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सामुदायिक बहुलता में समरसता का पर्व है होली

भारत के प्रमुख त्यौहारों में विशेष रुप से इंद्रधनुषी छटा बिखेरने वाला पर्व है होली

कमल किशोर डुकलान 
रंगों का त्योहार होली भारत ही नहीं अपितु दुनिया का सामुदायिक बहुलता में समरसता से जुड़ा पर्व है,यह पर्व सांस्कृतिक,नैतिक,धार्मिक एवं सामाजिक आदर्शों को अन्तर्मन से एकरूपता में गढ़ने का काम करता हैै।…..
भारत वर्ष उत्सव एवं त्यौहारों का देश है,यहां हर दिन कोई न कोई त्यौहार आता ही रहता है। राष्ट्रीय एकता के दृश्य उपस्थित करने वाले विविध त्यौहार हमारे सांस्कृतिक,नैतिक,धार्मिक एवं सामाजिक आदर्शों को अन्तर्मन से एकरुपता में गढ़ने का काम करते हैं।आज समाज में जो अनुभव आ रहा है,उससे ऐसा लगता है कि हम अपने सांस्कृतिक,नैतिक,धार्मिक एवं सामाजिक आदर्शों से दूर होते जा रहे हैं,जबकि हमारे उत्सव एवं त्यौहार सात समंदर पार आज भी आत्मीय भाव अंतर्मन से बहुत ही उल्लास एवं उत्साह पूर्वक मनाए जा जाते हैं।
भारत के प्रमुख त्यौहारों में विशेष रुप से इंद्रधनुषी छटा बिखेरने वाला पर्व होली दुनिया का एकमात्र ऐसा त्यौहार है,जो सामुदायिक बहुलता में समरसता से जुड़ा त्यौहार है। इस पर्व में परस्पर मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन में उमड़ता है,वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को ध्वस्त भी करता है।फलस्वरूप किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर अबीर-गुलाल मल सकता है और आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धनकुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है। होली ही एक ऐसा पर्व है,जब दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उड़ेलने का अधिकार अनायास पा लेता है और अधिकारी भी अपने कार्यालय के सबसे छोटे कर्मचारी को गुलाल लगाते हुए,आत्मीय भाव अन्तर्मन से गले लगा लेता है। अगर देखा जाए तो रंग छिड़कने का पर्व होली उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है,जो मानव समुदायों के बीच असमानताएं पैदा करती हैं।
होली का पर्व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलन में मान्यता है कि होलिका को भगवान ब्रह्मा जी द्वारा आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। अलबत्ता उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी,जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद जल नहीं पाती थी। चूंकि होली को बुराई पर अच्छाई के प्रतीक रूप में माना जाता है,इसलिए जब वह अपने भतीजे प्रहलाद को विकृत व कू्रूर मानसिकता के चलते गोद में बैठाकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई,लेकिन भक्त प्रहलाद बच गए। ऐसे समय में होलिका को मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ,क्योंकि होलिका को भगवान ब्रह्मा जी द्वारा प्रदत्त शक्तियां असत्य और अनाचार की आसुरी शक्तियों में बदल गई थी जिस कारण होलिका प्रज्जवलित अग्नि में जलकर भस्म हो गई।
सामुदायिक बहुलता में समाज को गुमराह करने वाले कथित बुद्धिजीवी कभी प्रकाश पर्व दीपावली के परंपरावादी कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हैं तो कभी समरसता के पर्व होली के सांस्कृतिक स्वरुप पर। हम जानते हैं,कि हर देश की अपनी पहचान होती है,हमारे देश में मनाये जाने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व उसकी पहचान बनाए रखने के लिए मनाये जाते हैं,त्यौहार हमारे देश की पहचान का शाश्वत अंग हैं,खिलखिलाती प्रकृति के साथ मनाए जाने वाला त्यौहार होली भी हमारा शाश्वत त्यौहार ही है,जो परस्पर राग-द्वेष वैमनस्यता के भाव को समाप्त करता है और सामुदायिक बहुलता में सामाजिक समरसता का भाव प्रवाहित करता है। जब हम विविधता में एकता की बात करते हैं तो उसके मूल में सामाजिक समरसता का ही भाव रहता है। होली का स्वरुप भी सामाजिक समरसता वाला ही है,यहां वैमनस्यता का कोई स्थान नहीं है। होली का त्यौहार समरसता के भाव का प्रकटीकरण करता है।
