगाया गया था।
वर्ष 2008 के PCS में तो इसी आयोग ने अपने सदस्यों की बैठक की अनुशंसा पर, साक्षात्कार पूरी तरह निपटने के बाद भी 56 ऐसे लोगों को साक्षात्कार के लिए बुला लिया जो पहले साक्षात्कार के लिए क्वालीफाई ही नहीं थे। फिर इन्ही बाद में बुलाये गए अभ्यर्थियों में से टॉपरों की अच्छी खासी खेप निकली। संयोंग ही था कि जब 2008 में जब आयोग के साक्षात्कार निपट गए थे तो आयोग के तत्कालीन चेयरमैन रिटायर्ड हो गए और उसी समय रिटायर्ड मुख्य सचिव जो उड़ीसा के रहने वाले थे, को उत्तराखंड में आयोग के चेयरमैन के योग्य किसी व्यक्ति के न मिलने की मुनादी करते हुए आयोग के चेयरमैन बने। फिर अंतिम समय में रिजल्ट पब्लिश होने के बजाय, अन्य 56 लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया और कुछ दिन में इन्ही 56 लोगों में टॉपर आ गए।
लेकिन बात इतनी नहीं है। इस PCS के रिजल्ट में सामान्य श्रेणी में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को छोड़कर उत्तराखंड मूल के अभ्यर्थी एकदम गायब थे और तो और उत्तरप्रदेश के भी इलाहाबाद के आसपास के इलाकों के अभ्यर्थियों को छोड़कर पूरा पश्चिमी उत्तरप्रदेश साफ था। अनेक बलिदानों के बाद बने उत्तराखंड की प्रतिभाओं के साथ यह एक बेहद भद्दा मजाक था। इस ही UDA / LDA के दूसरे बेच के संदर्भ में हुआ । इस परीक्षा के परिणामों में भी सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों में से भी संभवतः सिर्फ एक अभ्यर्थी उत्तराखंड मूल का था।
प्रारम्भिक परीक्षा होने के दो- दो वर्ष उपरांत अचानक अभ्यर्थियों को मालूम पड़ता है कि तुरन्त मुख्य परीक्षा होने वाली है। यह अलग बात है कि जिनके जानने वाले आयोग में है उन्हें समय पर मालूम पड़ जाता है कि परीक्षा होने वाली है। जिनका वहां कोई जानने वाला नहीं उन्हें तो तैयारी का भी अवसर नहीं मिलता कि पेपर की डेट सर पर आ जाती है।
थोड़ा याद दिला दें कि ये उन दिनों की बात है जब इधर आयोग के चेयरमैन उड़ीसा के थे तो सचिवालय में सारंगी बज रही थी। शायद दोनों उड़ीसा से थे। उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के काम करने का तरीका ही अजीबोगरीब है। प्रारम्भिक परीक्षा होने के दो- दो वर्ष उपरांत अचानक अभ्यर्थियों को मालूम पड़ता है कि तुरन्त मुख्य परीक्षा होने वाली है। यह अलग बात है कि जिनके जानने वाले आयोग में है उन्हें समय पर मालूम पड़ जाता है कि परीक्षा होने वाली है। जिनका वहां कोई जानने वाला नहीं उन्हें तो तैयारी का भी अवसर नहीं मिलता कि पेपर की डेट सर पर आ जाती है। बहुत से अभ्यर्थी तो ऐसे ही दौड़ में पीछे कर दिए जाते हैं।
आयोग का वार्षिक परीक्षा कलेण्डर भी कहाँ गया? जिसकी बड़ी बड़ी घोषणाएं आयोग कर रहा था। एक समय तो मध्य प्रदेश और बिहार में ब्लैक लिस्टेड कंपनी से आयोग से पेपर सेट करवाये जब हल्ला मचा तब उसे हटाया गया। UDA/LDA के पहले पेपरों में तो सारी प्रतिभाएं बागेश्वर और पिथौरागढ़ से पाई गई थी। जबकि उन पदों में केवल मुख्य परीक्षा थी साक्षात्कार नहीं। हमने साक्षात्कार में तो ऊपर नीचे होते सुना था लेकिन यहाँ तो मुख्य परीक्षा में ही प्रतिभाएं एक पर्टिकुलर इलाके से और कभी कभी एक ही फैमिली से तय हो गईं। एक ही परिवार के तीन- तीन लोग निकलते रहें हैं। कोई दो राय नहीं कि, हो सकता मेहनत से ही निकलें हो।
गौरतलब हो कि जब उत्तराखंड में नया- नया आयोग बना था तो लगभग सारा स्टाफ इलाहाबाद से आया था। जिसमें लगभग सभी लोग पूर्वी उत्तरप्रदेश के ही थे। वो ही अब आयोग में सुपरसींनियर अधिकारी बन चुके हैं और अमहत्वपूर्ण कुर्सियों पर विराजमान हैं। अब उनके द्वारा अपने हिसाब से उत्तराखंड लोक सेवा आयोग को चलाया जा रहा है। 2017 में मुख्य परीक्षा से वंचित किये अभ्यर्थियों ने आयोग से कहा कि प्रारभिक परीक्षा के बाद आयोग क्या सफल अभ्यर्थियों को एक SMS भी नहीं भेज सकता जब हाइटेक होने की इतनी दुहाई दे रहा है तो । पहले तो आयोग प्री -एग्जाम के समय फॉर्म पहुचने की पावती (acknowledgment) तक भेजता था फिर कॉल लेटर फिर मुख्य परीक्षा के आवेदन के साथ पूरा प्रपत्रों का बंडल।
लेकिन अब तथाकथित हाईटेक होने की आड़ में एक SMS तक मुख्य परीक्षा के लिए सफल अभ्यर्थियों के मोबाइल पर नहीं भेज सकता? लेकिन आयोग तो कभी गलत हो ही नहीं सकता। वो तो केवल औरों की ही परीक्षा लेता है। हमारी तो आज तक यह समझ में नहीं आया कि हिमाचल और हरियाणा जैसे हिंदी भाषी अन्य राज्य, यहाँ तक कि अब स्वयं उत्तर प्रदेश भी अपने युवाओं के हित को कैसे संरक्षित रखते हैं। वहाँ कोई अन्य राज्य वाला इतनी आसानी से सेलेक्ट होकर दिख दे। उप्र और बिहार वाले का टेलेंट हिमाचल और हरियाणा में कहाँ चला जाता है? केवल उत्तराखंड में ही यहाँ के सीधे साधे युवाओं के हितों में कुठाराघात करने का साहस कौन कैसे कर लेता हैं?