होली पर्व को वैदिक युग में ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है। क्योंकि यह वह समय होता है,जब खेतों से पका अनाज काटकर घरों में लाया जाता है।जलती होली में जौ और गेहूं की बालियां तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं। होली में भी बालियां होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न के परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमााण है। इसलिए वेदों में इसे ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है। मसलन अनाज के नए आस्वाद का आगमन होना। होली नवोन्मेष खेती-किसानी की संपन्नता का द्योतक भी है,जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। होली उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है,जो धरती और अन्न के दानों को एकरूपता में सनातन मूल्यों के साथ एकमेव करता है।
होली का सांस्कृतिक महत्व ‘मधु’ अर्थात ‘मदन’ से भी जुड़ा है जिस कारण होली को ‘मदनोत्सव’ भी कहा गया है। हिंदी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋृतु का प्रेमाख्यान माना गया है।वसंत यानी शीत और ग्रीष्म ऋृतुओं की संधि-वेला। अर्थात एक ऋृतु का प्रस्थान और दूसरी ऋृतु का आगमन।यह एक ऐसा समय होता है जब प्रकृति अपने प्राकृतिक परिवेश में नई वनस्पतियों को रचती है।अगर सरल शब्दों में कहें तो मधु-मक्खियां अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन का मधु संचय का यही संघर्ष हर मानव के जीवन को मधुमयी बनाने का काम करता है।
फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा की रात चंद्र्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। इसी शीतल आलोक में भारतीय नारियां अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। इस पर्व पर भारतीय कुटंुब की भावना इस दर्शन में अंतर्निहित है। अर्थात होली के सांस्कृतिक महत्व का दर्शन नैतिक,धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एकरूपता गढ़ने का काम करता है।तय है,होली के पर्व की विलक्षण्ता में कृषि,समाज,अर्थ और सद्भाव के आयाम का एकरूप मिश्रण हैं। इसलिए यही एक ऐसा अद्वितीय पर्व है,जो सृजन के बहुआयामों से जुड़ा होने के साथ-साथ सामुदायिक बहुलता के आयाम से भी जुड़ा है।
अब प्रश्न उठता सबसे है,कि हमें अपने त्यौहारों के सामाजिक और सांस्कृतिक अवधारणा का ज्ञान क्यों नहीं है.? इसलिए लोग जैसा कहते हैं,हम वैसा ही माने जाते हैं,इससे आज हमारे त्यौहारों का स्वरुप परिवर्तित हो रहा है।वास्तव में हमें अपने त्यौहारों को नहीं बदलना है,बदलना तो हमको है। हमें ध्यान रखना होगा कि हम क्या थे? इसका जवाब यही है कि हम सांस्कृतिक थे,प्राकृतिक थे,सांस्कृतिक थे, सामाजिक थे,विश्व को ज्ञान का बोध कराने वाले थे,तभी तो हमारा देश विश्व गुरु के सिंहासन पर विराजमान था।अगर हम अपने अतीत की बात करें तो हमारा अतीत अत्यंत स्वर्णिम रहा है,अतीत पाथेय का काम करता है। होली का अतीत भी सामाजिक, सांस्कृतिक,प्राकृतिक और समरसता के लिए पाथेय है। हम अगर होली सांस्कृतिक आधार के साथ मनाएंगे तो हम भारत देश की संस्कृति को मजबूत बनाने का ही काम करेंगे। देश की रक्षा केवल सीमा पर लड़ने से ही नहीं होती,देश की रक्षा संस्कारों की रक्षा करने से भी होती है।होली हमारा सांस्कृतिक,सामाजिक संस्कार है। इसलिए हम पूरी तरह से आपसी वैमनस्य को त्यागकर प्रेम पूर्वक आनंद के साथ होली मनाएं।

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