अब इस APS के पदों में डेढ़ हज़ार अभ्यर्थियों को इस तरह निकालने से विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। 122 पदों के लिए मुख्य परीक्षा के लिए ही मात्र 70 अभ्यर्थी रह गए हैं। यानी मुख्य परीक्षा करने की भी क्या आवश्यकता रह गयी ऐसे में ? विज्ञप्ति में क्या जानबूझकर ऐसी शर्त रखी कि बाद में, यानी प्रारम्भिक परीक्षा के चार वर्ष बाद, अधिकांश अभ्यर्थी दौड से बाहर हो जाएं। अगर यहाँ के अभ्यर्थियों को ही वरीयता देनी थी तो कुछ और तरीका अपनाते। अगर नहीं सूझ रहा था तो ऐसी शर्त नहीं रखते। किस संविधान में लिखा है कि राज्य से रजिस्टर्ड संस्थान से ही डिग्री होनी चाहिए और राज्य के ही अन्य मान्यता प्राप्त संस्थाओं से नहीं। पहले ही सार्वजनिक करके रखते की जब भी APS के पद आएंगे तो राज्य में रजिस्टर्ड संस्थान से ही कोर्स मान्य होगा तो ये छात्र वहीं से समय रहते कर लेते।
लेकिन यहाँ तो सब कुछ आवेदन पत्र भरने के समय ही मालूम पड़ता है। किसी पद के लिए यह डिप्लोमा चाहिए तो समझ में आता है। लेकिन इस इस इंस्टिट्यूट से ही चाहिए यह कम समझ में आता है। क्या ये शर्तें लगाने की रणनीतिक व्यूह रचना थी? जिसकी शतरंज में राज्य के प्रतिभाशाली युवा तीन-चार वर्ष तक, अपने तैयारी के महत्वपूर्ण समय, इस परीक्षा की तैयारी में देने के बाद ठगे महसूस कर रहें हैं।
क्या यह प्रावधान इस ढुलमुल कार्यशैली वाले आयोग द्वारा इतना महत्वपूर्ण घोषित कर दिया गया ? युवाओं को लगने लगा है कि यह आयोग के अंदर बैठे लोगों द्वारा बुना गया जाल है। जिसके औचित्य को सही सही ठहराने के लिए कुछ ज्यादा ही पढ़े लिखे और तथाकथित सामाजिक संवेदनाओं वाले स्थानीय लोगों को ही आगे कर दिया जाता है।
आयोग के चेयरमैन, मेंबर बदलते रहते हैं लेकिन आयोग का औपनिवेशिक तरीका नहीं। ये बातें तो बाहरी और प्रथम दृष्टया हैं जो कोई भी समझ सकता है लेकिन आयोग के अंदर सब कुछ ठीक है इसकी पुष्टि कैसे होगी? आयोग इन युवाओं के साथ इतने किंतु- परंतु लगा रहा है लेकिन आयोग में अब तक कई डिप्लोमा संबंधी प्रपत्रों की जांच में आजतक कहीं कोई असावधानी नहीं की गई इसका भरोसा युवाओं को हो नही रह है। शायद उत्तराखंड के निर्माण की संकल्पना में सिर्फ नेताओं के ही विकास की कल्पना थी। प्रतिभाशाली युवाओं और पलायन से बीहड़ होते जा रहे पहाड़ के गॉवों में अभी भी रह रहे लोगों के विकास की नहीं। जिस आयोग पर प्रदेश की सर्वोच्च प्रतिभाओं को चुनने की जिम्मेदारी है उसे चीजे को बृहद संदर्भ और प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है जो अभी आयोग की कार्यशैली से लग नहीं रहा है।
पंजाब, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश लोक सेवा आयोग के किस्से तो याद हैं न आपको? इनमें से कई राज्यो में चेयरमैन तक पर कार्रवाई हुई और कुछ जगहों पर तो चयनित अभ्यर्थियों तक को पोस्टिंग से ही वापस भेज गया था।
(यह आलेख विभिन्न लोगों द्वारा भेजे गए तथ्यों के आधार पर है इसे कतई भी देवभूमि मीडिया का विचार न समझा जाए यह लोगों की आवाज है जिसे प्रकाशित करना हम अपना जनहित में कर्तव्य समझते हैं।)